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बाद में लिखा है कि जब जैन धर्म का अहिंसा सिद्धान्त अकबर ने स्वीकार किया तब से पूर्वकी की हुई हिंसा का अन्तःकरण में दुःख रूप पश्चात्ताप करता था, पश्चात्ताप उसको कहते हैं कि किये हुए पापों की माफी मांगना एवं उन पापों की निन्दा करना कि मैंने बहुत बुरा किया और भविष्य में इस प्रकार कठोर कर्म नहीं करूंगा। इस प्रकार मन में आलोचना करना पश्चात्ताप है।
डा० स्मिथ लिखते हैं कि जैन धर्माचार्यों ने नि:संदेह वर्षों तक अकबर को उपदेश दिया। बादशाह पर उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा। जैन साधुओं ने बादशाह से इतना जैन सिद्धान्त का पालन करवाया कि लोग समझ गये कि अकबर जैनी हो गया। ___डा. स्मिथ महाशय अकबरः नामक पुस्तक पृष्ठ १६६ में लिखते हैं कि सन् १५६२ के बाद उसकी जो कृतियां हुई है, उनका मूल कारण उनका स्वीकार किया हुआ जैन धर्म ही था। अबुलफजल ने अन्त में जो विद्वानों की सूची दी है उसमें तीन महान समर्थ विद्वानों के नाम आये हैं। क्रम से हीरविजयसूरिजी, विजयसेनसूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय ये तीनों जैन गुरु या जैन धर्माचार्य थे।
आईने अकबरी में एक बात और लिखते हैं कि अकबर का हुक्म था कि मेरे राज्य में कसाई, मच्छीमार, तथा मांस विक्रेताओं को अलग मोहल्ला में रहना चाहिये और किसी के साथ भेल संभेल न करें। अगर इस हुक्म को हमेशा के लिये नहीं पालेंगे तो वे सख्त सजा के पात्र बनेंगे।
आईने अकबरी में अबुलफजल लिखते हैं कि “अकबर कहता था कि मेरे लिये कितनी सुख की बात होती यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर संतुष्ट होते और दूसरे जीवों का भक्षण न करते । अथवा मेरे शरीर का एक
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