Book Title: Jagad Guru Hir Nibandh
Author(s): Bhavyanandvijay
Publisher: Hit Satka Gyan Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org #YA 100 ળ ૫ હોર નિવૃદ્ધ el Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ટાયરમલ અખર - B ચમ્પામાઇ ઝેરમા તૃપ્તનું સાનન્દ વિનય શાસ્ત્રી પ્રવાસ For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ ॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोधसंस्थान एवं ग्रंथालय ) पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org श्री ग्रंथांक : १३७० जैन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर- श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) महावीर ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। अमृतं आराधना तु केन्द्र कोब विद्या शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर हॉटल हेरीटेज़ की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - B 5. %- - - - - - श्री हित विजय जैन ग्रन्थ माला पुष्प नं० १४ ॥ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥ जगद् गुरु हीर निबन्ध PISIS NCAMOLORLoalNCR लेखक : मेवाड़केसरी श्रीनाकोडातीर्थोद्धारक जैनाचार्यश्रीमद्विजय हिमाचल सूरीश्वर-शिष्य मुमुक्षु भव्यानन्द विजय "व्या. साहित्यान" प्रकाशक SATISISTARSTHIS श्री हित सत्क ज्ञान मंदिर घाणेराव (मारवाड़) वाया-फालना वीर सं० २४८६ ) हीर स्व० सं० ( पांचवा संस्करण है १००० विक्रम सं० २०१६ ) ३६७ सन् १९६३ ReceKIECPER CISHES For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राप्ति स्थान श्री हित सत्क ज्ञान मंदिर मु. पो० घाणेराव (मारवाड़) वाया :: फालना : serving jinshasan 7008 Syanmandiokobatath ord: प्रथम संस्करण १५०० सन् १९५१ दूसरा संस्करण १००० सन् १९५२ तीसरा संस्करण १००० सन् १९५३ चौथा संस्करण १००० सन् १९५४ पांचवां संस्करण १००० सन् १९६३ ( सर्व हके श्री ज्ञान मंदिर के स्वाधीन है ) मुद्रक : कृष्णा आर्ट प्रेस, ब्यावर For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मेवाड़ केसरी आचार्यदेव ... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद विजय हिमाचल सूरीश्वरजी महाराज For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Jinniallhinnita.in hathani.hinbin. If h ulhan.nile l alite.....nitalianilee.than..alsinalthti AMA.. Wh.... in hindi 8: 5 5086.2016 समपेण 9.6999990960%%%% पूज्य जगद् गुरुदेव ? श्रीमद वीर परम्परागत गरे स्यादवाद पारंगते, जैनाचार्य शिरोमणौ . योगीश कल्प प्रभो ।। श्री संघ ध्वज नायवे नर प्रोद्बोधके दैवते, श्रीमद् हीर जगद् गुरौ सुमनसा भक्त्या प्रसूनार्पणम् ॥१॥ गुरु वीर वंशी हीर हे ? मम बात एक सुन लीजिये, वो रूप अपना आप जग में तूर्ण से कर लोजिये । गुरुदेव ! आशीर्वाद मुझको अब दया कर दीजिये, कर कंज युग में पुप्प दल को फिर दया कर लीजिये ।।२।। चरण किंकर "भव्यानन्द" For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir :: हीर गीति:: जय जय हीर ! जया शुभ सूदन ! जय सारद ! जयसूरे !। जय वीरेश्वर जिन पद चातक ! जय शरणीकृत सूरे ? ॥१|| हर मम सुखद ! विभो ! करुणा कर ! दैनिक कल्मष भारम् । मामनुकम्पय दीन मनाथं कुरु भवसागर पारम् ।। २ ॥ श्री गुरुदानपदाब्ज मधुव्रत ! दर्शय पद मभिरामम् । शासन नायक धर्म धुरन्धर ! पूरय मानस कामम् ।। ३ ।। अपराधम्मे विषहर ! परिहर वन्दे विमलं चरणम् । आत्माराम सुरमणे करुणा वरुणालय ! तवशरणम् ।। ४ ।। कुरु कुरु सदयं ममहृदि भगवन् ! गुरुवर ! हीर ! निवासम् । भक्त जन प्रिय ! नाथीनन्दन ! मामुद्धर निज दासम् ॥५॥ दूरं गमय दुराशयचेतो लधिमा हेत्वभिमानम् । दिशिदिश भातुतरा मिह भारत भावुक भासुर मानम् ॥ ६ ॥ जय जैनागम विपिन हरीश्वर ! हित मादिश शिवपन्थानम् । मानवता प्रतिकूल सुधारक ! कलयन्त्वथ मन्थानम् ॥ ७ ॥ जय जैनाजन ! शमथनिकेतन ! अपनय भवभयमोहम् । सूरि हिमाचल वन्दित ! नन्दित भव्यानन! तव दासोऽहम ॥ ८ ॥ इमां देव सुधां मत्वा भक्त्या गायाति यो नरः । तस्य सर्वार्थ संसिद्धि न्ददाति भगवान् गुरुः ॥६॥ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखक : हिमाचलान्तेवासि, जन्म : सं० १९८२ गाम गुडा (मेवाड) दीक्षा : सं० १६६८ उदयपुर ( राजस्थान ) भव्यानन्दावन मुमुक्षु भव्यानन्दविजय व्याकरण साहित्यरत्न For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • प्राक्कथन छ नाम रहंता ठाकुर, नाणा नहीं रहंत, कीति केरा डुगरा, पाड्या नहीं पडंत । इस परिवर्तनशील संसार में श्री, धन, वैभव, कुटुम्ब परिवार आदि कोई भी चीज चिरस्थायी अथवा स्थिर नहीं है, चूकि धन चोर ले जा सकता है महल मंदिर तोड़ा जा सकता है, कुटुम्ब परिवार अस्त होने वाले हैं और प्रतिष्ठा में भी मानहानि का भय रहा हुआ है, एक ही चीज संसार में सदा स्थिर रह सकती है और उसके बिना मानव का जीवन निरर्थक है, वह केवल कीर्ति, चाहे हम उसे जश कह सकते हैं, यह कीर्ति रूप पहाड़ सर्वदा अमर है, न तो कोई तोड़ सकता है और न कोई उसे छीन सकता है। यह सदा शाश्वत है, नीतिकार भी कहते हैं कि- “कीर्तिर्यस्य स जीवति" जिसकी संसार में कीर्ति है, वही मानव जिन्दा है, आज उन महापुरुषों को उषा के समय याद किया करते हैं, यद्यपि हमने उनको देखा नहीं, फिर भी बड़े चाव से उनका नाम लिया करते हैं, इसीलिये कि वे महापुरुष गुण रूप सुगंधी संसार में छोड़कर चले गये। आज भी कोई मानव अपने जीवन को आदर्शमय व्यतीत कर चल बसता है तो उसके नाम पर स्मारक आदि बनाया जाता है। यहां जो बात लिखी जा रही है, वह उस जमाने की बात है जब भारत के सर्वेसर्वा मुगल सम्राट अकबर बादशाह का एक छत्र साम्राज्य था, संसार में हिंसा का बोलबाला था, मंदिर और मूर्तियां तोड़ी जा रही थी, स्वयं अकबर भी बड़ा हिंसक था जो कि सवा सेर चीडियों की For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जांभ कलेवा में खाता था, अत्याचार और अन्याय का प्रचार था, और चारों तरफ त्राहिमां त्राहिमां मच रहा था। ऐसे विकट समय में निबन्ध नायक महापुरुष का जन्म हुआ था, और छोटीसी उम्र में दीक्षा लेकर के आगम सिद्धान्तों के अध्ययन के साथ २ योगोद्वहन किया, पन्यास, उपाध्याय, प्राचार्य और जगद्गुरुपद कहां और कैसे प्राप्त किया ? कट्टर विधर्मी अकबर को कहां और कैसे प्रतिबोध दिया ? राजा और महाराजाओं को कुपथगामी से कहां और कैसे बचाया ? जागीरदार और सुबाओं को सप्तव्यसनों का त्याग कहां और कैसे करवाया ? अकबर द्वारा जजियाकर. मतधन, कैसे छुड़वाया ? कैसे और किन तीथों के पट्टे करवाये ? किस प्रकार और कितने मास अकबर द्वारा दया पलबाई ? कितने संघ निकलवाये ? कितनी दीक्षाएं तथा प्रतिष्ठाएं करवाई ? कितना तप जर, और स्वाध्याय किया ? किन २ ग्रन्थों का सम्पादन किया ? समाजोत्थान के लिये कितना परिश्रम किया ? कैसा त्याग और वैराग्यमय जीवन था ? इन सारी घटनाओं को एक साथ इस निबन्ध में पाठक पढ़ सकेंगे। यद्यपि निबंध का कलेवर छोटा है किन्तु सार चीजें बहुत कम होने पर भी महत्वपूर्ण हुआ करती हैं और संक्षेप में होने से पाठक आसानी से समय निकाल सकेंगे । अवश्य एक बार पढ़ने का कष्ट करें। वह महापुरुष आज अपने बीच नहीं है फिर भी कीर्तिरूप लता संसार में फैल रही है और उस पुरुष की कीर्ति का ही यह संग्रह है, इस जीवन वृत्तान्त से आज का मानव प्रेरणा ले सके यही उद्देश्य लिखने का है, चूकि आज का संसार बड़ी तेजी से बदल रहा है, सभी देश एक दूसरे पर हमले की सोच रहे हैं जिससे रक्तपात यानि हिसा अत्यंत बढ़ रही है और आगे न मालूम कितनी बढेगी ? इस पस्तक द्वारा हिंसा से मानव विराम ले और अहिंसा की तरफ आगे बढे तो लेखक अपना परिश्रम सफल समझ सकता है। For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जबकि भारत स्वतंत्र हो चुका है फिर भी भारत में पशुवध हो रहा है, यह भारतीय जनता पर बड़ा धब्बा है, यह तभी मिट सकता है जब भारत में सर्वथा पशुवध बंद हो और अहिंसा की भागीरथी संसार में बहा दें, जिससे भारत सदा मुखी बना रहे ! प्रत्येक मानव को चाहिये कि महापुरुषों के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर के उसी प्रकार के ढांचे में अपने जीवन को डालने की कोशिश करे जिससे मानव जीवन की सार्थकता के साथ अपनी कीर्ति भी संसार में चिरस्थायी बन सके। प्रस्तुत पुस्तक का यह पांचवां संस्करण साध्वीजी श्री पुष्यश्रीजी की शिष्या विदुपी साध्वीजी श्री उद्योतश्रीजी की प्रेरणा से प्रकाशित हो रहा है जो कि उनके तथा उनकी शिष्या साध्वी बालचंद्राश्रीजी के वर्षीतप की स्मृति में निम्नलिखित महानुभात्रों की द्रव्य सहायता से भेंट देने का तय किया है। ५५१) एक बहन की तरफ से (गुप्त) १०१) श्री पुखराजजी चिमनीरामजी सादड़ी १०१) श्री छोगमलजी पूनमचंदजी की धर्मपत्नी चौथी बहन, सेदरिया ५१) श्री केसरीमलजी पूनमचंदजी सभी दानदाताओं को हार्दिक धन्यवाद ! प्रस्तुत पुस्तक में प्रेस दोष सम्बन्धी अथवा कोई प्रसंग पूर्वापर विरुद्ध मालूम होता हो तो कृपया सूचित करने का कष्ट करें जिससे आगामी संस्करण में परिवर्तन किया जा सके। किम्बहुना सुज्ञेषु ! जयहीर !! -मुमुक्षु भव्यानन्द विजय, "व्या० साहित्यरत्न" For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८ :: हीर गायनम् ये हीराः ! ये धीराः ? सदाधन्या सदामान्याः । सदाऽहं प्रार्थये सन्तं भवन्तं तारकं हीरम् ॥ १ ॥ 3 अहिंसा धर्म धौरेया, स्तथा वै शासका यूयम् । कन् बधकाः सत्य, न्तदाजाता जगत्ख्याताः ॥ २ ॥ जगत्यां जैनजन्तूनां शिरोमूर्धन्य सूरीशाः । महाभव्या महासभ्या, बुधा जैनागमाभिज्ञाः ॥ ३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहो वैराग्य मापन्ना, महापुण्या, सदापूज्याः । पुनारम्यं तदाकारं, स्वकीयं दर्शयैश्वर्यम् ॥ ४ ॥ कियन्तो भेद भावज्ञाः, स्वदेश प्रबुद्धा नाशयन्तोऽह " भारतं पूतम् । निशंहन्तु जगद्धर्मम् ॥ ५ ॥ विना हीरं विना वीरं जगत्त्रातु नचाशास्ते । तदर्थ "हिम्मतो" याचे पदाब्जं तारकं तेऽहम् ॥ ६ ॥ , समायातेऽधुनादेशे, पदाब्जे तावकं नूनम् । सुगास्यामो हि यास्यामो वयन्ते मंगलं गानम् ॥ ७ ॥ प्रशस्यं तादृशं रूपं सुधीः श्री कृष्णदेवोऽपि । मुमुक्षु लोकितु दक्षाः, सुभव्यानन्द रत्नादिः ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीजी श्री पुण्यश्रीजी की शिष्या विदुषी साध्वी उद्योतश्रीजी For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥ जगद्गुरु हीर-निबन्ध परिवर्तनशील संसार में उन्नति अवनति का चक्र घूमा ही करता है। जब मानव धर्म भावना से नीचे गिरने लगता है, तब प्रकृति के नियमानुसार कोई न कोई महापुरुष का अवतार हो जाता है । वे अपनी शक्ति के द्वारा मानव को नया मोड़ दे जाते हैं । सरल परिणामी मानव उससे यथेष्ट लाभ उठा कर जीवन को सार्थक बना लेता है; भाग्यहीन मानव व्यर्थ खो बैठता है। यहां पर एक विशिष्ट गुण सम्पन्न नाम वाले महापुरुष का वृत्तान्त लिखा जा रहा है जो कि संसार में अपना कीर्ति-स्तम्भ स्थापित कर चले गये। यहाँ लिखने का उद्देश्य यही है कि उस महापुरुष के द्वारा किये गये धर्म प्रभावना के कार्य की जानकारी बाल, वृद्ध और युवा सभी को हो सके। जिससे प्रेरणा लेकर के आगे बढ़े। यद्यपि श्रमण भगवान महावीर के ५८वें पट्टधर अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसूरीश्वरजी का गुणगान स्वल्प बुद्धि से होना परम दुष्कर है । फिर भी "शुभे यथाशक्तिः यतनीयं" नीति के अनुसार प्रयास किया जा रहा है। चूकि कदाचित् निराशा में भी आशा का दीप जल उठता है और महापुरुष का गुणगान श्रेयष्कर हुआ करता है। चरित्र नायक जगद् गुरुदेव का जन्म पालनपुर में हुआ था। पालनपुर का इतिहास इस प्रकार कहते हैं कि प्राचीनकाल में एक प्रल्हाद नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा ने कुमारपाल महाराज की बनाई हुई स्वर्णमय श्री शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति को For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि में गला कर वृषभ की मूर्ति बनवा कर श्री अचलेश्वर देव के सन्मुख स्थापित करदी। इस घोर पाप के कारण राजा के शरीर में दुष्ट कुष्ठ रोग का आविर्भाव हुआ । इस कोढ़ रोग से राजा के तेज लावण्यादि सम्पूर्ण गुण नष्टभ्रष्ट हो गये। राजा ने अपने नाम से प्रल्हादनपुर नाम का शहर बसाया। कर्म संयोग से किसी परोपकारी महात्मा ने राजा का पाप और रोग नाशक उपाय बताया कि पार्श्व प्रभु की मूर्ति बना कर निज मन्दिर में स्थापन कर पूजा भक्ति करने से सब रोग शोक नाश हो जायगा। इस बात को सुनकर राजा ने तुरन्त प्रल्हादन विहार नाम का चैत्य सुन्दर बनवाया और प्रतिष्ठा पूर्वक श्री पार्श्व प्रभु की मनोहर प्रतिमा स्थापित कर त्रिकाल पूजा भक्ति करने लगा। अल्प समय में ही राजा का शरीर आरोग्यमय होकर पूर्व की भांति चमकने लगा। राजा के आदेश से समस्त नागरिक प्रभु दर्शन से मानव जन्म की सार्थकता समझने लगे। कहावत भी है कि “यथा राजा तथा प्रजा ।" इसी प्रल्हादनपुर का अपभ्रंश होकर पालनपुर नाम जाहिर हो गया है । जोकि गुजरात के उत्तरी किनारे पर आज भी विद्यमान है। यह उस समय बड़ा समृद्धिशाली शहर था। किसी प्रकार से शहर वासियों को अशान्ति नहीं थी। इसी विशाल शहर में उपकेशवंश भूषण धनाढ्य एक कुंराशाह नाम का सेठ रहता था । वह सज्जन पुरुष दया दाक्षिण्यादि गुणों से युक्त था। इतना ही नहीं बल्कि ब्रह्मचारी गृहस्थों में मुकुटालंकार माना जाता था। आप प्रभु भक्त गुरु विनयी एवं धर्म के बड़े तत्वज्ञ थे । आपके सहचारिणी पतिव्रता धर्म में आसक्त एक नाथीदेवी नाम की भार्या थी। वह भी सुशीला और धर्मात्मा थी। कुंराशाह सेठ के साथ सांसारिक सुखों का अनुभव करती हुई नाथीदेवी ने उत्तम गर्भ को धारण किया । जिस रात्रि में गर्भ धारण किया उस रात्रि में हीरा की राशी For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवं सरोवर में स्वतन्त्र घूमते हुये हाथी को स्वप्न में देखकर नाथी देवी रोमांचित हृदय से अपने स्वामी से प्रश्न करती है। हे नाथ ! मैंने आज स्वप्न यह देखा है । तब श्रेष्ठी ने कहा कि हे प्रिये ! जो तुमने शुभ प्रद एवं अभीष्ट फल को देने वाला स्वप्न देखा है। इसके प्रभाव से निश्चय ही पुत्र रत्न होने की पूर्ण आशा है। नाथीदेवी निज पतिदेव का मनोनुकूल वचन सुनकर हर्षित हृदय से प्रेमपूर्वक गर्भ का पोषण करने लगी। इस उत्तम गर्भ के प्रभाव से घर में सुख एवं सम्पत्ति भी अनायास ही बढने लगी। इस बढ़ती हुई सौभाग्यलता को देख कर जल मीन की तरह पति और पत्नी के हृदय सरोवर में मनोरथ की श्रेणिये भी कल्लोल करती हुई बढ़ने लगी। एक दिन विलक्षण सुरभि वायु दिशाओं में चलने लगा। सर्व पशु पक्षी भी विलक्षण मधुर स्वर से बोलते हुए जंगल की राह चलने लगे। मानो कि भूतल में चन्द्रोदय की सूचना कर रहे हों । पालनपुर निवासी सज्जन भी निज निज आसन को छोड़ कर नित्य क्रिया करने लगे। कराशाह भी आवश्यक कार्य के लिये बाहर चले गये। इधर नाथी ने सं० १५८३ मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी के दिन प्रातःकाल शुभ मुहुर्त में निर्विघ्नपूर्वक उत्तमोत्तम लक्षणसंपन्न पुत्ररत्न को जन्म दिया। मानो कि महीतल पर चन्द्रोदय हो गया हो । सेठजी लौटकर कुछ समय के बाद आते ही दासी के मुख से जन्मोत्सव का हाल सुनकर असीम हर्ष में मग्न हो गये । सेठजी के घर पर अनेक तरह मांगलिक गीत होने लगे। इस पुत्र जन्म की खुशियाली में कुंराशाह ने अनेक उत्तमोत्तम धर्म कार्य करते हुए दीन दुखियों को अभिलाषित पान देकर संतुष्ट कर दिये । समस्त शहरवासी सज्जन भी सेठजी के पर पर पुत्र जन्मोत्सव में भाग लेते हुये हर्ष में अभिवृद्धि करने लगे। सम पुरुषों का जन्म किसको आनन्ददायक नहीं होता ? सर्व नगरवासियों के मुख से यही शब्द निकलने लगा कि लड़का भारत For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में अपूर्व आदर्श रूप चमकेगा। देखिये ! सत्पुरुषों का जन्म प्रभाव ! अपनी प्रभा दूसरों के हृदय कमल में स्वयं चलकर यशोगान कराती है। इधर माता-पिता विचार विमर्श करके अपने सम्बन्धियों को आमन्त्रण देकर खूब सत्कार सम्मान प्रेमपूर्वक करने लगे। आगन्तुक सम्बन्धी एवं नागरिक जनता के मनोनुकूल ज्योतिषियों ने शास्त्रानुसार हीराचन्द नाम रखा । हीरा नाम मात्र ही नहीं था बल्कि हीरा वास्तविक हीरा था। द्वितीया चन्द्र कला की तरह प्रतिभाशाली हीराचन्द्र भी दिनानुदिन विशेष बढ़ते हुये सात वर्ष के होने पर स्कूल में अध्यापक के पास शिक्षा के लिये जाने लगे। आपकी बुद्धि बड़ी विकस्वर थी। प्रकृति के आप बड़े चंचल थे। मगर गम्भीर भी कम न थे। स्कूल के सत्र छात्रों में आपकी मेधा अत्यधिक तेजस्वी थी। अल्प समय में ही आपने 'पांचों प्रतिक्रमण' "जीव विचार" "नवतत्व" "दंडक" "संघयणी" "नव स्मरण" "तीन भाष्य" "योगसूत्र" "उपदेश माला" "दर्शन सित्तरी" "चउ शरण पयन्ना" इत्यादि ग्रन्थ स्वाधीन कर लिये । जैसे २ आपका कलाभ्यास बढ़ने लगा वैसे २ गुण भी अधिक बढने लगे। कहा है कि अक्रोध वैराग्य जितेन्द्रियत्वम् । क्षमादया सर्वजन प्रियत्वम् ॥ निर्लोभिदाता भय शोक मुक्ता। ज्ञान प्रबोधे दश लक्षणानि ॥१॥ जब हीरजी के अन्तःकरण में ज्ञान का प्रादुर्भाव विशेष रूप से होने लगा तब से अपने हृदय में इन दस लक्षणों को भी धीरे धीरे स्थापन करने लगे। सारे शहर में एवं घर २ में बातें होने लगी कि सब विद्यार्थियों में अग्रेसर बन गया है और शिक्षक भी आपका आदर सत्कार प्रेम से करते हैं । यह अपने गांव में ऐसा नाम करेगा जो कि आज दिन पर्यन्त किसी ने नहीं किया। पाठक। देखिये। यह लोकोक्ति भी वास्तविक चरितार्थ होने जा रही है। , For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक दिन की बात है कि भव्य जीवों को प्रतिबोध देने के लिये ग्रामानुग्राम विचरते हुए तपागच्छाधिराज जैनाचार्य श्रीमद्विजय दानसूरीश्वरजी महाराज शिष्योपशिष्य सहित पालनपुर पधारने पर संसार सागर से पार लगाने वाली सर्वोपद्रव को नाश करने वाली मनोहर देशना आचार्य देवने प्रारम्भ की । प्रतिदिन बढ़ती हुई जनता को देखकर हीरजी भी अपने इष्ट मित्रों के साथ घूमते हुए व्याख्यान में पहुँच गये । व्याख्यान पढते हुए भी गुरुदेव की दृष्टि हीरजी के ऊपर पड़ते ही उनके स्वच्छ लक्षण उनकी आकृति से दीख पड़े | व्याख्यानान्तर गुरुजी के पूछने पर सभा में से उत्तर मिला कि सेठ कुंराशाह का प्यारा पुत्र है । गुरुजी ने क्षरण मात्र विचार कर गोचरी के निमित्त हीरजी के घर पधार कर उनके माता पिता के सामने दीक्षा सम्बन्धी भाव प्रगट किया कि यह लड़का साधु बन जाता तो शासन सेवा का भार अपने कन्धों पर वहन कर सकता | यह अमर नाम करता तो उसमें तुम्हारा ही गौरव बढ़ता इसलिये इसको वैराग्य का उपदेश देते रहना ताकि कभी यह स्वयं साधु पद स्वीकार करने की भावना करेगा । इतना वाक्य गुरु मुख से सुनकर मोह के कारण मातापिता मौन हो गये । तब गुरुजी भी अपने स्थान पर आ गये । कुछ दिन के बाद श्री संघ ने मिलकर कहा कि सेठ साहब ! गुरुदेव ने आपके घर पधार कर हीरा की याचना की, मगर आपने कुछ उत्तर तक नहीं दिया । अत्यन्त खेद है कि आपने गुरुदेव का वचन अंगीकार नहीं किया । अस्तु ! अब भी श्री संघ आपसे मांगनी करता है कि हीरा को गुरुदेव के चरणों में समर्पण करदो । अगर आप चाहें तो संघ सेहरा के बराबर स्वर्ण राशि ले सकते हैं। इस बात को सुन नाथी देवी ने कहा कि श्रीसंघ मालिक है जो चाहे सो दे सकते हैं किन्तु मेरा के बिना स्वर्ण राशि क्या शोभा देगी ? अगर श्रीसंघ का ऐसा ही आदेश है तो कुछ दिनों के बाद हीरा को गुरु चरणों में भेजने की For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोशिश करूंगी और इसका ऐसा ही भाग्योदय होगा तो वह स्वयं ही गुरु चरणों में आ जायगा । इस प्रकार वचन सुनकर श्रीसंघ धन्य धन्य करता हुआ गुरुदेव की जय बोलता हुआ गुरुदेव के चरणों में जाकर के हीरजी को सब बातें कह सुनाई । अल्पकाल में ही गुरुदेव भी पृथ्वी मंडल को पावन करते हुए भव्य प्राणियों को सन्मार्ग के अनुयायी बनाने लगे। इस मध्य में हीरजी के माता पिता ने सम्यक् प्रकार से धर्माराधनपूर्वक इस असार संसार से परलोक की महायात्रा कर के इस पालनपुर को अपने से शून्य बना दिया । इधर जनतागण लघु बालक हीरजी की अवस्था को देख कर मन में बड़े सन्तप्त होने लगे। हीरजी का तो कहना ही क्या था ? । कितने आपत्ति रूप बादल आये ? फिर बादल को ज्ञान रूप वायु से तितर-बितर करके अल्प समय में ही महाशोक से पृथक रह कर समय व्यतीत करने लगे। कुछ दिन के बाद हीरजी अपनी बहन से मिलने के लिये श्री अणहिलपुर पाटण गये। बहन भी अपने छोटे भाई को आये हुए देख कर अत्यन्त हर्ष में मग्न हो गई कुछ दिन के बाद अपने गांव जाने की आज्ञा मांगने पर बहन के अत्यन्त आग्रह से हीरजी और ठहर गये । एक दिन आप स्वेच्छापूर्वक श्री अणहिलपुर पाटण की शोभा देखते हुए घूमने लगे। इधर मुनीश्वर गुणागार आचार्य देव श्री मद्विजयदान सूरीश्वर जी महाराज महीतल को पावन करते हुए बड़े धूमधामपूर्वक उसी शहर में पधारे। उस समय नगर के सब नर नारियां कुतूहलता पूर्वक स्तनन्धय बच्चे को भी छोड़ छोड़ कर के आप के दर्शनार्थ उपस्थित होने लगे । हीरजी भी अभूतपूर्व समारोह को देखने के लिये इस झुण्ड में शामिल हो गये । श्रीसंघ के आग्रह से गुरुदेव धर्म शाला में पहुंचने पर जिन प्रतिपादित धर्मोपदेश रूप सुधा की वर्षा करने लगे। जिसमें For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चत्तारि पर मंगाणि दुलहाणिय जंतुणो माणुसतं सुइ शद्धा संजमंमिय वीरिअं० ॥१॥ इस गाथा के अर्थ को खूब प्रतिपादन करते हुए प्रभावशाली हृदयस्पर्शी मार्मिक व्याख्यान फरमाया । जनता मन्त्र की तरह मुग्ध भाव से दत्तचित होकर श्रवण करती रही। ऐसा उपदेश निकट भवि पुरुषों के लिए बहुत ही हितकारक हुआ करता है। चूंकि हीरजी के हृदय में भी इस मनोहर उपदेश का पूरा असर पड़ा। व्याख्यान संपूर्ण होने के बाद हीरजी अपनी बहन के पास जाकर के विनययुक्त शब्दों में कहने लगे। हे भगिनी । आज मैंने तपागच्छाधिराज श्री मद्विजयदानसूरीश्वरजी महाराज के मुखारबिन्द से संसार समुद्र से तारने वाली सदा सुख सौभाग्य को देने वाली मनोहर देशना सुनी है। जिससे विरक्त भाव पैदा हो गया है। अब मैं गुरुजी के चरणों में जाकर के श्री भागवती दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। अतः मुझे अविलम्ब आज्ञा प्रदान करें। ___ इतने शब्द सुनते ही बहन रोमांचित होकर अश्रुपात करती हुई गद् गद् स्वर में अपने कनिष्ठ प्यारे भाई से कहने लगी। हे प्रिय बन्धो ! हे सरल हृदय वत्स! दीक्षा व्रत तलवार की धार के समान, लोहचने के तुल्य, बड़ा कठिन साध्य है। क्योंकि दीक्षितों को नंगे शिर घूमना पड़ता है। सर्दी या धूप में नंगे पांव चलना पड़ता है। केश लुचित करना पड़ता है। घर घर भिक्षा मांगनी पड़ती है। सूखे लूके नीरस अहार से उदरपूर्ति करनी पड़ती है। बावीश परिषह सहन करने पड़ते हैं । कठोर तपस्याएँ भी करनी पड़ती हैं। तेरा ऐसा शरीर नहीं है जो कि ऐसे कठोर व्रतों को पालन कर सके इस लिये अभी तेरे लिये दीक्षा लेना योग्य नहीं है। भाई मेरा कहना यह है कि प्रथम एक तो कुलीना स्त्री से विवाह करके सांसारिक सुखों का भोग करले । पुत्रोत्पत्ति हो जाने के बाद तेरी इच्छा हो वैसा करना । इस प्रकार नानायुक्ति से समझाने पर भी धैर्यवान हीरजी अपने For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारों पर अटल रहे और वैराग्य की पुष्टि करते हुए भत हरि प्रदर्शित काव्य का अर्थ अपनी बहन को समझाने लगे। जैसे किकाव्यं भोगे रोग भयं कुले च्युति भयं वित्ते नृपालाद् भयम् । माने दैन्यभयं बले रिपुभयं काये कृतान्ताद् भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खल भयं रूपे जराया भयम् । सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्य मेवाभयम् ॥ १ ॥ अर्थ-भोग में रोग का भय है। कुल में नाश का भय है। धन में राजा का भय है। मान में दीनता का भय है । बल में शत्रु का भय है। देह में यमराज का भय है। शास्त्र में वादविवाद का भय है । गुण में दुष्ट का भय है। रूप में बुढापा का भय है। संसार की समस्त वस्तुओं में भय रहा हुआ है। किन्तु एक वैराग्य ही अभय है । इस तरह वैद्य की भांति वैराग्य रूप औषधि से बहन की की हुई हठ रूपी बीमारी को नाश करके वैराग्यमय जीवन बना कर गुरुजी के पास जाकर के सविधि वंदनापूर्वक गुरुदेव से करबद्ध प्रार्थना करने लगे। हे गुरुदेव ! हे तरणतारण भगवन् ! मैं आपके चरणों में रोग शोक को जड़ा मूल से उखाड़ फेंक देने वाली सुख सौभाग्य को बढ़ाने वाली, श्री भागवती दीक्षा, ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। अस्थिर संसार में कोई भी सार चीज नहीं है मैंने खूब समझ लिया। अब मेरी हार्दिक यही इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में रह कर सेवा करता हुआ आत्म कल्याण की ओर अग्रेसर बनू। अतएव बहुत ही जल्दी मुझे गृहस्थ वेष से पृथक कर साधु का वेष पहना दीजिये। इस प्रकार लघु बालक का माधुर्य वचन सुन कर गुरुदेव भी आश्चर्य मग्न हो कर मन ही मन संकल्प विकल्प करने लगे कि For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह छोटा बच्चा होता हुआ भी इसकी वाक शक्ति कैसी है और कैसे सुन्दर शब्दों का प्रयोग कर रहा है ? कहा है कि "शिष्य रत्नस्य प्राप्ताहि हर्ष उत्कर्ष भाग भवेत्” शिष्य रत्न की प्राप्ति में महान् पुरुषों को भी प्रमोद हो जाता है। हीरजी की आकृति से स्पष्ट मालूम होता था कि भावि गच्छनायक पट्टालंकार यही होगा। ऐसा गुरुदेव ने अंतःकरण में तर्कवितर्कपूर्वक श्रीसंघ को सूचना की कि यह भाई संसार से विरक्त होकर साधु पद की याचना करने के लिये मेरे पास आया है। श्रीसंघ ने विनयपूर्वक उत्तर दिया कि गुरुदेव ! अवश्य दीक्षा के योग्य लड़का है आप दीक्षा दीजिये। आचार्यदेव के उपदेश से श्रीसंघ ने अठाई महोत्सव एवं जुलूस की तैयारी धूम धामपूर्वक प्रारम्भ की, हीरजी के हृदय में संसार सम्बन्धी किसी भी पदार्थ की तरफ लक्ष्य बिलकुल नहीं है। आप दिनानुदिन अधिक वैराग्य में मस्त बनते जा रहे थे जो कि आपका दीदार बताता जा रहा था। सं. १५६६ मार्गशीर्ष (गु. का.) कृष्णा तीज के दिन सारे शहर में घूमता हुआ हीरजी का शानदार जुलूस नियत स्थान पर जा रहा था और शहर के हजारों नर नारी अपने घरेलू कार्य को छोड़ कर जुलूस में शामिल होने के लिये आगे पीछे दौड़ते जा रहे थे। वरघोड़ा नियत स्थान पर पहुंचने के बाद हीरजी रथ से नीचे उतर कर अपने ही हाथ से सांसारिक वेष को उतार कर विनीत होकर एकाग्रचित से गुरु चरणों के सामने खड़े हो गये । गुरुजी ने उत्तम पुरुष समझ कर शुभ मुहुर्त में श्री भागवती दीक्षा देदी, गुरुदेव श्री मद्विजयदान सुरीश्वरजी महाराज के कर कमलों द्वारा दी हुई दीक्षा को सहर्ष स्वीकार करके विनीत हीरजी कृतार्थ होकर दीक्षा की महत्ता बताते हुए जनता को भी दीक्षा स्वीकार करने के लिए कहने लगे। काव्यं दीक्षा मोह विनाशिका च सततं भव्योदय प्रापिका । दीक्षा पूज्यतमा समस्त भुवने जीवात्मनां पाविका ॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीक्षा श्री जिनसेविता च दलनी दुःखस्य शिक्षामयी। तांचे स्वीकुरुत प्रमोद जननी लोकाब्धि नावं जनाः ॥११॥ न च राज भयं न च चौर भयं । इह लोक हित परलोक सुखम् : नर देव नतं वर कीर्ति करं श्रमणत्वमिदं रमणीयतरम् ।।२।। अर्थ-दीक्षा मोह का विनाश करने वाली परम अभ्युदय को देने वाली, जीवात्माओं को पवित्र करने वाली, सकल संसार से माननीय जिनेश्वर भगवान से सेवित, दुःखों को निवारण करने वाली, विद्या मयी, और आनंद को देने वाली, संसार समुद्र में नौका रूप दीक्षा है अतः उसे सब प्राणियों को अपनाना चाहिये। साधुता में न तो राजकीय भय है न चोरी का भय है तथा इहलौकिक हित और पारलौकिक सुख मिलता है। साधुता की देव मनुष्य भी स्तुति करते हैं और साधुपना में कीर्ति बढ़ती है । साधुता परम रमणीय है। ___ हीरजी का दीक्षित नाम श्री मद्विजयदानसूरीश्वरजी ने हीरहर्ष मुनि रखा । हीरहर्ष मुनि सम्यक् प्रकार से तपस्या एवं रत्नत्रय की आराधना करते हुए परिशुद्ध आशय से गुरु चरणों की सेवा में लवलीन होते हुए गुरुदेव के पीछे छाया की तरह प्रति पलं रहने लगे। हीरहर्ष मुनि पांच महाव्रत तीन गुप्ति पांच समिति तथा करण सितरी चरण सितरी को पूरी तरह से पालन करते हुये उच्च शास्त्र का अध्ययन दत्तचित्त होकर करने लगे। गुरुदेव के समीप पढ़ते हुये थोड़े ही समय में शास्त्रों का सम्पूर्ण अध्ययन कर जैन सिद्धांत के धुरंधर विद्वान बन गये । पाठक देखिये, गुरु कृपा का फल ! गुरु कृपा जिस पर हो जाती है वह तो विद्वत्तापूर्ण वाक् शक्ति में अपूर्व ही बढ़ जाता है और संसार सागर उनके लिये सुगम हो जाता है। इसी तरह हीरहर्ष मुनि भी गुरु कृपा से सज्ञान का विकस्वर विशेष रूप से करने लगे। For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक दिन गुरुदेव श्रीमद्विजयदानसुरीश्वरजी अपने अन्तःकरण में सोचने लगे कि हीरहर्ष मुनि बड़ा बुद्धिमान और अधिक प्रतिभाशाली है। इतनी छोटी अवस्था में ही ज्योतिष शिल्प न्याय व्याकरण आदि शास्त्रों में पारंगत हो गया। अब षट् दर्शन सम्बन्धी शास्त्र ही शेष रहा है। अगर उसका भी अध्ययन कर लेता तो चन्द्रमा की पूर्ण कला की तरह यह भी सकल कला से सम्पन्न हो जाता और अगाध यौगिक सागर में लघुबुद्धि रूप नदियों का निवारण कर सकता तथा अन्य कंटकादि रूप प्रतिपक्षियों का निवारण कर सकता इत्यादि मनोरथ रथ बढाते ही हीरहर्ष मुनि चरणाश्रित होकर बोलने लगे कि पूज्य गुरुदेव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो शेष रहे हुए दर्शन शास्त्र का भी अध्ययन करलू। किन्तु आपकी सेवा से वंचित रहना इष्ट नहीं है । अतः किंकर्तव्यमूढ़ हूँ। __ इतने हीरोक्त वचन सुनते ही गुरुदेव कहने लगे, प्रिय विद्या प्रेमिन् ! मेरी इच्छा के अनुसार ही तेरी इच्छा की जागृति हुई। अस्तु, सेवा देवी तेरे हृदय मन्दिर में विराजमान है तो उससे वंचित होने की लेश मात्र भी शंका नहीं रखना । अब रहा अध्ययन का विषय। उसमें इस देश के पंडितों की अपेक्षया दक्षिण देशस्थ विचक्षण विद्वानों से ही अधिक लाभ होगा। क्योंकि यहां के विद्वद्गण तद्देशीय पंडितों की तुलना नहीं कर सकते । अतः वहीं जाओ। इतना कहकर विजयदानसूरिजी ने शुभ दिन देख कर धर्मसागरजी आदि ४ शिष्यों के साथ हीरहर्ष मुनि को दक्षिण देश में अध्ययन करने के लिये भेज दिया। __हीरहर्ष मुनि गुरुदेव से दी हुई आज्ञा माला को पहन कर मार्ग में पिपासुजनों को धर्मोपदेश रूप सुधा से सन्तुष्ट करते हुये अचिर समय में ही आदिष्ट दक्षिण देशस्थ देवगिरि नामक दुर्ग स्थान पर For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहुँच गये । आपके साथ भक्तगण भी पूजीपात्र थे जिससे पढ़ने लिखने की व्यवस्था शीघ्र अच्छी तरह हो गई । अब हीरहर्ष मुनि दत्तचित्त से अभ्यास करने लगे। थोड़े ही समय में आपने चिंतामण्यादि शैवादिशास्त्रों का प्रखर पांडित्य प्राप्त कर लिया । हीरहर्ष मुनि अपने इष्ट कार्य को सम्पन्न कर दक्षिण देश से प्रयाण कर अहिंसा धर्म का पूर्ण प्रचार करते हुये गुजरात की तरफ पधार गये। उस समय तपागच्छनायक शासन सम्राट श्री मद्विजयदान सूरीश्वरजी गुजरात के तीर्थों की यात्रा कर मरुधर तीर्थों की यात्रा करते हुये नारदपुरी में पधारे । गुरुदेव की जिज्ञासा करने पर हीरहर्ष मुनि को पता चला कि गुरुदेव मारवाड़ में बिराजते है । आप भी तुरन्त वहां से विहार कर गुरुदेव के दर्शन करने की लालसा से नारदपुरी में पधार गये । जिस समय गुरु शिष्य की भेंट हुई। उस वक्त के हर्षश्रोत का वर्णन करना लेखनी के बाहर का विषय है। . अलौकिक प्रतिभाशाली विनयवान शिष्य को देख कर गुरु महाराज की प्रसन्नाकृति पूर्ण चन्द्र जैसी चमकने लगी। गुरुदेव को देखते ही हीरहर्ष के नेत्र से हर्षाश्रु की नदी बहने लगी। तदनन्तर हीरहर्ष मुनि ने तात्कालिक बनाये हुये १८८ काव्यों में खड़े २ गुरुदेव की स्तुति करके गुरुदेव को सविधि द्वादशव्रत वन्दना की । जैसे चन्द्र को देख समुद्र की कल्लोलें उल्लास को प्राप्त करती हैं। वैसे ही गुरु महाराज भी सकल कलाभ्यास संपन्न विनीत शिष्य को पाकर हर्षित होने लगे। हीरहर्प मुनि भी गुरु सेवा हार्दिक भाव से करते हुये सद्गुणों का विशेष विकस्वर के साथ योगोद्वहन करने लगे। हीरहर्ष मुनि की विद्वत्तापूर्ण योग्यता जानकर कुछ समय बाद उसी नारदपुरी नाम की नगरी में आचार्य देव ने सं० १६०७ में श्री ऋषभ देव प्रासाद के सानिध्य में श्रीसंघ के समक्ष मुनि को पंडित (पंन्यास) पद प्रदान किया। इस पद को भली प्रकार पालन करते हुये एक वर्ष For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ पूरते ही नारदपुरी के समस्त श्रीसंघ ने मिल करके आचार्य गुरुदेव से प्रार्थना की। हे प्रभो ! हम लोगों का यह विचार है कि पंडित पढ़ से उपाध्याय पद दिया जाय । तो बहुत ही उत्तम होगा । गुरुदेव के हृदय सरोवर में भी इस बात की लहरें चल रही थी और संघ ने आग्रह भरी विनंती की जिससे गुरुदेव के विचार पूरे दृढ़ ( मजबूत) हो गये । श्रीसंघ की साक्षी में श्री नेमीनाथ भगवान् के मन्दिर में सूरि शिरोमणि श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा शुभ समय में हीरहर्ष पंडित को सं० १६०८ में उपाध्याय पद से त्रिभूषित किये गये । आप भी अब उपाध्याय जी के कर्तव्य में पूरे संलग्न रहने लगे । उपाध्याय पद देने के पश्चात् वादिगज केसरी श्री दानसूरिजी अपने अंतःकरण में सोचा कि मेरे बाद भावी तपागच्छनायक श्री ही हर्षोपाध्याय ही होगा। चूंकि दूसरों की अपेक्षया इसी की योग्यता एवं विद्वता अधिक है इसलिये इसको सूरिपद पर बैठा देना चाहिये ऐसा विचार कर आचार्यदेव ने सूरि मन्त्र की आराधना प्रारम्भ कर दी । जब आराधना करते हुए तीन मास पूरे होने में आये तब सूरि मन्त्र का अधिष्टायक देव सूरिजी महाराज के सन्मुख प्रत्यक्ष होकर प्रसन्नचित्त से कहने लगा । हे धर्म नायक ? हीर हर्षोपाध्याय को आचार्यपद अविलम्ब दे दीजिये । क्योंकि आपके पट्टालंकार एवं उत्तराधिकारी होने की शक्ति इसी उत्तम पुरुष में है । इतना कह कर देव अंतर्ध्यान हो गया । सूरिमन्त्राधिष्ठित देव का उक्त परिमित वचन सुन कर के सूरिजी ने अत्यन्त प्रमोद भरे हृदय से अपने मन में विचार किया कि यह बड़े आश्चर्य की घटना हुई कि इष्टदेव ने भी मेरे ही अभिप्राय को स्पष्ट रूप से अनुमोदन किया । तुरन्त ही सूरिजी ने शिष्य मण्डल में आकर देव की कही हुई बातें कह सुनाई । गुरु देव के प्रेम भरे शब्दों को श्रवण करके समस्त साधु मन्डल ने नम्र For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाव से यही कहा कि गुरुदेव ! जैसा आपका इरादा होगा वैसा ही कार्य शीघ्र पूर्ण होने की आशा है, तदन्तर परस्पर सलाह करके संवत् १६१० मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी के दिन शुभ मुहुर्त में महोत्सव पूर्वक सिरोही नगर के श्री चतुर्विध संघ समक्ष विबुध शिरोमणि विजयदानसूरिजी ने तपागच्छ के साम्राज्य रूप वृक्ष के बीज भूत श्री हीरहर्ष वाचक को आचार्य पदवी से विभूषित करते हुए श्री हीर विजय सूरि नाम रखा। श्री हीरसूरि आचार्य पद कुण्डली । के १० / र.बु., ११ श. मं. ६ - ७ १२ चं. - ४ रा. आचार्य पदवी का उत्सव सुप्रसिद्ध राणकपुर के मन्दिरजी का निर्माता संघपति धरणाशाह का वंशज और दुदा राजा का मन्त्रीश्वर चांगा संघपति ने किया जिस दिन आप आचार्य पदवी पर आरूढ हुए उस दिन दुदा राजा ने अपने राज्य में अहिंसा पलाने की घोषणा करदी। प्रिय पाठकवृन्द ! देखिये प्राचीनकाल में प्राचार्य पदवी की कैसी मर्यादा और महत्ता थी । भाग्यवान पुरुष पदवी को नहीं चाहते थे किन्तु पदविये, पुण्यशाली मनुष्यों को ढूढा करती थी, खेद का विषय है कि आजकल के अहंभावी साधु साध्वी पदवियों के पीछे लालायित रहते हैं, गृहस्थों के हजारों रुपये का पानी करवा देते हैं, For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर भी पदवी का स्वप्न देखते हैं,अथवा दो चार व्यक्तियों को प्रसन्न कर कोई टाइटल पाकर कृतकृत्य हो जाना ही क्या यथार्थ पदवी लेना है ? नहीं कदापि नहीं । यह तो केवल आडम्बर मात्र है वास्तविक शोभा इसमें नहीं है, यदि उच्च पद पर बैठने की इच्छा है तो पदवी परमात्मा के घर की लेने के लिये पूरा परिश्रम करना चाहिये किन्तु ठीक है। निर्नाथ जैन समाज में नहीं हो सो ही कम है। सिरोही से विहार करते हुए शासन सम्राट विजयदानसूरिजी ने हीरविजयसूरि को पाटण शहर में पृथक चातुर्मास करने की आज्ञा फरमाई और आप स्वयं कोकण देश की भूमि को पावन करते हुए सुरत बंदर पधारे। इधर जयसिंह नामक एक बालक अपनी माता के साथ मामा के घर पर एश आराम से दिन व्यतीत करता हुआ सब लोगों को आनन्द दे रहा था, आपका जन्मस्थान मेदपाट (मेवाड़) के अन्तर्गत नारदपुरी में था, नारदपुरी की अन्वर्थ संज्ञा यों है कि नारदमुनि ने मेदपाट की धर्म महिमा को सुन कर नेत्र की तप्ति के लिये आकर पूरी तरह परीक्षा की, परीक्षा के बाद नारद विद्या फैलाने के निमित्त कुछ दिन ठहर गये जिससे वो स्थान नारदपुरी से विख्यात हो गया, मेदपाटाधीश से निज कन्यादान के उपलक्ष में उपहारभूत होने के निमित्त वो नगरी वर्तमान जोधपुर राज्यान्तर्गत गोडवाड प्रान्त में सुशोभित है। _एक रोज की बात है कि वह बालक अपनी माता से कहने लगा। अंब ! मैं अपने पिता कम्मा ऋषि की भांति जन्म मरणादि विपत्तियों को नाश करने वाली दीक्षा को ग्रहण करने की इच्छा रखता हूँ जो मार्ग मेरे पिताजी ने अपनाया था उसी मार्ग पर मैं भी चलना चाहता हूँ इस बात को सुनकर माता अश्रुपात के साथ कहने लगी, For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेटा ! तू' अभी बहुत ही छोटा है, और दीक्षा को समझता ही क्या है ? लोह भार के समान विषम बोझ वाली और शारीरिक सुख को ध्वंस करने वाली दीक्षा तेरे योग्य अभी नहीं है । हे वत्स ! तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलना सुकर है किन्तु दीक्षा व्रत का पालन करना सुकर नहीं, हे पुत्र ! अभी तू देवांगना तुल्य सुंदर स्त्री के साथ विवाह कर, समस्त सांसारिक सुखों का अनुभव कर ले, पश्चात् तेरी इच्छा के अनुसार कर लेना। इस प्रकार जननी का वचन सुनता हुआ जयसिंह अपनी माता से कहने लगा अम्ब ! आसन्नोपकारी महावीर प्रभु ने आत्यन्तिक सुखार्थी पुरुषों के लिये गृहस्थाश्रम महापाप का कारण बतलाया है, ऐसे क्यों कहती है मुझे भी तो सुख की ही लालसा है तुम से बताये हुए माला चंदन वनितादि जन्य सुख क्षणिक है वास्तविक सुख तो दीक्षा जन्य ही है, अतः महापुरुषों से प्रदर्शित आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) मार्ग पर जाने में बाधक मत हो, मेरी तीव्र मुमुक्ष की प्रच्छन्न अग्नि तेज से धधक रही है, शान्ति के लिए सद्गुरु रूप नूतन जलधर के सिवाय इतर उपाय व्यर्थ है अतः विषयवासना जाल के मोचक सद् गुरु की ही शरण लेना आवश्यक है, तू गम्भीर भाव से विचार कर ले, और अति शीघ्र आज्ञा दे दे। ___ माता कोडिमदेवी ने अद्भुत विवेक को देखकर बालक के साथ ही सूरत में विराजमान आचार्य देव के चरणों में जाने के लिये प्रस्थान किया, मार्ग में जगह जगह देव दर्शन गुरु वंदन करते हुए भाव चारित्र को दृढतर करके यथासमय सुरत बंदर पहुँच गये, तथा अपना सुकुमार बालक जयसिंह के साथ कोडिम देवी गुरुदेव को सविधि वन्दना करके विनीत भाव से सांजलि सानुरोध प्रार्थना करने लगी। __ हे प्रभो ! मेरी हार्दिक भावना है कि इस बालक के साथ मैं भी चारित्र ग्रहण पूर्वक अपनी आत्मा का कल्याण कर लू, श्राप For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हम दोनों पर अनुग्रह कीजिये, इतना कहने पर देवी को तीव्र उत्कण्ठा देख कर गुरु महाराज ने दोनों की पुनः पुनः परीक्षा करते हुए बालक की सर्व लक्षण सम्पन्नता, सहिष्णुता और अद्भुत भविष्णुता को देख कर दीक्षा का मुहूर्त श्रीसंघ को सूचित कर दिया, श्रावकगण महोत्सव बड़े धामधूमपूर्वक करने लगे। दीक्षा के दिन नाना प्रकार के आभूषणों से सज्जित करके गज पीठस्थ जयसिंह कुमार को नगर में चतुर्दिक्षु घुमाते हुए गुरु महाराज के चरण कमलों में ले गये। दर्शक जनों की भीड़ मधु मक्खियों की तरह होने लगी, नियत दीक्षा स्थान पर संवत् १६१३ ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी के रोज सुमुहूर्त में जयसिंह कुमार और उनकी जन्मदाता कोडिम देवी को गुरुवर श्रीमद् विजयदानसूरिजी ने श्रीसंघ के समक्ष दीक्षा देदी। जयसिंह का दीक्षित नाम जयविमल रखा । नूतन दीक्षित दीक्षा के समय : वर्ष के थे, आपने अल्प समय में ही पंच प्रतिक्रमण नवस्मरण साधु आवश्यक क्रिया जीव विचारादि प्रकरण तीन भाष्य कर्म ग्रन्थ क्षेत्र समासादि शास्त्रों का अध्ययन विद्या भंडार श्री विजयदानसूरिजी से कर लिया। एक दिन तपागच्छाधिपति विजयदानसूरिजी अपने मन ही मन विचार विमर्श करने लगे कि जयविमल सुशील विनीत एवं महाप्रतीभाशाली है यदि श्री हीरविजयसूरि के पास भेज दू तो श्राशा ही नहीं अपितु दृढ विश्वास है कि उनकी बराबरी की योग्यता को पालेगा, फिर मेरी भुजायें संसार में सूर्य चन्द्र की तरह दिन रात चमकने लगेंगी। ऐसा सोच कर के गुरु महाराज ने अविलम्ब जयविमल को चातुर्मास पूर्ण होते ही श्री हीरविजयसूरि के पास जाने की आज्ञा दे दी । जयविमल गुरुदेव को वंदना करने के बाद जब प्रयाण करने लगे तो उत्तमोत्तम लाभसूचक शकुन होने लगे। ___ क्यों न हो, महापुरुषों का चिन्ह है कि उनके पदार्पण के पहले ही आगे आगे आनंद मंगल की श्रेणी बढ़ने लगती है । तदनन्तर बड़े For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सुकता से चलते हुए हीरविजयसूरिजी के सान्निध्य में पहुँच गये, गुरुदेव के पट्टालंकार शासन सम्राट श्री हीरविजयसूरिजी के दर्शन से जयविमल हर्ष सागर में डूबते हुए सविधि वंदना में तत्पर हो गये । बाद श्री हीरविजयसूरिजी भी आगन्तुक नूतन बाल मुनि के सिर पर आमोदान्वित हृदय से अपना हाथ फेरते हुए विहार की कुशल वार्ता पूछने लगे, प्रत्युत्तर मिला कि आपके अनुग्रह से मार्ग में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई, लघु मुनि की आकृति तथा उनके प्रिय मधुर वचन को देख सुन कर सर्व मुनि मण्डल और श्री संघ बड़े प्रसन्न हुए । जयविमलजी सविनय आचार्यदेव के चरणों में रहते हुए विद्याभ्यास में संलग्न हो गये। इधर श्री विजयदानसूरिजी सूरत बंदर से विहार कर अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए श्री वट्टपली ( वडाली) नगर में पहुँच गये, कुछ दिन के बाद आपने अपना अन्त समय जानकर शिष्योपशिष्य समुदाय को गुप्त गूढ विषय का सारभाव सरलता से समझा दिया। अब संवत् १६२१ वैसाख शुक्ला दशमी के दिन परमपद की जिगमिषा से समाधिस्थ होकर इष्टदेव को प्रत्यक्ष करते हुए निज शरीरस्थ जीव ज्योति को परम ज्योति में एकीकरण कर दी यानी (देवलोक हो गये) आपकी पारलौकिकता से जैन जगत कृष्ण पक्षीय अमावस्या के जैसी अंधकारमय हो गई। बाद जनतागण ने गुरु उपदिष्ट वचन के स्मरण से शोक साम्राज्य को अति शीघ्र ही तिलान्जलि देते हुए चिर स्मारक गुरु पादुका स्थापन करने के लिये एक अतुल मनोहर स्तूप निर्माण करवा कर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करने लगे। इधर भी हीरसूरिजी का हृदय जलमध्यस्थ चन्द्र सूर्यादि प्रतिबिम्ब के जैसा कम्पायमान होने लगा, आप मन ही मन खेदित हो कर पूज्य श्री के विरह में करुणास्थर से कहने लगे, हे गुरो! आज तुम्हारे परलोक सिधार जाने से धीरता निराश्रय हो गई, विनय का For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब कौन शरण है । आपके जैसी शान्ति सहनशीलता कौन धारण कर सकेगा ? विद्या विवेक दानशीलता नष्ट हो गई, सत्य आज सचमुच मारा गया, करुणा बिचारी अब किसकी शरण में जायगी ? हे गुरुदेव ! तुम्हारे विना आज जगत ही शून्य हो गया। ( अपनी आत्मा से ) हे जीव ! तेरा मणि खो गया तूने अभी तक इस शरीर के साथ सम्बन्ध कैसे रखा है ? धिक्कार है कि पूज्य-पाद के पीछे नहीं पड़ा अब तू किसकी शरण जायगा अपनी बात किसके सामने रखेगा तेरी शंका को कौन देश निकाला देगा ? तू किसकी सेवा करेगा अब तेरा आश्वासक कौन होगा ? तू जल्दी से जल्दी गुरु की खोज में लग जा, अचेतन छाया भी अपने आश्रय को नहीं छोड़ती तो तू चेतन होकर अपने आधार को छोड़ कर कैसे स्थिर होता है ? तुझे बार बार धिक्कार है कि अब तक यहां वर्तमान है, उठ जल्दी उठ सोद्वग से खड़े होते हैं कि इष्टदेव ने सामने आकर के कहा, हे सूरिराज ? आपको अधीरता शोभा नहीं देती, आप त्यागी और विवेकी विद्वान हैं, विवेकियों को पश्चात्ताप आत्म कल्याण में बाधक हुश्रा करता है, आत्मा अमर है, आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनित्य है, इन दोनों के आत्यन्तिक सम्बन्ध विच्छेद के लिये ही योगिजन अनेक जन्म से प्रयत्नशील रहते हैं. जन्म होने से मरण नियत ही रहता है "जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्यच" अतएव शोक से पृथक होकर आत्म सावन में लग जाइये, आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जायगी, आप अपने गुरुदेव के प्रसाद से संसार में अतुल होकर प्रजापालक के मुकुटालंकार बनेंगे, इतना कह कर देव के अन्तर्धान हो जाने पर श्री हीरसूरिजी गई बातों को भूल कर अपने नित्य नैमितिक कार्य में तदवस्थ हो गये। ___ कुछ समय में ही द्वितीया चंद्ररूप श्री हीरसूरिजी महाराज को पागच्छ गगन मंडल में समुदित देख कर जनतागण प्रमुदित मन से प्रणाम पुरस्सर गद् गद् स्वर से प्रार्थना करने लगे। भगवन् ! For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब आप ही जैन जगत के लिये प्रकाशक हो आपके सिवाय कोई हम लोगों का अज्ञान तमो वृन्द को अपहरण करने वाला नहीं है। हम लोगों के हृदय क्षेत्र में स्वर्गीय दानसुरिजी के उपदेश रूप बीज का ज्ञानांकुर होने पाया कि आप अमर होकर परोक्ष हो गये। अब पूज्यपाद श्रीमान् के उपदेशामृत सिंचन से ही ज्ञानतरु का मोक्ष रूप फल होगा। अन्यथा परम असम्भव है, अतः कृपा कीजिये विशेष क्या निवेदन करें। “विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्' साधारण लोक में भी नियम है कि, विष पौधे को भी बढ़ाकर अपने आप छेदन करने में समर्थ नहीं होते तो अमृत फल पौधे की उपेक्षा करना क्या उचित होगा ? नहीं कदापि नहीं । श्री हीरसूरिजी महाराज ने जनता की भावना को देख कर अचिरकाल में ही अपने उपदेशामृत वर्षण द्वारा ज्ञानवृक्ष को बढ़ाने लगे। एक समय श्री हीरविजयसूरिजी सूरिमन्त्र की आराधना करने के इच्छुक होकर विहार करते हुये डीसा शहर में पधारे। क्यों कि यहां के भक्त श्रावकगण बड़े यास्तिक और गुरुप्रिय थे, इस नगर में आने के बाद सब साधुओं को पढ़ाने, योगोद्ववहन क्रिया कराने और व्याख्यान आदि का समस्त भार जयविमल पर छोड़ कर आपने त्रैमासिक सूरि मन्त्र का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया । ध्यानारूढ़ सूरिजी को जान कर सूरिमन्त्राधिष्ठायक देव ने सूरिजी की मानसिक वेदना को समझ कर स्वप्नावस्था में प्रत्यक्ष होते हुए कहा कि आप अपनी समाधि में अचल रहें और जयविमल को अपने सिर का भार सोंप दें। उनकी योग्यता अपरिपूर्ण नहीं है। इतना कहने के बाद सूरिजी की आंख खुल गई । इष्ट देव प्रसन्न होने का एक ही कारण था कि आप की गुरु भक्ति प्रशंसनीय थी। एक वक्त की बात For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ है कि एक गांव से आपके गुरु श्री मदविजयदानसूरीश आया था उसमें सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था कि जै जल्दी मेरे पास आओ। क्योंकि जरूरी काम है। मिलन पर कहा जायगा । I इस प्रकार का पत्र हीरसूरिजी के हाथ में आया, उस दिन आप के छट्ठ की तपस्या थी । परन्तु बिना पारणा किये ही पत्र पढ़ने के साथ रवाना होने लगे । उसी समय श्री संघ ने एकत्रित होकर के प्रार्थना की । गुरुदेव ! विहार करना है, लेकिन संघ का आग्रह है। कि आप पारणा करके पधारें । एक आध घंटा देरी से गुरुदेव की सेवा में पहुँच जायेंगे | इतनी कृपा करें । संघ का अधिक आग्रह होने पर भी विना पारणा किये रवाना हो गये और जल्दी से जल्दी चलते हुए गुरुदेव की सेवा में पहुँच गये । विजयदानसूरिजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और पूछा कि इतना जल्दी कैसे आ गया ? तब हीर सूरिजी ने कहा कि गुरुदेव ! आपकी आज्ञा शीघ्र आने की थी तो मैं कैसे ठहर सकता ? इसलिये मैं जल्दी पहुँच गया। गुरुदेव भी शिष्य की तत्परता और गुरु भक्ति देख कर बड़े प्रसन्न होकर अपने को बड़े सुखी समझने लगे । फिर प्रसन्न होते हुए ध्यान से मुक्त होकर विचार किया कि जय विमल नामक शिष्य शेखर को अपने पाट पर बैठा देना चाहिये, अपने मन ही मन विचार को न रख कर कार्य रूप में लाने की पूरी कोशिश करते हुए समस्त साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध सघ के समक्ष अपने हृदय का उद्गार जाहिर कर दिया। श्री संघ गुरुदेव के अभिप्राय को सानन्द अनुमोदन करते हुए प्रार्थना करने लगा कि इसी स्थान पर कुछ दिन और बिराजिये । परन्तु कार्यवश श्राचार्य ने डांस से शिष्य सहित विहार कर दिया । जयविमल मुनि सूरिजी से अध्ययन करता हुआ प्रसिद्ध शास्त्रों में नैपुण्य प्राप्त कर लिया । व्याकरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों को पढ़ते For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुए काव्यानुशासन काव्य प्रकाश वागभट्टालंकार काव्य कल्पलता छन्दानुशासन बृहद्रत्नाकर इत्यादि ग्रन्थों के भी रहस्य से वाफिक हो गये । न्याय शास्त्र में स्यावाद रत्नाकर अनेकान्त जयपताका रत्नाकरावतारिका प्रमाण मीमांसा न्यायावतार, स्याद्वादकलिका, एवं सम्मति तर्कादि जैन न्याय ग्रन्थ तथा तत्व चिन्तामणि, किरणावली, प्रशस्त पाद भाष्य, इत्यादि शास्त्रों का भी अध्ययन से दिग्गज पांडित्य को प्राप्त कर लिया। तदनन्तर हीरविजयसूरिजी ग्रामानुग्राम पर्यटन करते हुए स्तम्भनतीर्थ पधारे । स्वागत में श्री संघ ने गुरुदेव के चरण विन्यास के प्रतिपाद पर दो मोहरें और एक रुपया रखते हुए एवं मोतियों के स्वस्तिक करते हुए सूरिजी को नगर प्रवेश करवाया, भक्त जनों ने प्रभावनादि धर्म कृत्यों में एक करोड़ राजत द्रव्य का सव्यय कर अमूल्य लाभ लिया, इसी नगरी में रहती हुई एक पुनी नाम की श्राधिका ने बहुत द्रव्य खर्च करके सुन्दर रचनापूर्वक श्री जिनेश्वर देव के प्रासाद की प्रतिष्ठा एवं मूर्तियों की अंजन शलाका पूर्वक स्थापना यथा योग्य स्थान पर करवाई। नगर के लोगों ने जयविमल के पांडित्य को देख कर चकित होते हुए प्राचार्य देव से प्रार्थना की कि गुरुदेव ! जयविमल मुनीश्वर को पन्यास पद देना चाहिये । इस न्याय से सूरिजी ने अपना निश्चय करके संवत १६२६ फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन त्यागी और वैरागी श्री जयविमल को पंडित पद से विभूषित कर दिया। उस समय समस्त श्रीसंघ जय ध्वनि के नारे लगाते हए असीम आमोद से उन्मत्त हो गये। तदनंतर स्तम्भन तीर्थ से विहार करते हुए अहमदाबाद आ पहुँचे, अहमदाबाद के समीपस्थ अहमदपुर के शाखापुर में आपने चातुर्मास आनंद पूर्वक किया। For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ एक समय सूरिजी रात्रि में संथारापोरीसी (शयन कालिक पाठ) पढाकर गच्छ सम्बन्धी विषय की चिंता करते हुए तंद्रा देवी को प्रत्यक्ष कर रहे थे, उस समय अधिष्ठायक देव ने कहा कि हे सूरीश ! आप अपने पाट पर सुयोग्य पंडित शिरोमणि श्री जयविमल को प्रतिष्ठित करके चिंता राक्षसी के मुख से बहिर्भूत हो जाइए, यह श्री महावीर परमात्मा के पाट परम्परा पर एक दिवाकर रूप होने वाला है, यह शब्द सुनते ही सूरिजी ने तंद्रा मुक्त होकर अपने शिष्यों को देव की बातें कह सुनाई, तब वाचक पंडित गीतार्थ प्रमुख समस्त साधु ने नम्रतापूर्वक आचार्यदेव से प्रार्थना की, हे प्रभो ! श्री संघ के साथ हम लोगों की इच्छा है कि जयविमल पन्यास को आचार्य पद पर आसीन कर देना चाहिये ! देव वाणी श्री संघवाणी और साधुओं के अभिप्राय, इन त्रिपुटियों से आचार्यजी ने एवमस्तु कह दिया, तत्पश्चात् अहमदाबाद श्री संघ के अत्याग्रह से आचार्य पदवी का अठाई महोत्सव धूम धाम पूर्वक होने लगा। नगर सेठ श्री मूलचन्द ने जिन पूजा गुरू भक्ति ज्ञान प्रभावना स्वामी वात्सल्य आदि धर्म कर्मों के फल को जिनागम में कहे हुए समझ कर अपनी शकत्यनुसार उत्साह पूर्वक श्री शत्रुजय तीर्थ पर ऋषभदेव भगवान के मन्दिर की दक्षिण पश्चिम दिशा में चैत्य बनाने की तरह इस महोत्सव में भी पूर्ण स्वोपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करके अमूल्य लाभ प्राप्त किया, एवं इस उत्सव के उपलक्ष में नगर सेठ ने शहर में दान शालाएँ खुलवाई, जगह जगह पर धवल मंगल गायक बैठाये, वरघोडे निकलने लगे और स्वामि वात्सल्य की धूम मचने लगी। इस प्रकार सर्वालंकार से अलंकृत चंचला लक्ष्मी महोत्सव की अपूर्व शोभा बढ़ाने लगी। ..इस प्रकार समारोहपूर्वक संवत् १६२८ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन शुभ समय में जयविमल को उपाध्याय पद के साथ आचार्य पद पर विभूषित करते हुए पद्मसागर और लब्धिसागर पंडित पद से For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवं विमल हर्ष उपाध्याय पद से अलंकृत किये गये । सूरिजी ने जय विमल को आचार्य पदवी देने के समय श्री विजयसेनसूरि नामकरण किया । इस उत्सव में सम्मिलित सज्जनों का एक-एक रुपये की प्रभावना दी गई और याचक वर्गों का द्रव्य वस्त्रादि द्वारा सन्तुष्ट किये गये । यह दोनों गुरु शिष्य आचार्य श्री तपागच्छ रूपी शकट को चलाने में धूरी रूप बन गये और भव्य जीवों के हृदय क्षेत्र में धर्मंकुर को रोपते हुए पृथ्वीतल को पावन करने लगे, उस समय कुतोथियों का प्रचार अनेक स्थानों से उठता हुआ स्त्रार्थ लीला की महिमा का अधःपतन हो गया, एक समय गुजरात प्रदेश में विचरते हुए दोनों प्रतिभाशाली आचार्य को अचानक अभूतपूर्व घटना देखने में आई । वह क्या ? लूंकागच्छ का अधिकारी सर्वेसर्वा मेघजी नामका एक सुयोग्य विद्वान् था । उसने स्वयं शास्त्र पढ़ते हुए मूर्ति पूजा का उल्लेख देखकर आचार्य श्री हीर विजयसूरिजी के पास अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने की आकांक्षा प्रकट की, एवं मेघजी के २७ साधुओं ने भी उक्त सूरिजी के सन्मुख उपस्थित होकर अपने हृदय की भावना दरशाई । इस पर अहमदाबाद में विराजमान उक्त आचार्यदेव ने मेघजी आदि साधुओं को लंकागच्छ की दीक्षा का त्याग करवा कर अति महोत्सव पूर्वक संवेगी दीक्षा प्रदान कर उद्योतविजयजो नाम रखा अब नूतन २७ मुनियों को संवेगी शिक्षा क्षेत्र में उतारते हुए आवश्यक क्रिया कांड में कुशल बनाने लगे। मुनि उद्योतविजयजी आदि २७ शिष्यों ने भी गुरुदेव की सेवा में रह कर अध्ययन करते हुए विनय युक्त पारस्परिक भाव से विद्वद्गोष्ठीमय समय व्यतीत करना शुरू किया । कुछ समय के बाद अहमदाबाद से विहार करके आचार्य उपाध्याय पंडित आदि साधु महा मंडल सहित आचार्य श्री हीरविजय पूरिजी विचरते हुए श्री अणहिलपुर पाटन में आ पहुंचे । चातुर्मास For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " २५ का आसन्न समय एवं दैवात् उपस्थित गुरुवर्य को निरीक्षण करते हुए श्रीसंघ के सविनय प्रार्थना करने पर आपने इसी नगरी में चातुर्मासिक नूतन जलधर के जसी धर्मोपदेश सुधा की वर्षा की। चातुर्मास पूर्ण होने पर संवत् १६३० पोष कृष्णा चतुर्दशी के दिन अपने पट्टधर श्री विजयसेनसूरि को गच्छ की सारणावारणा और पडिचोयणापूर्वक गच्छ रूप ऐश्वर्य के साम्राज्य रूप शासन की गद्दी पर बैठा दिये, इस शुभ अवसर पर मरुधर मालवा, मेदपाट, सौराष्ट्र, बनारस, कच्छ कोंकण आदि दूर दूर देश के अनेक लोग संगठित हुए थे । श्री विजय सेनसूरि गच्छ सम्बन्धी समस्त अधिकार प्राप्त करके इन्द्रासनासीन इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस समय हीरसूरिजी ने विजयसेनसूरि को गच्छ सम्बन्धी अनुज्ञा दी थी कि इस गच्छाधिपत्य के साथ गच्छ से तेरा सम्बन्ध अविचल हो और जीवन पर्यन्त गच्छ से वियोग न हो इतनी बात संक्षेप में सारगर्भित कही थी, ऐसे गुरुदत्त शुभाशीर्वाद को शिरोधार्य करते हुए विजयसेनसूरिजी शासन की शोभा अधिक बढ़ाने लगे । एक वखत पाटण में विजयसेनसूरिजी के पाट महोत्सव पर राजा के प्रधानमंत्री हेमराज ने अतुल द्रव्य खर्च किया। उस वक्त वहां का सूबेदार कलाखान बड़ा अन्याय प्रिय था। इस अनीति के कारण सारी प्रजा अशान्तिमय अपना समय व्यतीत करती थी । सूरिजी के जाहेर व्याख्यान द्वारा विद्वत्ता की कीर्त्ति कलाखान के कर्णों तक पहुँची । जिससे कुतूहलता पूर्वक हीरसूरिजी को आमंत्रण भेजा । “सत्ये नास्ति भयं कवचित्" इस नीति के जारणकार सूरिजी निडरता पूर्वक कलाखान के राजमहल में पहुँचे । कलाखान ने स्वागत पूर्वक कुशल क्षेम की बातचीत करके प्रश्न किया कि महाराज ! सूर्य ऊंचा हैं या चन्द्र ? गुरुजी ने उत्तर दिया कि चन्द्र ऊंचा है । कलाखान सौर्य बोला महाराज ! हमारे सिद्धान्त में तो सूर्य को ऊंचा माना For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ है और आप चन्द्र बता रहे हैं। यह भिन्नता क्यों ? इस पर सूरि जी ने कहा कि राजन् ! मैं न तो सर्वज्ञ हूँ न मैं पूरा ज्ञानी हूँ और न मैं ऊपर जाकर के देख कर आया हूँ । केवल मैं ने गुरू मुख से सुना है और सिद्धान्तों में पढ़ा है। उन शास्त्रों के आधार पर ही मैं कह रहा हूँ अब तुम्हारी इच्छा हो वह मानलो । आचार्य देव के सरल वचन सुनकर कलाखान विचार मग्न हो कर मन ही मन सोचने लगा कि महात्मा ने ठीक ही कहा है । चूंकि यह वस्तु वास्तविक अगम्य और परोक्ष है । इसलिये शास्त्रीय आज्ञानुसार सूरिजी का वचन बिलकुल सत्य ही है । I इस प्रकार मानसिक विचार कर के बोला महाराज ! आपकी सरलता और विद्वतापूर्ण वक्तव्यता पर बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ । आप हमारे ऊपर कृपा करके काम सेवा फरमाइये । सूरिजी ने उत्तर में कहा कि राजन् ! आज से पर- स्त्री त्याग का नियम लीजिये और तुम्हारे कैदखाने में पड़े हुए कैदियों को छोड़ दीजिये | कलाखान ने परस्त्री का नियम लिया और सब को बंधनमुक्त कर दिया और शानदार स्वागतपूर्वक सूरिजी को सानन्द अपने स्थान पर (धर्मशाला) पहुँचा दिया | तदनन्तर अल्प समय में ही गच्छ का उद्योतक एवं व्याख्यान पटु शिष्य विजयसेनसूरि को देखकर विजय हीरसूरिजी अपने मनोमन्दिर में परामर्श देव को स्थापन करने लगे कि विजयसेनसूरि जी मेरे से पृथक बिहार करे तो बहुत देशों के भव्यों को प्रतिबोध देने में भाग्यशाली बन सकेगा, और आचार्यपद का भी गौरव बढ़ा सकेगा । ऐसा विचार करके विजयसेनसूरि को पृथक विहरने की आज्ञा दे दी, आज्ञारूप माला को अपने हृदय में धारण करके विजयसेनसूरि बहुसंख्यक साधुओं के साथ पर्यटन करने लगे, एक समय देशाटन करते हुए चम्पानेर में पहुँचे । उस नगर में एक जयवन्त For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामक सेठ ने चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिये सं० १६३२ में श्रा० विजयसेन सूरिजी के कर कमलों द्वारा मन्दिरस्थ जिन प्रति बिम्बों की अंजनशलाका पूर्वक प्रतिष्ठा करवाई, बाद वहां से विहार करके सूरिजी सूरत बन्दर पधारे, वहां की नागरिक जनता ने स्वागत पूर्वक चातुर्मास की अाग्रह भरी विनती की जिसको स्वीकार कर आचार्यदेव चातुर्मास के लिये ठहर गये, सूरीश्वरजी की विमला कीर्ति चतुदिक्षु फैलने लगी, उस कीर्ति ज्वाला को सहन न करके एक भूषण नाम का पंडित सूरिजी से शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार हो गया, तर्कज्ञ सूरिजी के लिये शास्त्रार्थ करना परम सरलता की बात थी । सूरिजी ने भूषण पंडित को बुलाया और विद्वानों के नेतृत्व में बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ, आखिर भूषण हार गया और श्री विजय सेनसूरिजी विजयी हुए, तथा भूषण पंडित निरुत्तर होकर पंडितों की सभा में हास्य पात्र बने, सूरिजी सुरत बन्दर में अनेक प्रकार से जैन धर्म की विजय पताका फहराते हुए चातुर्मास पूर्ण होते ही विहार करके गुजरात मालवा मरुधर मेदपाट आदि देशों को पावन करते हुए अपने वचनामत द्वारा भव्य जीवों को तृप्ति करने लगे। इधर भारतवर्ष का सर्वे सर्वा मुगल सम्राट अकबर बादशाह अपने फतहपुर सीकरी के शाही महल में बैठा हुआ राजमार्ग पर दृष्टिपात कर रहा था। वह अकबर बड़ा मांसाहारी और बड़ा हिंसक था। पांच सौ चिडियों की जीह वा का भोजन प्रातःकाल कलेवे में करता था। अत्यन्त कामी एवं अन्याय का मन्दिर था। समस्त क्षत्रिय राजाओं को अपने पैरों में झुका दिया था और राजपूत बालाओं का सतीत्व नष्ट करने में अपना सर्वस्व समझता था। भारत के तमाम राजाओं ने अकबर की आज्ञा का पालन करना शुरू कर दिया था। परन्तु मेदपाटाधीश अकबर का सामना १२ वर्ष तक करता रहा। आखिर हिन्दूकुल सूर्य महाराणा प्रताप की विजय हुई। जो कि आज इतिहास For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ के कोने कोने में प्रसिद्ध है। अगर इस संसार में शिवाजी मराठा और महाराणा प्रताप न होते तो न मालूम हिंदू जाति की क्या दशा होती ? परन्तु हिंदू जाति का भाग्य उज्ज्वल था कि ऐसे महापुरुषों का समय पर जन्म हुआ और हिन्दू जाति का गौरव समुन्नत रखा। महाराणा प्रताप के नाम से तो अकबर हरवक्त सावधान रहता था। एक बार अकबर अपने टोडरमल आदि राजमंत्री के साथ बातचीत करता हुआ इधर देख रहा था । इतने में एक बड़ा भारी जुलुस राजमहल के नीचे होकर आगे निकला, जिसमें एक पालकी भी थी और श्री हीरविजयसूरिजी की जय हो ऐसे नारे लग रहे थे, अकबर ने आश्चर्य से समीपस्थ टोडरमल को पूछा, टोडरमल बोला कि जहांपनाह ! यह जुलुस जैन धर्म वालों का है, जिसमें एक चम्पा नामकी बाई सुन्दर वस्त्र धारण की हई पालकी में बैठ कर फलफूल लेकर के भगवत दर्शन के निमित्त मन्दिर में जा रही है। पालकी में बैठने का तात्पर्य यह है कि इस बाई नेछ: मास के उपवास किये हैं, इन उपवासों में केवल गर्म जल पीने के सिवाय और कुछ भी नहीं खाती, जल भी दिन में ही पीती है, रात को मुह में कोई भी चीज नहीं डालती है यह ५ वां मास है। और जैन धर्म का आज कोई पर्व विशेष है इसलिये उत्सव के साथ मन्दिर में जा रही है। बादशाह सारी बात को सुन कर आश्चर्य में पड़ गया परंतु ५ मास को तपस्या पर विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि एक तो बाई दूसरा ५ महीने का निराहार तप यह विरुद्ध मालूम हुआ । फिर अकबर ने अपने अनुचरों द्वारा कहलाया कि पालकी को ऊपर ले आओ, बादशाह की आज्ञा होते ही जैन समुदाय भयभीत होने लगा, किन्तु कर भी क्या सकता था ! आखिर पालकी को ऊपर ले जाया गया, बादशाह कुतुहळ से बाई की आकृति और वाणी से ध्यान पूर्वक परीक्षा करने लगा यद्यपि बाई के तेजस्वी वदन और निर्दोष वचन को देख सुन For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ कर तपस्या के विषय में बहुत कुछ सत्यता प्रतीत हुई, तथापि पूरी परीक्षा करने के लिये एक मास तक अपने एकान्त महल में उसे रहने की आज्ञा दे दी और साथ में अपने विश्वास पात्र सेवकों को सूचना कर दी कि इस तपस्विनी बाई की दिनचर्या का बड़े सावधानी से अवलोकन करते रहना, यह क्या खाती पोती है इसकी पूरी तलाशी लेते रहना और हमें सूचित करते रहना । अकबर बादशाह की आज्ञा पाकर सेवक सब बाई की दिन चर्या की गवेषणा करने लगे, बाई के लिये ५ मास से अधिक और एक मास निकालना कठिन साध्य नहीं था, और निकालना भी था, बात ही बात में समय निकलने लगा, परन्तु सेवकों की दृष्टि में तपस्विनी का निर्मल आचार ज्ञात हुआ और किसी प्रकार से मायाजाल का स्वप्न भी न आया, सेवकों द्वारा उक्त बातें सुन कर बादशाह आश्चर्य चकित हो गया, तदन्तर अकवर श्रद्धापात्र तपस्विनी थानसिंह की माता चम्पाबाई के पास जाकर सिर झुकाता हुआ मधुर शब्दों में बोला हे भद्र े ? तू इतना कठोर तप क्यों करती है ? और किसके सहारे से करती है ? तेरे क्या तकलीफ है ? इन बातों का सत्य हाल कहो, उत्तर में चम्पाबाई ने कहा कि तप आत्म कल्याण के लिये करती हूँ जगत् पिता परमेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के और तपोमूर्ति आत्म ज्ञानी तपागच्छ नायक श्री हीरविजयसूरि गुरुदेव के अनुग्रह से करती हूँ कष्ट मुझे किसी तरह का नहीं है क्योंकि न तो मुझे धन की लालसा है न पुत्रादि संतान की इच्छा है, न कुटुम्बियों का दुःख है और न शारीरिक तथा मानसिक तकलीफ है यदि दुःख है तो जन्म मरण रूप भव चक्र का ही है, उसकी निवृत्ति गुरुदेव श्री हीरविजय सूरिजी की अनुकम्पा से ही हो सकती है । इस प्रकार थानसिंह की माता चम्पाबाई के वचनों को सुन कर बादशाह तपस्विनी को दी हुई तकलीफ की क्षमा मांगने लगा और आदरपूर्वक स्वर्ण चूडा उपहार में देकर तपस्विनी चम्पाबाई को धूम For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ धाम पूर्वक अपने घर पहुँचा कर हीरसूरिजी की जीज्ञासा करने लगा, ऐसा मनोहर वातावरण सारे शहर में फैल जाने पर जैन जनता अकबर द्वारा किये हुए सत्कार पर खुशीयाली में अपूर्व महोत्सव करने लगी। इधर अकबर चम्पाबाई की वैराग्यमय बातों पर मीमांसा करने लगा कि संसार क्षण भंगुर है इस क्षण भंगुर संसार से पार होना परमावश्यक है, किन्तु इस का साधन भूत हीरसूरि महाराज चम्पाबाई के कर्तव्य से प्रतीत होते हैं, इतर विद्वान या साधु आज तक नहीं मिला, क्योंकि अपनी सभा में हिन्दू मुसलमान खिस्तो पारसी आदि धर्मों के उपदेशक आये तथा उनके साथ परामर्श किया, किन्तु इस विषय से अपरिचित ही रहा, अब खुदा की कृपा से आशा है कि हीरसूरि महाराज को पाकर चम्पाबाई की तरह मुझे भी आत्मकल्याण करने में अवकाश मिलेगा, ऐसी प्रबल भावना से उत्कण्ठित हो कर सूरिजी के सम्बन्ध में अपने अधिकारियों में से जैनी थानसिंह सेठ को पूछा कि तुम्हारे गुरु श्री हीरसूरिजी अभी कहां है ? और उनके विषय में तुम क्या जानते हो, थानसिंह के उत्तर देने के पूर्व ही इतिमादखान ने सूरिजी के सम्बन्ध में पूर्व परिचय के कारण सब कुछ बातें कह सुनाई और यह भी कहा कि सूरिजी अधिकतर गुजरात प्रान्त में पर्यटन करते रहते हैं।। ___ उसे सुनते ही अकबर ने मेवाडा जाति के मोदी और कमाल नाक दो प्रधान कर्मचारियों को बुलाकर अहमदाबाद के तात्कालीन सुबेदार गवर्नर शाहबुद्दीन अहमदखां के नाम पर एक फरमान पत्र लिख कर गुजरात की तरफ रवाना किये । फरमान में बादशाह अकबर ने सुवेदार को यह लिखा था कि जैनाचार्य श्री हीरविजयसूरीजी को कोई तरह की तकलीफ न देते हुए बड़े सम्मान के साथ मेरे पास भेज दो। इस प्रकार के फरमान को ले जाकर शाहबुद्दीन को दिया। शाहबुद्दीन ने फरमान पाते ही अहमदाबाद के प्रधान प्रधान श्रावकों को अपने पास बुलाकर अकबर का फरमान पढ़कर सुनाया और For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ कहा कि सूरिजी महाराज जहां बिराजते हों वहां जाकर अकबर की तरफ से प्रार्थना करें और साथ ही आपकी तरफ से भी फतेहपुर सीकरी पधारने की विनती करना क्योंकि सूरिजी के जाने से अकबर के हृदय में जैनधर्म के प्रति श्रद्धा हो जाने पर आप लोगों की महत्ता अधिक बढ़ जायगी, अतः अविलम्बेन फरमान सूरिजी की सेवा में उपस्थित करते हुए आप अपनी तरफ से भी विनती करें । शाहबुद्दीन गवर्नर साहेब की आज्ञा पाकर अहमदाबाद के मुख्य २ श्रावकगण तथा मोदी और कमाल फरमान के साथ गंधार पहुँचे । गंधार भरुच जिले में खंभात की खाड़ी के किनारे पर बसा हुआ था, जहां कि सूरिजी चातुर्मास में भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देते हुए उनकी पिपासा को दूर कर रहे थे । आपके निकट पहुँचते ही सेवा में फरमान को उपस्थित करते हुए फतहपुर सीकरी पधारने के लिए अपनी तरफ से भी सविनय प्रार्थना की । 1 गंधार में धनाढ्य एवं धर्मी रामजीगंधार नाम के सेठ रहते थे, इन्होंने गुरुदेव की कीर्ति और चमत्कारिक लीला को सुन करके आमंत्रण पूर्वक बुलाया, गुरुदेव भी संघ की विनती को मान देकर के गंधार नगर के बाहर पधारे। उस समय किसी व्यक्ति ने रामजीगंधार को गुरुदेव के पधारने की बधाई दी । खुश होकर के सेठने कहा कि मेरे पांच सौ मकान में सामान भरा हुआ है, सबके ताले लगे हुए हैं । उनकी ये चाबीयें हैं. तुम्हारी इच्छा के अनुसार एक चाबी से एक मकान का ताला खोलो, उसमें जो चीजें मिले वह सब तुम्हारी है । फिर उसने एक मकान का ताला खोला, देखा तो पांच सौ वाहन के बांधने की डोरी निकली। सेठ के कहने के अनुसार मुनीम ने बेच दी उनकी कीमत के ग्यारह लाख बावन हजार रुपये आये थे तमाम बधाई देने वाले को दे दिये । वह भी बड़ा खुश हुआ। बाद में शानदार सामैया पूर्वक हीरा पन्ना के साथिया पूर्वक गुरुदेव को नगर प्रवेश करवाया । धन्य है ऐसे श्रावकों को कि गुरुदेव की For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बधाई में ग्यारह लाख बावन हजार रुपये का दान दिया। पाठक ! इससे अनुमान कीजिये कि वह गुरुदेव का कैसा भक्त होगा ! दरअसल श्रद्धा ही मानव का सच्चा भूषण है। गुरु महाराज ने अकबर के फरमान को पढ़कर एवं श्रीसंघ का सानुरोध आग्रह देख कर मन ही मन सोचा कि अकबर बादशाह यद्यपि इस्माल धर्मावलम्बी है फिर भी सत्य प्रेमी तत्व जिज्ञासु और धर्मनिष्ठ है क्योंकि हिन्दू मुसलमान ख्रिस्ती और पारसी आदि विशेषज्ञों को अपनी सभा में बुलाकर उनके मजहब का सिद्धान्त सुनने की भावना रखता है, अतः वहां जाकर उसे धर्मोपदेश देने से बादशाह के कारण सारी प्रजा में भी जैन धर्म का प्रचार अधिक रूप से होगा, ऐसा विचार विनिमयपूर्वक श्री संघ की प्रार्थना को सूरिजी ने स्वीकार करली, तद्नुसार सं० १६३८ मार्गशीर्ष कृष्णा ७ के दिन शुभ समय में गंधार बन्दर से प्रस्थान किया। तदनन्तर अहमदाबाद के भक्त श्रावक सहित सूरिजीमही नदी को पार करते हुए बटलद नामक नगर आदि गांवों में होकर के खंभात पहुँचे । जैन समुदाय ने भारी स्वागत किया, बाद वन्दना पूर्वक कुशल क्षेम पूछने पर सूरिजी ने धर्म-लाभ रूप शुभाशीर्वाद के पश्चात् धर्मोपदेश प्रारम्भ किया। गुरु महाराज इसी खंभात में एक वक्त पहले पधारे थे, उस वक्त एक श्रावक के घर लड़का बीमार था तब मांगलिक सुनाने के लिये गुरुदेव घर पर पधारे। तब उस भक्त ने कहा कि गुरुदेव ! यह बच्चा होशियार हो जाय तो मैं आपके चरणों में दीक्षा के लिये भेंट कर दंगा। गुरु कृपा एवं वासक्षेप के प्रभाव से थोड़े ही दिनों में लड़को बीमारी से मुक्त हो गया। घूमते हुए गुरुदेव का इस समय खंभात वापिस पधारना हुआ। उस भक्त को कहा कि अब बच्चे को दीक्षा दे दीजिये, तब भक्त ने अपने सगे सम्बन्धियों द्वारा कलह For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवाया और नगर के सुबेदार को बहकाया कि बच्चे की दीक्षा नहीं होनी चाहिये । इस पर सुबेदार ने भी अनेक उपद्रव मचाये। परन्तु गुरु कृपा से निष्फल गये, मगर श्रावक ने अपने बच्चे के लिये गुरुदेव से भी अपनी मायाजाल फैलाने का घाटा न रखा । अपने स्वार्थवश होकर गुरुदेव का भी अपमान कर दिया। परन्तु दीक्षा के बजाय शान्ति का जवाब भी नहीं दिया। किन्तु गुरुदेव के मन में लेश मात्र भी खेद नहीं हुआ। होवे भी क्यों ? दया के सागर एवं समदर्शी थे। सच्चे त्यागी और वैरागी थे। कुछ दिन प्रवचन देकर भव्य जीवों की मलीनता को मिटाते हुए सूरिजी कार्यवश वहां से विहार कर अहमदाबाद आ पहुँचे। अहमदाबाद श्रीसंघ यथोचित सत्कार करते हुए अपने को धन्य धन्य समझने लगा, क्योंकि सामैया में कुल २६ हजार रुपये खर्च किये, उस जमाने में। इधर शाहबुद्दीन ने सूरिजी का आगमन सुनकर आइर के साथ अपने शाही महल में बुलाकर अपने उत्तम हस्ती, अश्व, रथ और हीरा माणिक मोती आदि बहुमूल्य चीजें सूरिजी को भेंट करते हुए कहा कि हे सूरिराज ! मुझे स्वामी अकबर की आज्ञा है कि हीरविजयसूरिजी जो कुछ चाहें उन्हें भेंट कर मेरे पास आने की प्रार्थना करे । इसलिये आप इन चीजों को स्वीकार करके फतेहपुर सीकरी अकबर के दरबार में पधारने की कृपा करें, अकबर बादशाह आपको खुदा की तरह रातदिन स्मरण कर रहा है। __सूरीश्वरजी ने अपने साधु जीवन का परिचय देते हुए खां साहब से कहा कि राजन् ! संसार के प्राणी मात्र की रक्षा करने की भावना हमें सदैव रहती है, हमारे लिये मिथ्याभाषण करना पाप का बीज बोना है । बिना किसी से दी हुई चीज को लेना हमारे लिये विष कटोरे को उठाना है, संसार की स्त्रियां हमारे लिये माता बहन तुल्य For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है सोना, चांदी, हीरा, पन्ना आदि हमारे लिये मिट्टी के ढेले के समान ही है और रात को खाना पीना हमारे लिये मांस और खून के समान है, अब ऐसी अवस्था में आपकी दी हुई चीजों को लेकर हम क्या करेंगे? खां साहब सूरिजी के कठोर नियमों को सुन कर चकित होते हुए मन ही मन भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे, अहो ! यह साधु, त्यागियों में शिरोमणि साक्षात् खुदा की मूर्ति है, इनके जैसा त्यागी महात्मा आज तक देखने में नहीं आया। इतना चितवन करने के बाद भेंट की हुई चीजों का पुनः आग्रह न करके अपने सैनिकों की संरक्षणता में शाही बाजे के साथ सूरिजी को नियत स्थान पर पहुँचा दिये। कुछ दिन अहमदाबाद में ठहर कर मोदी और कमाल नामक अकबर के प्रधान कर्मचारियों के साथ सूरिजी ने फतहपुर सीकरी की तरफ प्रयाण किया, रास्ते में पहले पट्टन नामक एक विशाल नगर आया उस नगर में विराजमान सूरिजी के ज्येष्ठ सहाध्यायी प्रखर पडित उपाध्याय श्री धर्मसागरजी तथा प्रधान पट्टधर विजयसेनसूरि आदि साधु मन्डल सहित सूरिजी के स्वागतार्थ नगर के बाहर उपस्थित हुए, उस गाँव के श्रावकों ने समारोह पूर्वक सूरिजी को नगर प्रवेश करवाया, ऐसे सुअवसर पर एक श्राविका ने बहुत रुपये खर्च कर बड़े भारी उत्सव के साथ कुछ प्रतिमायें सूरिजी के कर कमलों द्वारा प्रतिष्ठित करवाई, ७ दिन रह कर वयोवृद्ध श्री धर्मसागरजी को यहीं छोड़कर विजयसेन सूरि के साथ सूरि महाराज आगे बढे, सिद्धपुर पहुँचने पर विजयसेन सूरिजी को वापिस भेज दिया, आपकी सेवा में कृपारस कोष के कर्ता श्री शान्तिचंद्र पंडित रहने लगा। सूरि जी ने भी शान्तिचंद्र को सुयोग्य समझ कर सर्वदा के लिये साथ रहने की आज्ञा दे दी, और समीपस्थ उपाध्यायवर्य श्री विमल हर्ष For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणि को अकबर से मुलाकात करने के लिये फतहपुर सीकरी रवाना कर आप स्वयं वृद्धावस्था के कारण धीरे धीरे चलते हुए लेरोतरानगर में पहुचे यहां के ठाकुर अर्जुन ने अकबर से आहूत सूरिजी को अपने मकान में लाकर खूब सत्कार किया, ठाकुर की बुरी आदत को सुन कर सूरि जी ने मीठे मीठे शब्दों में ऐसा उपदेश दिया कि ठाकुर को आदत हमेशा के लिये छोड़नी पड़ी, एवं उसने मांस मदिरा शिकार और पर स्त्री गमन आदि कुचालियों को जड़ मूल से उखाड़ फेंक दी वहां से सूरिजी चल कर आबू पहाड़ पर प्रसिद्ध मन्दिरों की यात्रा करके यथासमय सिरोही आ पहुँचे, वहां का राजा सुल्तानसिंह अत्यन्त समारोह पूर्वक सूरिजी की सेवा में सामने आया, और राजा ने समस्त नगर को अच्छी तरह सजा कर धूमधाम से आचार्य श्री का प्रवेशोत्सव कराया, इस प्रकार सूरिजी सादड़ी धरणशाह द्वारा निर्मापित राणकपुर तीर्थ, आउआ आदि नगरों में क्रमिक पर्यटन करते हुए यथा समय मेड़ता आ पहुँचे । मार्ग में आपके दर्शनार्थ उपाध्याय कल्याणविजयजी ने सादड़ी श्री संघ के साथ, एवं आउआ के नगरपति तल्हा सेठ ने अपने स्वामी भाई के साथ आकर अपने हृदय के उल्लास को पूरा किया। यानि खुब भाव से वंदना की, तल्लासेठ ने गुरुदेव की सेवा में आगन्तुक स्वामी भाई आदि सज्जनों को एक एक फिरोजो सिक्का (रुपया) भेंट दिया, इधर कल्याणविजयजी गुरुदेव की आज्ञा पाकर सादड़ी वापस लौट गये, सुल्तान साहिब मेड़ता नगर में आये हुए सूरिजी के स्वागत में अतिशय भाग लेता हुआ अपने को धन्य समझने लगा। विमल हर्ष उपाध्याय गुरुजी की आज्ञा पाकर अकबर से मिलने के लिये सिद्धपुर से चले थे किन्तु मध्यवर्ती मेड़ता नगर में आवश्यक कार्ययश ठहरने के निमित्त गुरुवर्य सूरि महाराज के दर्शन के पश्चात् उनकी आज्ञानुसार सिंहविमलगणि के साथ आगे बढे, स्वयं सूरिजी फतहपुर की ओर बढ़ते हुए सांगानेर नगर में पहुंचे जितने में उपाध्यायजी For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकबर बादशाह को सूरिजी के आगमन की सूचना देकर वापिस गुरु सेवा में उपस्थित हो गये। सूरिजी के निकट आगमन की खबर मिलते ही अकबर ने थानसिंह अमीपाल और भानुशाह आदि राजमान्य जैन साहुकारों को आज्ञा दी कि सरिजी महाराज को बड़े भारी ठाठबाठ से नगर प्रवेश करा कर विनय पूर्वक अपने दरबार में ले आओ, बादशाह का सख्त हुक्म होते ही बड़े बड़े अफसर और धनाढय जैन प्रतिष्ठित व्यक्ति अनेक हाथी घोड़े रथ नगारा निशान बाजा फौज आदि लेकर सरिजी के सामने सांगानेर पहुँचे, उन के साथ सूरिजी चलते हुए फतहपुर शहर के बाहर जगमाल कच्छवाहा के महल में एक दिन ठहरे । आप ने गंधार बदर से छः महीने का लम्बा विहार करते हुए सं. १६३६ ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी शुक्रवार के दिन फतेहपुर सीकरी नामक शहर में सकुशल प्रवेश किया, उस समय आपकी सेवा में सैद्धान्तिक शिरोमणि महोपाध्याय श्री विमलहगणि, अष्टोतरशतावधानी एवं अनेक नृपमनरंजक श्री शान्तिचंद्रगणि, पंडित सहजसागरगणि, हीर सोभाग्य काव्यकर्ता के गुरु श्री सिंहविमलगणि, वक्तृत्व और कवित्व कला में अद्वितीय निपुण तथा विजय प्रशस्ति महाकाव्य के रचयिता पंडित श्री हेमविजयगणि वैयाकरण चूडामणि पंडित लाभ विजयगणि और पंडित धनविजयगणि आदि १३ प्रधान शिष्य उपस्थित थे। दूसरे दिन प्रातःकाल अपने शिष्यों के साथ सूरिजी महाराज शाही दरबार में पधारे । उस समय थानसिंह ने अकबर को गुरुजी के दरबार में पधारने की खबर दी। सूचना पाते ही आवश्यकीय कार्य में संलग्न होने के कारण अकबर स्वयं न आकर अपने प्रिय प्रधान शेख अबुल फजल को सूरिजी के आतिथ्य सत्कार के लिए भेज कर उस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने लगा, बादशाह का हुक्म पाते ही For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकबर बादशाह-विजयहीरसूरीश्वरजी महाराजार्ध For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७ अबुल फजल सूरिजी के आने के पूर्व ही एक खाट बिछा कर उनके नीचे एक गर्भिणी बकरी को रख कर कपड़ा आच्छादित करके सूरिजी को बैठने के लिये प्रार्थना करने पर उत्तर दिया कि इनके नीचे तीन जीव हैं अतः मैं नहीं बैठ सकता, अबुलफजल ने सोचा कि एक जीव होने पर भी तीन जीव कैसे बता रहे हैं कपड़ा उठा कर देखा तो बकरी ने दो बच्चों को जन्म दे दिया, जिससे तीन जीव देखकर आश्चर्य समुद्र में डूबता हुआ अपनी टोपी को गगन में उड़ाकर सूरि जी से कहने लगा महाराज मेरी टोपी लाइये इस पर गुरुदेव ने अपने रजोहरा (घा) की डंडी आकाश में उनके पीछे उड़ा दी, वह डंडी इस टोपी को पीटती हुई नीचे ले आई तत्पश्चात् अबुल फजल भय विह्वल होकर सूरिजी के अत्यन्त पास आकर सविनय शाही महल में पधारने के लिये प्रार्थना करने लगा, तद्न्तर सूरिजी शेख से निर्दिष्ट जगह पर अपना आसन बिछा कर बैठ गये । अबुल फजल नम्रता पूर्वक सूरिजी से कुशलक्षेम पूछ कर धर्म सम्बन्धी बातें पूछने लगा। कुरान और खुदा के विषय में उसने नाना तरह से जवाब सवाल किया, जिनका उत्तर बड़ी गम्भीरता के साथ युक्ति संगत प्रमाणों द्वारा सूरिजी ने खण्डन मन्डन करते हुए दिया । सूरिजी के विचार सुन कर अबुल फजल बड़ा खुश होकर बोला कि आपके कथन से तो यह सिद्ध होता है कि कुरान में बहुत कुछ गलत बातें लिखी हुई हैं, इस प्रकार की एक हास्यपूर्ण बातें करते हुए मध्यान्ह का समय हो जाने पर शेख सूरिजी से कहने लगा, महाराज! भोजन का समय हो चुका है यद्यपि आप जैसे निरीह महात्मा पुरुषों को शरीर की बहुत कम दरकार रहती है। फिर भी जगत की भलाई के लिये उदर का थोड़ा बहुत पोषण करना आवश्यक है । अतएव किसी उचित स्थान पर बैठ कर आप भोजन कर लीजिये, तत्पश्चात् पास ही में रहे हुए कर्णराजा के महल में सूरिजी आहार पानी के लिये पधार गये, जहां पर पहले ही कुछ साधु गांव से भीक्षाचरी For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (गोचरी) कर लाये थे, गुरुदेव सदैव एक वखत आहार पानी किया करते थे, मगर वह भी परिमित और नीरस । इधर बादशाह ने निज कार्य को सम्पन्न कर दरबार में अबुल फजल द्वारा आचार्यदेव को बुलाया अद्भुत फकीर रूप के वेष में प्राते हुए गुरुदेव को देखते ही ससंभ्रम सिंहासन से उठकर आगे आते हुए बादशाह ने सविनय शिर झुकाकर नमनपूर्वक शिष्टाचार के साथ गुरुराज के पीछे पीछे अपने दरबार में जाने के लिये कदम उठाया, महल में जाने पर अनेक जड़ियों से सुसज्जित विशिष्ठ आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना करने पर सूरिजी ने उत्तर में कहा कि प्रायः इनके नीचे कोई चींटी आदि सूक्ष्म जीव हो तो मेरे वजन से मर जाय इसलिये जैन शास्त्रों में केवली सर्वज्ञों ने अहिंसावादियों के लिये वस्त्राच्छादित जगह पर पांव रखने की भी मना की है बादशाह ने उनकी जीवों के प्रति ऐसी दया देखकर आश्चर्यमय होते हुए सोचा कि फकीर शायद जानता तो नहीं है कि इसके नीचे कोई जीव है, इतना विचार कर गलीचे के एक प्रदेश को ऊँचा उठाया तो उसके नीचे बहुत सी चींटियां नजर पड़ीं, उन्हें देखते ही और चकित हो गया, तदनन्तर स्वर्णमय कुर्सी पर बैठने के लिये श्राग्रह किया, परन्तु सूरिजी ने इनका भी उत्तर देते हुए कहा कि त्यागियों के लिये धातु का स्पर्श करना सख्त मना है, इतनी बाद सुनकर बादशाह अचरज में पड़ कर मौन धारण करता हुआ एक तरफ खड़ा रहकर सोचने लगा कि अब ऐसे बाबा को कहां बैठावें ! इतने में सूरिजी अपने ऊनी आसन बिछा कर सशिष्य बैठ गये, उनको बैठे हुए देखकर बादशाह भी सूरिजी के सामने यथोचित आसन पर बैठ गया, तत्पश्चात् अबुल फजल आदि कर्मचारी अपने अपने योग्य स्थान पर बैठ गये, इतने में बादशाह के तीनों पुत्र (शेख सलीम, मुराद और दानियाल) आकर मस्तक झुकाकर बैठ गये। For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाद में बादशाह अकबर ने कुशलवार्तादि पूछ कर दी हुई तकलीफ की क्षमा मांगी, सूरिजी ने जवाब में कहा कि हमारे लिये तकलीफ कोई नहीं है तो क्षमा किस चीज की ? इतने में सेठ थानसिंह बोला कि जहांपनाह के फरमान को पाकर गंधार बन्दर गुजरात से पांव चलते हुए गुरुदेव ने यहां पर पधारने का जो कष्ट किया है तदर्थ हम लोगों को माफी मांगना उचित ही है। यह बात सुनते ही अकबर चौकन्ना हुआ बोला कि अहमदाबाद के सुबेदार शाहबुदीन अहमदखां ने अपनी कृपणता के कारण ऐसे बाबा के लिये सवारी का इन्तजाम तक नहीं किया ? जिससे ऐसी वृद्धावस्था में भी मेरे लिये आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा, खां साहेब के प्रति कोपायमान बादशाह को देखकर सूरिजी ने कहा कि खां साहब का कोई दोष नहीं है चूंकि उन्होंने तो सब कुछ प्रबन्ध कर दिया था परन्तु हमारे नियमानुसार वे चीजें काम में नहीं आने से हम पांव पैदल ही चले आये। बादशाह ने विस्मित होकर थानसिंह की ओर देखकर कहा थानसिंह ! ऐसे फकीरों के कठिन नियमों से मैं तो वाकिफ नहीं था तं तो अच्छी तरह जानता ही था फिर मुझे पहले ही क्यों नहीं कहा ताकि फरमान न भेजकर बाबा के दर्शनार्थ अपने खुद ही चले जाते, नाहक फकीर को तकलीफ दी, साथ ही साथ समाधि में विघ्न डाल कर मैं पाप का भागी बना, थानसिंह लज्जावश उत्तर न देकर मौन रहा, इतने में बादशाह स्वयं थानसिंह को कहने लगा कि हां मैं तेरी बनीयासाई बाजी समझ गया तंने खुद अपने मतलब के लिये मुझे ऐसे कठोर नियमों से अज्ञात ही रखा । सूरिजी का आजदिन पर्यन्त इस प्रांत में न कभी पधारना हुआ और न तुमको गुरु सेवा करने का मौका मिला, यदि तेरे गुरुजी यहां आजाते तो तुमको उनके स्वागत में खर्चा करना पड़ता ! अच्छा अब भी गुरु महाराज की पूरी भक्ति For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० करके सौभाग्य प्राप्त करले क्योंकि मैं तो मुस्लिम हूँ मेरे घर का खाना हिन्दू के नाते ये नहीं लेंगे अतः तेरे जो कुछ चाहिये वो लेजा कर अपने घर में उनके योग्य व्यवस्था कर, किसी भी प्रकार से तकलीफ न देना, बादशाह के इन व्यंगपूर्ण शब्दों से सारी सभा में हंसी के फव्वारे निकल पड़े। अब बादशाह ने सूरिजी के रहन-सहन खान-पान और फकीरपणे के मर्म को समझना चाहा, इतने में मोदी नामक राजकर्मचारी ने निवेदन किया हुजूर ! इन महात्माओं के रहन सहन आदि जो हैं मैं कह देना चाहता हूँ अतः आप इजाजत बक्षावें, अकबर का आदेश पाते ही सच्ची हकीकत मोदी कहने लगा हे जहांपनाह ! ये महात्मा गंधार बन्दर से पांव पैदल चले आ रहे हैं, अपना जितना भी सामान है वह आपही आप उठाकर चलते हैं आप नंगे पांव एवं नंगे शिर हमेशां रहते हैं धोती इत्यादि कभी नहीं पहनते हैं, शिर और दाढी के समूचे बाल को हाथों हाथ उखाड़ कर फेंकते हैं, किसी तरह का तेल भी नहीं लगाते हैं और न कभी स्नान ही करते हैं, आप घर घर एक आध टुकड़ा मांग कर प्राण की रक्षा करते हैं, भीक्षा में सूखालूका आदि का भी विचार नहीं करते अर्थात् जैसा मिले उससे ही संतोष कर लेते हैं विचार इतना ही करते है कि साधुओं के नियम के अनुसार होना चाहिये पानी केवल गर्म ही पीते हैं वो भी पानी सूर्यास्त के पहले ही एवं मादक चीजें कभी नहीं लेते हैं, रात में तो कतई कुछ भी मुंह में नहीं डालते हैं, तथा आप प्राणी मात्र के साथ वैर न रखकर मैत्री भाव ही रखते हैं आपको चाहें पूजे या गालियां दे मगर आपकी दृष्टि में दोनों समान ही हैं, किसी को न शाप देते हैं और न वर ही, आप रात में पलंग आदि रुई के विस्तर पर शयन न करके शुद्ध ऊन के आसन पर ही नीचे सोते हैं, नींद भी परिमित ही लेते है शेष रात्रि प्रायः समाधि में ही व्यतीत होती है, धर्मोपदेश के अलावा अधिकतर मौन ही रहते हैं, आप में सबसे विशेष बात For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह है कि स्त्री जाति का स्पर्श मात्र नहीं करते हैं, एवं श्राप सदा सत्य ही बोलते हैं और न परिग्रह की मूर्छा रखते हैं, आप काम क्रोध लोभ मोह माया और राग द्वेप आदि का तो सर्वथा देश निकाला देकर क्षमा रूपी माता की गोदी में हमेशा रमते रहते हैं, इनसे अधिक समाचार आपके सहचर शिष्यों द्वारा मिल सकेंगे। इतना कहकर चुप होगया, कमाल नामका कर्मचारी मोदी की कही हुई बातों का समर्थन करता हुआ कहने लगा कि उपरोक्त बातें बिलकुल सही हैं, इसमें किसी तरह का मायाजाल नहीं है। अकबर बादशाह सूरिजी का संक्षिप्त यथार्थ चरित्र सुनकर आश्चर्य में पड़ता हुआ आपके त्याग पर मुग्ध होकर मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगा। इसी तरह समीपस्थ कर्मचारी वर्ग, क्षुब्ध होते हुए अद्भुत त्यागी पुरुष को देख देख कर धन्यवाद देने लगे। अहो! ये महात्मा मायावी नहीं हैं बल्कि साज्ञात खुदा के प्रतिबिम्ब तुल्य ही हैं । ऐसे महापुरुषों का दर्शन प्रबल भाग्योदय से ही हुआ करता है, आपके आने से आशा है कि हम लोगों के ही नहीं अपितु सारे शहर में अलौकिक अभ्युदय होने का पूर्ण सम्भव है। प्रिय पाठक ! प्राचार्य की कितनी आचार विशुद्धता थी। शासन संरक्षक प्रभावशाली एवं धुरन्धर आचार्य होने पर इस प्रकार की उग्र तपस्या करना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? किन्तु यह कहना चाहिये कि उन महात्माओं के अन्तःकरण में ही नहीं अपितु रोम रोम में वैराग्य भरा हुआ था, वो यह नहीं समझते थे कि अब हम आचार्य हो गये हैं अब तो हमें दुनिया खमा-खमा करेगी ही, मुझे प्रपंचों से क्या नफरत है, अब तो ऐश आराम करें किन्तु उन महा पुरुषों में इस प्रकार की स्वार्थ चेष्टा नहीं थी। वे ऐहिक सुखों को विष मिश्रित सुधा के समान समझ कर पारलौकिक सुखों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे, वे लोग सच्चे हृदय से उपदेश For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ दिया करते थे, अतएव उन लोगों का उपदेश भी सफल होता था, उनकी "धर्मोपदेशो जनरंजनाय " ऐसी वागाडम्बर प्रतारणा नहीं थी, वे “मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येक महात्मनाम्” इन लक्षणों से युक्त रहते थे। साथ ही साथ प्राचीन आचार्य यह भी समझते थे कि यदि हम सच्चे आचार में नहीं रहेंगे यदि हम जैसे उपदेश देते हैं वैसे ही बर्ताव नहीं करेंगे तो हमारी शिष्य मन्डली एवं भक्तगण कैसे सुधरेंगे, इत्यादि कितने विचार किया करते थे । किन्तु आजकाल के श्राचार्य उपाध्याय एवं पंडित में "धर्मोपदेशो जन रंजनाय" के साथ “मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद्” पाये जाते हैं, अतएव हम लोंगो के उपदेशों का असर पत्थर पर पानी की तरह प्रायः हुआ करता है । इसी हेतु हमारा दिनानुदिन अधःपतन होता जा रहा है फिर भी हम जान बूझ कर अन्धे की तरह कुए में पड़ते जा रहे हैं । सच्चे हृदय से पक्षपात रहित होकर विचार किया जाय तो यह बात बिलकुल यथार्थ है कि जैसा कहें वैसा करने पर ही जनता पर प्रभाव पड़ सकता है अस्तु प्रकृतिमनुसरामः । एक समय बादशाह सभासदों को उपाध्याय शान्तिचंद्रजी से विद्वद गोष्ठी करने के लिये आदेश देकर स्वयं हीरसूरिजी से बात चीत करने के लिये एकान्त महल में चला गया । वहां बैठने के बाद अकबर ने 'कहा कि महाराज ! ईश्वर और खुदा में क्या भेद है ? वे कैसे हैं ? एक है या अनेक हैं ? और आत्मा का स्वरूप क्या है ? इत्यादि प्रश्न पूछने पर सूरिजी ने बड़ी मधुर ध्वनि से जवाब देना प्रारम्भ किया । जैसे किI ईश्वर खुदा में वास्तविक कोई भेद नहीं है । सिर्फ नाम मात्र काही भेद है । नाम का भेद भी जीवों के कल्याण के लिये ही है । क्योंकि "विचित्ररूपाः खलुचित्त वृत्तयः " जीवों की चित्त वृतियां अनेक प्रकार की हैं। कोई किसी नाम से खुश रहता है और कोई For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी नाम से । लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि एक बच्चे की माता एक नाम से पुकारती है, पिता अपर नाम से, भाई दूसरे से ही। इसी तरह महापुरुषों को भी अनेक नाम से पुकारते हैं। ईश्वरप्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य परपरिवाद, मायामृषावाद मिथ्यात्वशल्य इन अढार दूषणों से सर्वथा रहित है वही देव है वही तीर्थकर है और वही ईश्वर है। उपरोक्त दूषणों में से एक भी दूषण देखा जायगा तब तक ईश्वर नहीं कहा जा सकता। ___ जैन धर्म कहता है कि ईश्वर एक भी है और अनेक भी है, जैसे कि संसार में से जो व्यक्ति कर्मो का क्षय कर के मुक्ति में जाता है वह व्यक्ति रूप जाने से ईश्वर अनेक है. जब संसार से मुक्त होने पर वे सभी आत्मा स्वरूप से एक हो जाते हैं उस अपेक्षा से ईश्वर एक है। ईश्वर पुनः संसार में अवतार को धारण नहीं करता। क्योंकि जन्म जम्मान्तर में जन्म ग्रहण करने का कारण भूत कर्म को निकंदन कर दिया है, जब कर्म सर्वथा छूट जाते हैं तब ही यह आत्मा परमात्मा (ईश्वर) बन सकता है। फिर इनको संसार में जन्म धारण करने की जरूरत ही नहीं रहती। ईश्वर राग द्वेष शरीर क्रिया आदि से रहित है और उनको इच्छा भी नहीं होती। जब इच्छाका विरोध हो जाता है तब किसी कार्य में प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। इसलिये जैन सिद्धान्त कहता है कि ईश्वर किसी चीज को बनाते नहीं और किसी को सुख वा दुःख देते नहीं । चूकि वह स्वयं निरंजन और निराकार है। अब जो इस संसार के जीव सुख और दुःख भोग रहे हैं वह सब अपने अपने कर्मानुसार भोगते हैं। यद्यपि ईश्वर निरंजन निराकार है एवं कुछ भी लेते या देते नहीं किसी कार्य में प्रवृति करते नहीं! फिर भी ईश्वर की उपासना For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करना परमावश्यक है । इसलिये कि हमें भी ईश्वर बनना है । हमको भी संसार से मुक्त होना है । उपासना उसकी करनी चाहिये जो कि संसार से मुक्त हो गया हो । फल प्राप्ति का आधार देना लेना नहीं है । दान देने वाला जिसको दान करता है, उससे फल नहीं पाता है | परन्तु दान देने के समय उसकी सद्भावना ही फल देती है । अर्थात् वही पुण्य होता है । इसी प्रकार ईश्वर की उपासना करने के समय जो हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है । वही उत्तम फल है । संतों के पास जाते हैं तो क्या कुछ देते हैं ? लेकिन संत पुरुषों के निकट जाने से हृदय शुद्ध होना ही फल है । वेश्या के पास जाने से क्या वेश्या नरक में डाल देती है ? नहीं ! किन्तु वेश्या के पास बुरे विचार पैदा होना ही नरक का कारण है । इसी प्रकार ईश्वर का ध्यान भक्ति उपासना एवं प्रार्थना करने से हमारा हृदय पवित्र बनता है और हृदय का शुद्ध होना ही धर्म है । इस बात को सुनकर अकबर ने कहा कि धर्म की उत्पत्ति कैसे होती है ? और धर्म का क्या लक्षण है ? गुरुजी ने कहा कि धर्म की उत्पत्ति कभी नहीं होती । यह जैन धर्म का सिद्धान्त कहता है । धर्म अनादि काल से चला आया है जैसे गुण गुणी में रहता है, उसी प्रकार धर्म धर्मी में रहता है । धर्म ऐसी चीज नहीं है जो अपने आप रह सके, धर्म का लक्षण सिद्धान्तों में बतलाया है कि "वत्थु सहावो धम्मो " वस्तु का जो स्वभाव है, उसी का नाम धर्म है । पानी का स्वभाव है शीतलता, यही पानी का धर्म है । इसी प्रकार आत्मा का धर्म है सच्चिदानन्दमयता अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र । इस धर्म की रक्षा करने के साधन अनेक हैं । जैसे दान, शील, तप, भाव, परोपकार, सेवा, संध्या, ईश्वर भक्ति प्रार्थना इत्यादि धर्म के साधन माने हैं । इससे उत्पन्न होने वाली चीज, वह है धर्म अथवा क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वेष इत्यादि जो अभ्यन्तर शत्रु I For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है उनको दबाना, उनका नाम है धर्म, यह चीज ऐसी है जो कि दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को बचा लेती है। इसलिये इसका नाम है धर्म । उन कारणों को कार्य में (धर्म में) उपयोग करने से कारण भी धर्म कहा जा सकता है और इसीलिये एक प्रकार का धर्म दो प्रकार का धर्म, तीन, चार, पांच, छ, सात, आठ, नव, दश प्रकार का धर्म । ऐसे भेद सिद्धान्तों में माने गये हैं। धर्म वही कहा जाता है, जिससे हृदय शुद्ध एवं पवित्र हो, आत्मा का विकास एवं कर्मों का सर्वथा क्षय हो इसी तरह दान देना, ब्रह्मचर्य पालन करना, दूसरे की सेवा करना, अहिंसा और संयम का पालन करना, तप तपना, इत्यादि धर्म है। क्षमा करना, शास्त्रों का पढ़ना, संसार त्याग कर साधु बनना, ईश्वर उपासना करना यह सब धर्म है । क्योंकि इन कर्मों से पुण्य-धर्म होता है। आत्म विकास होता है । जैन धर्म के तीर्थङ्करों ने इस प्रकार धर्म का प्रतिपादन किया है। अहिंसा धर्म के ऊपर फिर कभी समझाऊँगा। क्योंकि अभी आपको आत्म स्वरूप बतलाया है । इसलिये आप पहले आत्मा का स्वरूप सुन लीजिये। ___ आत्मा कहो, जीव कहो, चेतन कहो यह सब एक ही चीज का पर्यायवाची शब्द है। आत्मा का मूल स्वरूप सच्चिदानन्दमय है। आत्मा अरूपी है। अभेदी है अच्छेदी है। जैसा कि ईश्वर है। लेकिन ईश्वर और इस आत्मा में इतना ही अन्तर है कि ईश्वर निर्लेप है, शुद्ध स्वरूपी है और यह आत्मा ढका हुआ है। आच्छादित आवरण सहित है। यही कारण है कि संसार में परिभ्रमण करता है। सुख दुःखों का अनुभव करता है। इन आवरणों को जैन शास्त्रकार “कर्म" कहते हैं । चैतन्य शक्ति वाले आत्मा ऊपर जड़ ऐसे कर्म लगे हुए हैं इसी के कारण यह आत्मा नीचे रहता है । जैसे कोई तुंबा हो, उस तंबे का स्वभाव तो है पानी पर तैरने का, परन्तु उसको मिट्टी For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और कपड़े का लेप कर खूब वजनदार बना दिया जाय तो वही तंबा तैरने के बजाय, पानी में डूब जायगा। ठीक यही दशा इस आत्मा की है। तब यह निश्चित हुआ कि आत्मा के साथ कर्मों का बंधन रहा है, इसीलिये आत्मा को परिभ्रमण करना पड़ता है। जैन धर्म कहता है कि आत्मा और कर्म का संबन्ध अनादि काल से है और आत्मा के ऊपर रही हुई राग द्वेष की चिकनाई के कारण से है, अनादि काल से आत्मा के साथ राग द्वेष रहा हुआ है। किसी समय आत्मा शुद्ध थी और बाद में राग द्वष से व्याप्त हुई। ऐसा नहीं कह सकते क्यों कि ऐसा कहा जाय तो मुक्तात्माओं को भी राग द्वेष की चिकास लगने की संभावना रहेगी। अतः आत्मा और उस पर राग द्वेष की चिकास अनादि काल से है और इसीलिये कर्म के आवरण उस पर लगते रहते हैं। आत्मा के ऊपर राग द्वष के आवरण कैसे लगे ? यह भी नहीं कह सकते । कोई नहीं कह सकता कि खान में माटी और सोना कब मिला है । है ही। मिला हुआ ही है । हमेशा से है। लेकिन प्रयोगों द्वारा सोना और माटी अलग कर सकते हैं। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर लगे हुए आवरण (कर्म-राग-द्वष) अलग कर सकते हैं। सोना और माटी अलग करने पर सोना सोना रह जाता है और माटी माटी रह जाती है। इसी प्रकार कर्म और आत्मा अलग होने से आत्मा अपने असली शुद्ध स्वरूप में आ जाती है और कर्म अलग हो जाते हैं। __इस पर से यह सिद्ध होता है कि आत्मा पहले और कर्म पीछे, यह भी ठीक नहीं है, कर्म पहले और आत्मा पीछे, ऐसा तो बोल ही नहीं सकते । ऐसा कहने से तो, आत्मा की उत्पत्ति हो जायगी। और यदि प्रात्मा उत्पन्न होने वाला है तो उसका नाश भी होना चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसलिये आत्मा और कर्म दोनों अनादि सम्बन्धित है और वह दूध और पानी की तरफ से श्रोत-प्रोत है। इस प्रकार गुरुदेव के मुखारबिन्द से प्रश्नोत्तर की सरलता से समझकर बारम्बार सांजलि नमस्कार करते हुए अकबर ने कहा हे गुरुदेव ! इतने दिन आपके चारित्र में ही मुग्धता थी लेकिन आज तो आपकी विद्वत्ता के परिचय से भी मुग्ध हुआ हूँ। अब आप से प्रार्थना है कि मेरी आत्मा का कल्याण जिस तरह हो वैसा. सुगमता का मार्ग कृपया बताइये, खास आत्मा की खोज में बहुत दिनों से लगा था लेकिन आपके जैसा महात्मा कोई नहीं मिला था, हे महाराज! आप सर्व शास्त्रतत्वज्ञ एवं आत्मज्ञ हैं आपसे कोई बात छिपी हुई नहीं है अतः कृपया यह बताइये कि मेरी जन्म कुन्डली में मीनराशि पर जो शनिश्चर आया हुआ है उसका मुझे फल क्या होगा ? इस पर सूरिजी ने उत्तर दिया कि पृथ्वीपते ! यह फलाफल बताने का काम ज्योतिषि गृहस्थियों का है जिसको अपनी जीविका चलानी पड़ती है वे ही इन बातों का विशेष ध्यान रखा करते हैं हमको केवल मोक्ष मार्ग के साधन भूत ज्ञान की आकांक्षा रहती है और तदर्थ ही हम लोग श्रवण मनन और प्रवचन किया करते हैं अकबर के बारम्बार हठाग्रह के पश्चात् सूरिजी ने कहा, आत्मजिज्ञासो ? आप कुडलीस्थ ग्रहों की शंका न करके आत्म साधनभूत ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करें क्योंकि आत्म जिज्ञासुओं के लिये इतर की खोज और शंका व्यर्थ ही हुआ करती है ! इधर सूर्यास्त होने जा रहा है, गुरुदेव के प्रतिलेखन (पडिलेहन विशेष क्रिया) का समय उपस्थित हो रहा है। सभा में विद्वदगोष्ठी करते हुए पंडित शान्तिचन्द्रजी तथा समस्त सभासद गुरुदेव और बादशाह के आने में विलम्ब देखते हुए तर्क वितर्क में मस्त हो बैठे है, सभा के बाहर द्वारपालों का मन विव्हल हो रहा है कि अभी For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तक अंदर से कोई नहीं आ रहा है क्या कारण है ? शायद फक्कड बाबा बादशाह को अपनी फक्कड़ाई द्वारा कहीं ले तो नहीं गया, इतने में आगे सूरिजी महाराज और पीछे पीछे अकबर बादशाह को सभा मंडप में आते हुए देख कर अपनी अपनी शंका को हटाते हुए आनंद में मग्न हो गये। अकबर सभा में आकर यथोचित स्थान पर सूरिजी को बैठा कर स्वयं बैठते ही कहने लगा कि इन महात्माओं की कृपा से मेरी राजधानी पूर्ण पवित्र हो गई है। मैं कई एक दिनों से ऐसे फकीरों की खोज में था परंतु मुकदर (भाग्य) से आज आपके चरण रज से कृतार्थ हुआ हूँ, मुझे आशा है कि आप मेरे पर दया करके कुछ दिन ठहरकर सन्मार्गी बनाने का कष्ट करेंगे, अबुलफजल को उदेश करके अकबर ने कहा कि सूरिजी की विद्वता निस्पृहता और पवित्रता से अनुमान होता है कि आपके शिष्य वर्ग भी सकल कला से परिपूर्ण होंगे, इतने में अबुलफजल बोल उठा गरीबनवाज ! अापके शिष्य की वक्तृत्व कला से मालूम होता है कि आपके गुरुजी बृहस्पति के तुल्य ही होंगे, विशेष परिचय तो आपको हो ही गया होगा। तत्पश्चात् अकबर ने थानसिंह को पूछा कि सूरिजी के कितने शिष्य होंगे, उनमें से साथ कितने हैं, जवाब में थानसिंह ने निवेदन किया कि हजर आपके २५०० पच्चीस सौ शिष्य हैं, जिनमें एक शिष्य पट्टधर विजयसेन सूरिजी है और ८ उपाध्याय और १६० पंडित हैं, शेष विना पदवी के मुनी हैं इनमें से उपाध्याय श्री शान्ति चंद्र गणि आदि १३ तो सामने दीख रहे हैं किन्तु सुना है कि कुल ७८ साथ हैं, उपस्थित शिष्यों का नाम तो उपाध्यायजी बता सकते हैं इस बात को सुन कर उपाध्याय श्री शान्तिचंद्र गणि ने सभा में उपस्थित शिष्यों के नाम की आकांक्षा की पूर्ति करके अकबर की शंका को लंका भेज दी, इस प्रकार विनोद के बाद सूरिजी ने उठकर जाने For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की इच्छा प्रगट की, उस पर बादशाह ने थानसिंह को कहा कि अपने शाही बाजे के साथ धूमधाम पूर्वक आपको अपने स्थान पर पहुंचा दो, हुक्म होते ही सब शाही फौज बाजे और बड़े बड़े अफसर एवं अबुल फजल के साथ थानसिंह ने सूरिजी को कर्णराजा के महल में पहुँचा कर सब अपने अपने स्थान की ओर रवाना हो गये, अबुल कजल ने भी दरबार में जाकर सूरिजी को पहुंचा देने की खबर दे दी। फिर रात को महल में अकबर और अबुलफजल बैठ कर सूरि जी के सम्बन्ध में अन्योन्य बातचीत करने लगे, उस समय बादशाह ने सूरिजी से ईश्वर और खुदा के विषय में जो बातें की थी वो कह सुनाई और कहा कि सूरिजी वास्तविक तपस्वी और पूरा फकीर है इनको दूर देश से आमंत्रण भेज कर बुलाया है और उन्होंने अपने लिये इतना कष्ट किया है, तो जिस तरह से ये महात्मा संतुष्ट हो कर जावे वैसा ही करना आपका फर्ज है, इस पर अबुल फजल बोला कि गरीबपरवर ! उस दिन सभा में मोदी के मुख से सुना था कि कंचन कामिनी का स्पर्श भी नहीं करते हैं तो किस चीज से संतुष्ट करेंगे ? हां हो सकता है कि पुस्तक भंडार देकर अपना फर्ज अदा कर देंगे क्योंकि वह ज्ञान के साधन भूत होने से इन्हों के विशेष उपयोगी ही होगा, बादशाह ने इस बात का अनुमोदन करते हुए कहा कि वह कैसे त्यागी हैं इस विषय में कल और परीक्षा करेंगे इतना कह कर अपने अपने आराम रूम में चले गये। दूसरे दिन अकबर ने सूरिजी के साथ धर्म चर्चा करना प्रारम्भ किया, इस पर सूरिजी ने कहा हे सौम्य ? धर्म के अनेक मार्ग है मैंने आपको बतला दिया है किन्तु सबसे उत्तम धर्म अहिंसा ही है अहिंसा को पालने में सब का समावेश हो जाता है सब पापों में पाप हिंसा ही है जीवों को मारने वाला, मारने में सलाह देने वाला, शस्त्र से For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरे हुए. जीयों के अवयवों को पृथक पृथक करने वाला मांस खरीदने बाला, बेचने वाला, संभालने वाला, पकाने वाला, और खाने वाला ये सब हिंसक कहलाते हैं, पशुओं की हिंसा उनके शरीरस्थ रोम तुल्य हजार वर्ष पशुघातक को नरक में जाकर असह्य दुःख भोगना पड़ता है, जो अपने सुख की इच्छा से जीवों को मारता है वह जीता हुआ मृतप्रायः ही है क्योंकि उसको भी सुख नहीं मिलता। कितनी दुःख की बात है कि जब खुद के पाले हुए पशु को भी जीव्हा के लालच से हनन कर देते हैं, उनसे महा-पापी दूसरा कौन होगा ? जो पशु सेवक के दिये बिना दाना चारा नहीं खाता सेवक के बाहर जाने पर ब्यां ब्यां करता है और उसके आने से खुश हो जाता है उस बेचारे पशु को भी अपने हाथ से मार डालते हैं, खेद, उनसे निर्दयी और कठोर हृदय पुरुष कौन है ? अर्थात् कोई नहीं । सूरिजी की बातें सुनकर बादशाह ने प्रश्न किया कि फल फूल कंद और पौधे में भी जीव है फिर खाने वाले को पाप क्यों नहीं होता ? उत्तर में आपने कहा जीव अपने पुण्यानुसार जैसे अधिकाधिक पदवी को प्राप्त करते हैं वैसे अधिक पुण्यवान गिने जाते हैं, इसी कारण से जो एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय इस तरह सर्वोत्तम जीव पंचेन्द्रिय समझना चाहिये और पंचेन्द्रिय में भी न्यूनाधिक पुण्य वाले है अर्थात् तीर्यक पंचेन्द्रि बकरा गौ, भेंस, ऊंट आदि से हाथी अधिक पुण्यवान है और मनुष्य वर्ग में भी राजा मन्डलाधीश चक्रवर्ती और योगी अधिक पुण्यवान होने से अवध्य गिने जाते हैं। क्योंकि संग्राम में यदि राजा पकड़ा जाता है तो मारा नहीं जाता इससे यह सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय को मारने में अधिक पाप होता है एवं अधिक अधिक पुण्यवान को मारने से For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिक पाप लगता है, इसलिये जहां तक एकेन्द्रिय से निर्वाह हो सके वहां तक पंचेन्द्रिय जीव का मारना सर्वथा अयोग्य है। यद्यपि एकेन्द्रिय जीव का मारना भी पाप बन्ध का कारण ही है किन्तु कोई उपायान्तर न रहने से गृहस्थों को वह कार्य अगत्या करना ही पड़ता है अतएव कितने ही भव्य जीव इस पाप के भय से धन धान्य राजपाट पुत्र कलत्र वगैरह छोड़कर साधु ही बन जाते हैं और अपने जीवन पर्यन्त अग्नि आदि को भी नहीं छूते तथा भिक्षा मात्र से उदर पोषण कर लेते हैं। गृहस्थ भी जो अगत्या एकेन्द्रिय का नाश करते हैं उस पाप के परिहार के लिये साधुओं की सेवा दान धर्म और दोनों संध्या आदि पुण्यकृत्य जन्म भर किया करते हैं, त्यागी साधुओं के ऊपर आरम्भ का दोष नहीं होता है, क्योंकि गृहस्थ लोग अपने निमित्त ही आहार बनाते हैं। क्षत्रियों के लिये हिंसा धर्मकारक कही जाती है किन्तु क्षत्रियों का धर्म शस्त्रवान शत्रु के सन्मुख होने के लिये है, किन्तु वह भी योग्य और शस्त्रयुक्त एवं नीति पूर्वक निष्कपट होकर तथा इतना ही नहीं किन्तु उत्तम वंशी वीर राजा के साथ ही करना चाहिये, परन्तु अाजकल निरपराधी जीवों को मारने में ही अपना धर्म समझते हैं लेकिन वास्तविक यह बिल्कुल अनर्थकारक है राजा विचक्षणु क्षत्रिय होकर भी हिंसा को देख कर डर गया, कितने ही मूर्ख गंवार तो हिंसा करने में भी बड़ी बहादुरी मानते हैं, और कहते हैं कि हिंसा करने से हिंसकों की संख्या बढ़ती है जिससे युद्धादि कार्य में विशेष विजय होने की सम्भावना है, किन्तु उन लोगों की यह कल्पना निर्मूल है, क्योंकि देखिये, राजा विचक्षणु और प्राचीन बर्हिश ने हिंसा का त्याग कर और हिंसा कर्म की निंदा भी की, तो क्या वे राज्य भ्रष्ट हो गये ? अथवा वे लोग लड़ाई में अशक्त हो गये ? क्या वे शत्रु से हार गये ? नहीं ! और यथेष्ट मांस खाने वाले क्या विजयी हुए ? नहीं ! वे ज्यादा हारे। For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ एक यह भी विचार करने की बात है कि एक पक्षी को मारने वाला एक जीव का हिंसक नहीं है किन्तु अनेक जीवों का हिंसक है, क्योंकि जिस पक्षी की मृत्यु हुई है, यदि वह स्त्री जाति है और उसके छोटे छोटे बच्चे हैं तो वे मां के मरजाने से क्या जिन्दा रह सकते हैं ? कभी नहीं, एक और सोचने की बात है कि खुदा दुनिया का पिता है, तब दुनियां के बकरी, ऊंट, गौ वगैरह सभी प्राणियों का वह पिता हुआ तो फिर वह खुदा अपने किसी पुत्र के मारने में खुश किस तरह होगा ? अगर होता हो तो उसे पिता कहना उचित नहीं है। इसीलिये बकरी ईद के रोज जो मुसलमान लोग हिंसा करते हैं कितना अत्याचार करते हैं ? अहिंसा ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है, प्राणियों के वधबंध आदि क्लेशों को करना जो नहीं चाहता है वह सब का शुभेच्छु अत्यन्त सुख रूप स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त करता है, एवं जो पुरुष डांस मशकादि सूक्ष्म अथवा बड़े जीवों को नहीं मारता है वह अभिलषित पदार्थ को पाता है और जो भी करना चाहे वह कर सकता है। अहिंसावादी प्रतापी पुरुष जिस चीज का विचार करें वह चीज अनायास एवं तुरन्त ही मिल जाती है। ___ जो पुरुष सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान वर्ताव करता है वही पण्डित है, गौ, भैंस, बकरी वगैरह और सब प्रकार के पक्षी, वनस्पति और खटमल, मच्छर, डांस, जुआ, लीख वगैरह समस्त जन्तुओं की जो मनुष्य हिंसा नहीं करते हैं वे ही शुद्धात्मा और दया परायण सर्वोत्तम है। बहुत से साधुजन अपने जीवन की मूर्छा मोह छोड़कर निज मांस के द्वारा दूसरों के मांस की रक्षा करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं । अहिंसा सब प्राणियों की हित करने वाली माता के समान है और अहिंसा ही संसार रूप मरु देश में अमृत की नाली के तुल्य है, तथा दुःख रूप दावानल को शान्त करने के लिये For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्षाकाल की मेघ पंक्ति के समान है एवं भव भ्रमण रूप महा रोग से दुःखी जीवों के लिये परम औषधि की तरह है, अहिंसा समस्त व्रतों में भी मुकुट के समान है अतएव हे महीपते ? आप भी सर्व सुख जननी अहिंसा को स्वीकार करते हुए प्रजा से भी जीवों की रक्षा करवाते हुए अहिंसामय, नीति से राज्य का पालन करें और आपके दिल में कोई भी शंका हो तो पूछ कर समाधान कर दीजिये। जैन धर्म में दया को प्रधान पद दिया गया है ! सब धर्म इसी को अवलंबन करते हैं। दान, शील, तप भाव परोपकार इत्यादि शुभ क्रियायें होती हैं उन सबका मूल दया है । जैन धर्म में कहा है कि "धम्मस्स जणणी दया" धर्म की माता दया है। दया ही सब की जड़ है। लेकिन दया के स्वरूप को समझना चाहिये लोग दया दया पुकारते हैं । परन्तु दया क्या चीज है, अभी समझे ही नहीं। ___अहिंसा और दया में बहुत अन्तर है। किसी जीव को तकलीफ नहीं देना, मारना नहीं, सताना नहीं, उनके दिल में चोट पहुँचाना नहीं, यह अहिसा है। लेकिन इस अहिंसा का पालन कौन कर सकेगा ? जिसके हृदय में दया होगी वही, इसलिये दया, यह अन्तः करण के भावों नाम है । दुःखी को देखकर के अपने हृदय में दर्द होना यह दया है। अथवा मेरे इन शब्दों पर दूसरों को दुःख होगा ऐसा विचार होना उसी का नाम दया है।। दूसरी बात यह है कि इस में भी मुख्य करके निरपराधी जीवों की हिंसा का त्याग बताया है । इसलिये यह नहीं समझना चाहिये के , बिच्छू, सांप, शेर, खटमल जू आदि जीव हमारे अपराधी हैं और अपराधी समझ कर के उसको मार दिया जाय । खरी बात तो यह है कि संसार में कोई भी जीव मनुष्य का अपराधी नहीं है, सांप, बिच्छ शेर आदि जानवर तो खुद ही मनुष्य से इतने डरते हैं कि वह मनुष्य For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ से छिप कर ही रहना चाहते हैं, जहां जहां मनुष्य की आबादी होती है वहां वहां से वे दूर ही चले जाते हैं। और जब तक वे किसी दबाव में, भय में, आफत में नहीं आते अथवा वे घबराते नहीं, तब तक मनुष्य पर कभी हमला नहीं करते। उन बेचारे निर्दोश जीवों को अपराधी समझ कर उनकी जान लेना, मनुष्य का भयंकर अत्याचार है । गुन्हा है। इस गुन्हा की सजा, मनुष्य लोग अनेक प्रकार की बीमारियां, भूकम्प, जल प्रलय, आग आदि के द्वारा पाते हैं। जो मनुष्य शुद्ध अहिंसा का, शुद्ध मन से दया का पालन करते हैं, जिनको कोई जीव तकलीफ नहीं देता। इसलिये निरपराधी विशेषण का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये। निरपराधी विशेषण देने का तात्पर्य यह है कि मानो कोई मजिस्ट्रेट है और एक खून का गुनहगार उसके सामने आया । कानून की दृष्टि से उसको फांसी की सजा करनी है। उस समय उस अपराधी को दंड करना, सजा करना, उस मजिस्ट्रेट के लिये वाजिब है। इसी प्रकार कोई दुष्ट आदमी किसी बहन बेटी के ऊपर अत्याचार करता है । चोरी करता है । तो उस समय वह अपराधी समझा जायगा । और उसके अपराध की सजा करना गृहस्थ के लिये अनुचित नहीं समझा जायगा । इसलिये हर एक प्राणी पर दया रखना परम कर्तव्य है चूकि अहिंसा पालन करने वाला बड़ा भाग्यवान होता है और अहिंसावादी की आज्ञा जनता सहर्ष स्वीकार करती है, सौम्याकृति से सम्पन्न एवं परम त्यागी बनता है यश चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाता है । चिरंजीवी तथा आरोग्यशाली बनता है। जो सब जीवों के ऊपर दया करता है वही सच्चा धर्मी कहा जाता है। और धर्मी मनुष्य अवश्य सद्गति का पात्र बन जाता है। और उनको हमेशा सुख और सम्पदा अनायास ही मिल जाती है। इस लिये हे राजन् ! सर्व प्रकार से दया का पालन करना अपना परम पवित्र कर्त्तव्य समझे। इसी में तुम्हारा कल्याण है। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिजी का मामिक उपदेश दत्तचित्त से श्रवण कर अकबर सविनय कहने लगा हे गुरुदेव ! मैंने ऐसा नहीं जाना था कि आप ऐसे दयाशील एवं भक्तवत्सल हैं । आपने जैसे परोपकार भाव स्पष्ट रूप से प्रगट किया है तथा अमूल्य सदुपदेश दिया है इसके लिये मैं इसी जीवन में ही नहीं बल्कि जन्मांतर में भी आभारी रहूँगा, इतने दिन मैं वास्तविक अहिंसा से वाफिक नहीं था अब आपकी कृपा से कुछ हृदयंगम हुआ है, और होने की आशा है, जिससे मेरा भविष्य सुधर जायगा, अतएव आपसे पुनः अर्ज है कि यहां कुछ दिन ठहर कर मेरी भवितव्यता में ज्ञान का सहयोग देकर कृतार्थ करें, और एक विनती है कि आप जो मेरे लिये तकलीफ उठाकर दूर देश से पधारे हैं इसके बदले में मैं जो कुछ देना चाहता हूँ उसे स्वीकार करें। _ आपके कथनानुसार मेरी लक्ष्मी आपके उपयोग में नहीं आती क्योंकि आप अपने शरीर पर भी मूच्र्छा नहीं रखते तो लक्ष्मी का तो कहना ही क्या ? फिर भी निवेदन है कि मेरे आग्रह से आपके उपयोगी पुस्तक भंडार ले लेवें। यह पुस्तक भंडार फतहपुर सीकरी पर पद्मसुन्दर नामक नागपुरीय तपगाच्छीय एक जैन यति का था। उसका अंतकाल हो जाने पर प्रेम के नाते दरबार में मंगवा लिया, और उसी समय विचार कर लिया था कि जब कोई सुयोग्य विद्वान् महात्मा मिलेंगे तब उन्हें भेंट कर दूगा, इस भंडार में पुस्तक के सिवाय कुछ नहीं है सिर्फ भागवत पुराण रामायण श्रादि शैव शास्त्र न्याय व्याकरण साहित्य वेदान्त साँख्य मीमांसा छंद अलंकार जैनागम और नाना देशीय इतिहास आदि अनेक ग्रन्थ हैं, इस भंडार के योग्य पात्र न देखने के कारण मैंने किसी को देना उचित न समझा किन्तु आज मेरे भाग्यवश आप जैसे सुविहित महात्माओं का आगमन हो गया इस लिये आपको सुपुर्द कर मेरे सिर का भार हल्का कर रहा हूँ। इतना For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ कहने के बाद खानखाना नाम के अफसर द्वारा पुस्तकों की मंजूषाएँ (पेटीयें) सामने मंगवा कर आपको भेंट कर दी । सूरिजी ने उसे अस्वीकार करते हुए कहा कि आवश्यकतानुसार पुस्तकें हमारे पास हैं, फिर लेकर उसकी आशातना क्यों करें, आत्म साधन में मुख्य सहायक होने के कारण पुस्तकों का रखना, आवश्यक होने पर भी जरूरत से अधिक रखना ममत्व के हेतु परिग्रह ही हो जाता है । इतने में अबुल फजल सूरिजी से कहने लगा है महाराज ! यदि आप इसको भी स्वीकार न करेंगे तो हम लोगों की आत्मा अत्यन्त दुःखमय हो जावेगी, तो फिर आपकी हिंसा कैसे रहेगी ? अकबर और अबुल फजल के अत्याग्रह से बाध्य होकर सूरिजी ने पुस्तक भंडार को स्वीकार करके "अकबरीय भांडागार" के नाम से आगरा में श्री संघ को सुपुर्द कर दिया । सूरिजी के पास अकबर बादशाह तथा अबुल फजल आदि विनोद की बातें करते थे । इतने में वीरबल ने पूछा कि महाराज ! शंकर सगुण है ? सूरिजी ने कहा कि हां सगुण है । उसने कहा कि मैं तो शंकर को निर्गुणी मानता हूँ । गुरुजी ने कहा नहीं । कदापि नहीं । मैं पूछता हूँ कि शंकर को आप ईश्वर मानते हैं ? वीरबल बोला जी हां। सूरिजी ने कहा ईश्वर ज्ञानी या अज्ञानी ? वीरबल ने कहा कि ईश्वर ज्ञानी है ! सूरिजी बोले ज्ञानी किसको कहते हैं ? वीरबल ने कहा कि ज्ञान वालों को । सूरिजी ने कहा कि ज्ञान गुण है कि नहीं ? उसने कहा कि ज्ञान गुण है ! सूरिजी ने कहा ज्ञान गुण है ? वीरबल ने कहा कि जी हां, ज्ञान गुण है । गुरुजी ने कहा कि जब आप ज्ञान को गुण मानते हैं तब शंकर भी ज्ञानयुक्त है । इस लिये शंकर सगुण हो गया। इस पर वीरबल बोला कि महाराज ! आपने तो बहुत ही सरल एवं सुन्दर रीति से स्पष्ट रूप से समझा दिया, और मैं भी समझ गया । आपकी अलौकिक विद्वता पर आनंद For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा रहा है। लेकिन फिर कभी समय पाकर आप से बातचीत करके अपने को धन्य समझूगा । इतनी बातें कर सभा विसर्जन हो गई। चातुर्मास का आसन्न समय देख कर सूरिजी ने बादशाह को संकेत करके आगरे की तरफ विहार कर दिया। आगरा बादशाह की मुख्य राजधानी थी, वहां की जनता की अनन्य भक्ति से विवश होकर सं. १६३६ का चातुर्मास आपने आगरा में ठालिया। वहां के नागरिक जीवों की भावना को अपने उपदेश प्रसाद द्वारा अक्षरशः परिवर्तन करते हुए आपने अहिंसा देवी की स्थापना करके चातुर्मास उठते ही कुशावर्त देशस्थ शोर्यपुर में श्री नेमीश्वर भगवान की यात्रा कर पिपासित चक्षुओं को तृप्त करते हुए वापिस आगरा पधारने पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रासाद की धामधूमपूर्वक प्रतिष्ठा की, इतने में अकबर बादशाह का राजदूत आपको बुलाने के लिये आकर प्रार्थना करने लगा, हे विश्वरक्षक । आपके लिये बादशाह बहुत लालायित हैं, आपकी दैनिक चर्चा किये बिना चैन नहीं पड़ता है, इतने दिन चातुर्मास की वजह से अगत्या समय बिताया है, अब प्रार्थना की है कि एक बार और कृपा करके पधार जावें, अतः हे भक्त प्रिय ! आप वहां पधारने के बाद अन्यत्र पधारे, भूपाल को सन्मार्ग में लाने से सारी प्रजा अपने आप सुधर जायगी, एक भूपाल को काबू में लाने से अन्य जनता स्वतः काबू में आ जाती है, दुराचारी एवं दुराग्रही जन भी शासक की साम दाम दंड और भेदरूपी नीति से वश में आ जाते हैं । आपकी दया सुनकर कैदी लोग पुकार रहे हैं कि एक बार वे महात्मा और आ जाते तो हम लोग भी कैदखाने से छुटकारा पा जाते अतएव हे परोपकारिन् ! आप अवश्य पधारें। सर्वजीवोपकारी श्री हीरविजयसूरिजी महाराज ने सब बातें सुन कर प्रत्येक पशु पक्षी आदि जीवों को मुक्त करवाने के मन ही मन For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकल्प करते हुए उसी दूत को अपने आने का दिवस कह कर भागे भेज दिया। फतहपुर में दूत के मुख से सूरि महाराज के आने की निश्चित खबर सुनकर अकबर, अबुलफजल, थानसिंह और कर्मचारी आदि सब कैदी अपने अपने मनोरथ रथ को बढ़ाते हुए गुरुदेव के आने के दिन की प्रतीक्षा करने लगे। ___ कुछ समय व्यतीत होने पर फतहपुर सीकरी के पास आए हुए सूरिजी की खबर पाते ही बड़े समारोह से उन्हें शाही महल में लाकर विश्राम के लिये योग्य स्थान पर बैठा करके अकबर अपने महल में चला गया, बाद में जनता भी तितर बितर हो गई। अकबर को दूसरे दिन सूरिजी आम जनता के समक्ष धर्मोपदेश देने लगे, जिसमें कितने ही भव्य जीव परमात्मा के स्वरूप को समझ करके अपेय अभक्ष्य मदिरा मांस और कुव्यसनों को छोड़ करके सन्मार्गगामी होते हुए सूरिजी को गुरु तुल्य मानने लगे, अकबर के भी हृदय में इस उपदेश का गहरा असर पड़ा, जिसके फलस्वरूप अकबर का पाषाणवत् कठोर हृदय भी मोम की तरह कोमल बन गया। एक समय बादशाह ने सूरिजी से कहा कि गुरुदेव ! आपने जो कष्ट किया है उसके लिये मेरे दिल में बड़ा दर्द है जिसकी निवृत्ति तभी हो सकती है जबकि आप हम से कुछ लेवें, उत्तर में सूरिजी ने कहा शाहंशाह ! यदि आपकी बीमारी मुझे देने से ही हट जाती है तो मेरे आत्म कल्याण में सहायक चीजें देकर आप कृत कृत्य हो जाइये, वे चीजें यह हैं कि ___ आपके जेलखाने में कितने ही वर्षों से जो कैदी पड़े हुए सड़ रहे हैं उन अभागों पर दया करके छोड़ दीजिये जो वेचारे निर्दोष पक्षी For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिंजड़े में बन्द किये हुए हैं उन्हें निकाल कर स्वच्छंदचारी बना दीजिये आपके शहर के पास डाबर नामका १२ कोस का लम्बा चौड़ा : तालाब है उसमें हजारों जालें तथा वंसीयें रोजाना डाली जाती हैं उनको सर्वदा के लिये बंद कर दीजिये और हमारे पयूषणों के पवित्र दिनों में आपके सारे राज्य में कोई भी मनुष्य किसी भी जीव की हिंसा न करे, ऐसे फरमान की उद्घोषणा कर दीजिये। इतनी बातें सुन कर बादशाह ने कहा महाराज ! आपने अपने लिये तो कुछ नहीं कहा, उत्तर में सूरिजी ने कहा कि संसार में प्राणी मात्र को मैं अपनी आत्मा के समान ही समझता हूँ अतएव उनके हित के लिये जो कुछ किया जायगा वह मेरे ही हित के लिये होगा। इस पर अकबर ने सूरिजी के समक्ष ही जेल में से कैदियों को अभयदान देकर निकाल दिये, पिंजडे में से पक्षियों को निकाल कर गगनमार्गी बना दिये, एवं तालाब में जालें तथा वंसियें डालने की सख्त मनाई करदी और पयूर्षणों के अतिरिक्त ४ दिन अधिक मिलाकर १२ दिन अहिंसा पलाने का हुक्म निकाल दिया। उन हुक्मों के फरमान निम्न प्रकार के हैं पहले सूबा गुजरात, दूसरा सूबा मालवा, तीसरा सूबा अजमेर, चौथा दिल्ली और फतेहपुर, पांचवा लाहोर और मुलतान के गवर्नर को लिखकर भेजा कि अपने अपने समस्त क्षेत्र में कोई भी मनुष्य भा० कृ० १० से लगा कर भा० शु० ६ तक अर्थात् १२ दिन जीव हिंसा न करे, यह असूल हमेशा के लिये कायम समझना, इस प्रकार फरमान लिखकर अकबर ने सूरिजी को भी एक एक प्रति भेंट करदी, इस फरमान के फलस्वरूप आज भी मालवे की धार रिसायत में इस नियम का पालन किया जाता है, ऐसा सुना है। फरमान की नकल इस प्रकार है। ईश्वर के नाम से ईश्वर बड़ा है। महाराजाधिराज जलालुद्दीन अकबर बदशाह For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाजी का फरमान नं. १ मालवा, लाहोर, दिल्ली, मुलतान, अजमेर आदि के मुत्सदियों को विदित हो कि हमारी कुल इच्छायें इसी बात के लिये हैं कि शुभाचरण किये जायें और हमारा श्रेष्ठ मनोरथ अपनी प्रजा के मन को प्रसन्न करने और उन्हें सुखी करने के लिये सदैव तत्पर है। इस कारण जब कभी हम किसी मत वा धर्म के ऐसे पुरुषों का जिक्र सुनते हैं जो अपना जीवन पवित्र व्यतीत करते हैं अपने समय को आत्मध्यान में लगाते हैं और जो केवल ईश्वर के चिन्तवन में लगे रहते हैं तो हम उनके पूजा की बाह्य रीति नहीं देखते हैं केवल उनके चित्त के अभिप्राय को विचार कर उनकी संगति के लिये हमें तीव्र अनुराग होता है और ऐसे काम करने की इच्छा होती है जो कि ईश्वर को पसंद हो, इस कारण जैनाचार्य हीरविजयसूरि और उनके शिष्य जो गुजरात में रहते हैं और हाल ही में यहां आये हैं उनके उग्रतप और असाधारण पवित्रता का वर्णन सुनकर हमने उनको दरबार में हाजिर होने का हुक्म दिया और वे आदर के स्थान को पाकर सम्मानित हुए, आपने अपने देश जाने के लिये विदा होने के समय निम्न लिखित प्रार्थना की कि यदि बादशाह अनाथों का सच्चा रक्षक है तो यह आज्ञा दे दे कि भादों मास के १२ दिनों में, जो पजोषण कहलाते हैं जिनको जैनी लोग विशेषकर पवित्र समझते हैं कोई भी मनुष्य उन नगरों में जीव न मारे जहां उनकी जाति रहती है तो इससे दुनियां में प्रशंसा होगी बहुत से जीव वध होजाने से बच जायेंगे और सरकार का यह उत्तम कार्य परमेश्वर को पसन्द होगा, जिन मनुष्यों ने यह प्रार्थना की है वे दूर देश से आये हुए हैं और उनकी इच्छा हमारे धर्म के प्रतिकूल नहीं है उन शुभ कार्यो के अनुकूल ही है, जिनका माननीय पवित्र मुसलमान ने उपदेश दिया For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है इस कारण हमने उनकी प्रार्थना को मान ली और हुक्म दिया कि उन १२ दिनों में किसी जीव की हिंसा न की जायगी। यह नियम सदा के लिये कायम रहेगा और सबको इसकी आज्ञा पालन करने और इस बात का यत्न करने के लिये हुक्म दिया जाता है कि कोई मनुष्य अपने धर्म सम्बन्धी कार्यो के करने में दुःख न पावे, मिति ७ सन् १५६५ । अकबर ने फरमान देते हुए सूरिजी से यह भी कहा कि मद्य मांस के प्रिय मेरे अनुचरों को जीवहत्या बन्द करने की बात रुचिकारक नहीं होने के कारण धीरे धीरे बन्द कराने की कोशिश करूंगा, पहले की तरह मैं भी शिकार नहीं करूंगा और ऐसा प्रबन्ध कर दंगा कि प्राणिमात्र को किसी तरह की तकलीफ न हो। एक दिन सूरिजी के विवेक पर मुग्ध होते हुए अकबर ने आपको गुरु मानते हुए सारी प्रजा के समक्ष गुरुदेव को जगद् गुरु की पदवी दे दी, इस समय एक भाट ने गुरु स्तुति की, जिसमें अकबर ने उसको लाख रुपये दे दिये। और जगद् गुरु पदवी के समय अकबर ने महान उत्सव मनाया। जिसमें कुल एक करोड का. खर्च कर दिया। धन्य है अकबर की गुरुभक्ति को। उस उत्सव का आनन्द अनुपम रहा, इस खुशीयाली में मेड़तीय शाह सदारंग ने हजारों रुपये तथा हाथी घोड़े गरीब गुरबों एवं याचकों को दान देकर संतुष्ट कर दिये, कैदी सब लोग सूरिजी की जय जय बोलने लगे । पिंजडे से निकलते हुए पक्षीगण आपके गुणगान करते हुए अपने परिवारों से मिलने के लिये उत्सुक होकर यथेच्छ परिभ्रमण करने लगे, शहर में चारों और दुंदुभि नाद होने लगा, सेठ साहुकार लोग श्रीफल मिठाई कपड़े रुपये इत्यादि की प्रभावना देने लगे, उस समय अकबर बदशाह का माननीय प्रतिष्ठित जेताशाह For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम का एक नागोरी श्रावक था। अकबर के कहने से जगद् गुरुदेव ने दीक्षा देकर जीतविजय नाम रखा। परन्तु वह बादशाही यति के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ। एक समय जगद् गुरुदेव अकबर की सभा में धर्मचर्चा कर रहे थे, उस वक्त मायावी एवं स्पर्धालु, मुसलमानों का बड़ा फकीर मुकनशाह ने आते ही विवाद उठाया और कहा कि मैं देखता हूँ कि मेरी इस जरजर कंथा को कौन उठा सकता है ? इस पर कई एक सज्जन सभा में से उठ खड़े हुए, कंथा को उठाने के लिये कोशिश करने लगे । परन्तु उठे भी तो कैसे ? क्योंकि मंत्र प्रयोग द्वारा बहुत वजन कर रखा था। आखिर सब थक चुके । गुरुदेव के शिष्य ने कहा कि अगर मुझे आदेश दिया जाय तो मैं घास की सली से तीन हाथ दूर फेंक दू'। फिर क्या था ? गुरुदेव की आज्ञा पाते ही दूर फेंक दी। देखने वाले दांतों तले अंगुली दबाने लगे। मुकनशाह का भी अभिमान कुछ कम हो गया, परन्तु था पूरा मन्त्रवादी। दूसरा प्रयोग किया फिर भी हार हुई । उस वक्त गुरुदेव के शिष्य ने सोचा कि यह बड़ा अभिमानी है, गर्मी से पारा बहुत ऊंचा चढ़ा हुआ है, थोड़ा नीचे उतार दू तो ठीक रहेगा, नहीं तो प्रतिदिन यह विवाद करता ही रहेगा। ऐसा सोच कर २१ पाट उपरा उपरी लगा कर के जगद् गुरुदेव को ऊपर बैठाया, फिर नीचे से एक एक पाट करके २० पाट निकाल लिये, एक पाट बिना किसी के सहारे आकाश में देख कर मुकनशाह की अहंभावना एकदम खत्म हो गई । और बिना किसी के पूछे ही मार्ग लेना सूझा, क्योंकि जैन फकीर बहुत ही तक्कड़े होते हैं इस लिये अब मेरी यहां दाल नहीं गल सकेगी। ऐसा विचार कर के जरजर कंथा को भी वहीं छोड़ कर निकल पड़ा। दर्शक लोगों की श्रद्धा जगद् गुरु देव के प्रति बहुत मजबूत हो गई और उनके प्रति श्रद्धा का पूरा भाव हो गया । क्यों न हो! प्रतापी पुरुष की सर्वत्र विजय ध्वनि गूंज उठती है। For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर एक बार मुकनजी शाह ईयावश हो करके नारियल (श्रीफल) की टोकरी की नाव बना कर ऊपर बैठ पानी में तैरने लगा। लोग खूब प्रशंसा करने लगे। गुरुदेव ने सोचा कि यह बड़ा ईाखोर है, इस को बार बार पराजित करने पर भी नूतन नूतन कला बताता जा रहा है। इस बार भी इसे चमत्कार दिखाना चाहिये। ऐसा विचार कर गुरुदेव की आज्ञा से एक सौ मण की पाषाण शिला को यमुना के पाणी में छोड़ दी । वह तैरती हुई सीधी मुकनजी शाह से टकरा गई टोकरी की नाव उधी हो गई वह स्वयं डूबने लगा। फिर दयालु गुरुदेव ने उनका हाथ खिंचवा करके बाहर निकलवा दिया। गुरुदेव के चरणों में पड़ क्षमा मांगी और कहा कि आज से आप मेरे गुरु हैं । अब कभी भी आप से ईर्ष्या नहीं करूंगा। आज दिन तक का मेरा सब अपराध क्षमा करें। इधर सेठ थानसिंह ने महोत्सव पूर्वक अपने मन्दिर में जिन प्रतिमा की जगद् गुरुदेव के कर कमलों द्वारा प्रतिष्ठा करवाई, उस समय श्री शान्तिचंद्रजी वाचक (उपाध्याय) पद से विभूषित हुए, एवं दुजणमल ने आपके कर कमलों द्वारा दूसरा प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया उपरोक्त कार्य करते हुए जगद् गुरु श्री मद्विजयहीरसूरिजी महाराज ने अकबर के अत्याग्रह से चातुर्मास सं० १६४० में फतहपुर सीकरी पर ही ठालिया, धर्मोपदेश द्वारा जनता को सचेत करते हुए समय को सार्थक करने लगे, पर्युषण पर्व आने पर अहिंसा पलाने की उद्घोषणा अकबर ने समस्त राज्य में करवादी जिससे जैन धर्म की करुणा का प्रवाह सब दिशाओं में फैल गया। प्रसंगवश विजयराज ने अकबर के सामने दीक्षा लेने की भावना प्रगट की। अकबर ने कहा कि विजयराज ! क्यों फकीर बनता है ? फकीरी में बहुत कष्ट है इतना कष्ट तू सहन नही कर सकेगा। अतः ये विचार छोड़ दे । तेरे किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो यहां For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से ले जाना! नाहक कष्ट बरदाश्त करने की भावना रखता है उत्तर में विजयराज ने कहा कि जहांपनाह ! आपने कहा सब कुछ ठीक है, परंतु बिना कष्ट सुख मिल भी नहीं सकता, आप जिसको मुख मानते हैं वही महा दुःख का कारण बनेगा। मैं अभी दुःख देखूगा, मगर परिणाम में अत्यन्त सुख मिलेगा। इसलिये मनुष्य को भविष्य का पहले सोच कर तद्नुसार प्रवृत्ति करनी चाहिये, ताकि पश्चात्ताप करने का अवकाश न मिले । दूसरी बात यह भी है कि विपदाओं और संकटों से परिपूर्ण संसार को छोड़ कर मेरे पिताजी ने त्याग मार्ग अपनाया है तो क्या मैं संसार में पड़ा रहूँगा ? कभी नहीं ! आप जल्दी आज्ञा प्रदान कीजिये ताकि मैं अपने जीवन को सफल बनाने में लग जाऊं ! विजयराज की मानसिक दृढ़ता को देखकर अकबर को शीघ्र आज्ञा देनी पड़ी, और सानन्द गुरुदेव के चरणों में दीक्षा स्वीकार करने के लिये भेंट करना पड़ा। गुरुदेव भी महोत्सव पूर्वक एवं अकबर आदि राज कर्मचारियों की उपस्थिति में दीक्षा देकर नाम राजविजय रखा, परन्तु बादशाही यति के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ ! सज्जनो! पहले कैसी परिक्षाएं होती थी ? और आज क्या हो रहा है ? जरा एकान्त में बैठ वर्तमान की परिस्थिति पर दृष्टिपात करें! चातुर्मास के बाद अकबर के आग्रह से उपाध्याय शान्तिचंद्रजी को यहीं छोड़कर सूरिजी विहार करके आगरा होते हुए मथुरा के प्राचीन जैन स्तूपों की यात्रा करते हुए ग्वालियर पहुँचे जहां कि गोप गिरी स्तूपों पर आई हुई विशाल काय भव्याकृति जिन प्रतिमा (बावन गजा के नाम से प्रसिद्ध है) के दर्शन कर सं० १६४१ का चातुर्मास करने के लिये इलाहाबाद आ पहुँचे, भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए अहिंसा परमो धर्म पर अत्यन्त जोर देकर आततायियों की बुरी आदत को छोड़ाते हुए गांवों गांव घूमते हुए पुनः आगरा पधारने पर सं० १६४२, का चातुर्मास संघ के आग्रह से करके यहां पर श्री For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ जैनेतर मुसलमान आदि को सद्बोध देने लगे, जिससे कितने ही हिन्दू, मुसलमान लोगों ने मद्य मांस का आजीवन परित्याग कर दिया। आगरे में विराजमान जगद्गुरु को जानकर के दर्शनार्थ अकबर आकर के जनता की बढ़ती हुई सद्भावना को देख सुन कर अत्यंत हर्षित हुआ। एक समय जगद् गुरु और अकबर परस्पर वार्तालाप कर रहे थे उस समय प्रसंगवश गुरुजी ने कहा कि अब मेरी चौथी अवस्था आ गई है प्रतिदिन शारीरिक शक्ति भी घट रही है, अतएव ऐसा विचार है कि इधर उधर न घूम कर गुजरात में रहे हुए शत्रंजय गिरनार आदि पवित्र तीर्थों की यात्रा करके शेष जीवन एक तीर्थ स्थान पर व्यतीत करूं। श्राप से एक मांग है कि गुजरात आदि देशों में रहे हुए शत्रुजय गिरनार बाबू तारंगा केसरीयाजी समेत शिखर और राजगृही के पांच पहाड़ आदि जो हमारे बडे बडे तीर्थ स्थान हैं उन पर कितने ही अविचारी बुद्धिहीन मुसलमान हिंसादि कृत्य कर हमारे दिल को दुःखाते हैं और तीर्थ की पवित्रता को नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं इसलिये आप से अनुनय है कि इन तीर्थो के विषय में एक ऐसा फरमान हो जाना चाहिये जिससे कोई भी मनुष्य इन तीर्थों पर किसी भी प्रकार से अनुचित व्यवहार न करने पावे। इस प्रकार जगद् गुरु के दयामय वचन सुनकर तुरन्त ही बादशाह ने अपने फरमान में गुजरात के शत्रुजय, पावापुरी, गिरनार, सम्मेत शिखर और केसरियाजी आदि जैन सम्प्रदाय के पवित्र तीर्थ हैं, उनमें से किसी तीर्थ पर कोई भी मनुष्य अपनी दखलगिरी न करे और कोई जान बूझ कर किसी जानवर की भी हिंसा न करे, ये For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सब तीर्थ स्थान जगद्गुरु श्री मद्विजयहीरसूरिजी महाराज को सपि गये हैं जैसा फरमान अकबर ने लिख कर सूरिजी के कर-कमलों में सादर सविनय समर्पण कर दिया, उस फरमान की नकल यह है। सर्व शक्तिमान परमेश्र जलालुद्दीन । शूरवीर तैमूरशाह का बेटा मोहम्मद अकबर मीरशाह, उसका बेटा सुल्तान बादशाह गाजी का महम्मद मीरजा, उसका बेटा फरमान नं० २ सुल्तान अदु सैयद, उसका बेटा शेख उमर मीरजा, उसका बेटा बाबर बादशाह , उसका बेटा हुमायू बादशाह , उसका बेटा अकबर बादशाह जो दीन और दुनिया का तेज है। - सूबे मालवा, शाहजहानाबाद, लाहोर, मुलतान, अहमदाबाद, अजमेर, मेरठ, गुजरात, बंगाल तथा मेरे ताबे के और सभी मुल्कों में अब जो मौजूद हैं तथा पीछे से जो नियत किये जायं उन सभी सूबेदारों करोडियों और जागीरदारों को सूचित किया जाता है किहमारा कुल इरादा अपनी प्रजा को खुश करने और उसके दिल को राजी रखने का है क्योंकि रईयत का जो मन है सो परमेश्वर की एक बड़ी अनामत है और विशेष करके वृद्धावस्था में मेरा यही इरादा है कि मेरा भला वांचने वाली प्रजा सुखी रहे, तथा हमारा अंतःकरण प्रवित्र हृदय वाले ईश्वर भक्त सज्जनों की खोज में निरन्तर लगा रहता है, इसलिये अपने राज्य में रहे हुए ऐसे साधु पुरुष का जब कभी हम नाम सुनते हैं तो तुरन्त उन्हें बड़े आदर के साथ अपने पास बुलाकर सत्संगति कर आनंद प्राप्त करते हैं। For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमने गुजरात में रहने वाले जैनश्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य श्री हीरविजयसूरिजी और उनके शिष्यों को अपने दरबार में आमन्त्रण दिया। उनके दर्शन एवं मुलाकात से हमें बहुत खुशी हुई जब वे वापिस जाने लगे तब यह उन्होंने कहा कि आपकी राह से एक ऐसा आम हुक्म हो जाना चाहिये कि सिद्धाचलजी, गिरनारजी, तारंगाजी, केसरियानाथजी और आबूजी के तीर्थ जो गुजरात में हैं तथा राजगृह के पांच पहाड़ और सम्मेत शिखरजी उर्फ पार्श्वनाथ पहाड़ जो बंगाल में है, उन सभी पहाड़ों के नीचे सभी मन्दिरों की कोठियों के पास तथा सभी भक्ति जगहों में जैन श्वेताम्बर धर्म की हैं उनकी चारों ओर कोई भी आदमी किसी जानवर को न मारे, यह मांग की है, अब ये महात्मा दूर देशों से आये हैं और उनकी मांग यथार्थ है। यद्यपि मुसलमानी मजहब से कुछ विरुद्ध मालूम होती है तो भी खुदा (परमेश्वर) को पहिचानने वाले आदमियों का यह दस्तूर होजाता है कि कोई किसी धर्म में दखल न देवे, इस कारण से हमारी समझ में यह अरजी दुरुस्त मालूम दी तहकीकात करने पर भी मालूम हुआ कि ये सभी स्थान बहुत वर्षों से जैन श्वेताम्बर धर्म वालों के ही हैं, अतएव इनकी यह अर्जी मन्जूर की गई है कि सिद्धाचल गिरनार तारंगा केसरियाजी और बाबू के पहाड़ जो गुजरात में हैं तथा राजगह के पांच पहाड़ और सम्मेत शिखर उर्फ पार्श्वनाथ पहाड़ जो बंगाल में है तथा और भी जैन श्वेतांबर सम्प्रदाय के धर्म स्थान जो हमारे ताबे के मुल्कों में है वे सभी जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी के स्वाधीन किये जाते हैं, जिससे शान्तिपूर्वक इन पवित्र स्थान में अपनी ईश्वर भक्ति अच्छी तरह किया करें। । यद्यपि इस समय ये तीर्थ स्थान आदि हीरविजयसूरिजी को दिये जाते हैं परन्तु वास्तव में ये सब जैन श्वेताम्बर धर्म वालों के ही हैं। For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जब तक यह शाश्वत फरमान जैन श्वेताम्बर धर्म वालों में प्रकाशित रहे, कोई भी मनुष्य इस फरमान में दखल न करे । इन पर्वतों की जगह, नीचे ऊपर आसपास सभी यात्रा के स्थानों में और पूजा भक्ति करने की जगहों में कोई भी किसी प्रकार की जीव हिंसा न करे । इस हुक्म पर गौर कर अमल करें, कोई भी इससे उल्टा बर्ताव न करे तथा दूसरी नई सनद न मांगे, लिखा ता० ७ मी, माहे उदी बेहेस्त मुताबिक राउल अवल सन ३७ जुलसी, (सन १८५३) ___ फरमान के साथ ही साथ अकबर ने प्रार्थना की कि हे गुरुदेव ! आप त्यागी पुरुष हैं तथा विश्व के हित चिंतक है अतः आपको यहां से जाने के लिये मैं कैसे कहूँ ? तथा ना भी कैसे कहूँ ! अंतिम में अर्ज यही है कि समय समय पर मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाते रहें और आप जैसे गुरुदेव का भी फर्ज है कि मेरे जैसे अधम सेवक को न भूलें। विनीत बादशाह के प्रिय वचन सुनकर धर्माशीर्वाद प्रदान करते हुए नव पल्लवित पौधे की रक्षा निमित्त उपाध्याय शान्तिचन्द्र को रख कर प्रजा सहित मुगल सम्राट को आश्वासन देते हुए शेष शिष्य सहित सूरिजी गुजरात की तरफ रवाना हो गये। एक दिन एक ब्राह्मण अपनी उदर पूर्ति के लिये इधर उधर भटक रहा था, कर्म संयोग से सर्प ने काट खाया, विष शरीर में फैल चुका, मुर्दे की तरह जमीन पर पड़ा था, अचानक एक मनुष्य का इधर आना हुआ । विष व्याप्त उस मुरदे को देख कर गुरुदेव का स्मरण पूर्वक हाथ फैरने लगा, कुछ ही समय में निद्रामुक्त की तरह उठ बैठा हुआ, बोला भाई ! तुमने क्या जादू का प्रयोग किया है ? यह जादू मुझे भी सिखा दीजिये ताकि मैं भी आपकी तरह उपकार बुद्धि रखंगा ! उसने कहा कि मैं न तो मन्त्र जानता हूँ और न तंत्र ही। मैंने केवल मेरे गुरुदेव श्रीमद्विजय हीरसूरिजी का नाम पढा है। जो For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ समझो मेरे पास यही जड़ी बूटी है अभी इस गांव में मेरे गुरुदेव बिराजे हुए हैं । परम प्रिय वचन सुनकर ब्राह्मण ने सोचा कि नाम से ही सर्प विष चला गया, तो मेरी दरिद्री अवस्था मिटने में क्या देरी लगेगी ? ऐसा मन ही मन विचार पूर्वक गुरुदेव के चरणों में पड़कर बोला, महाराज ! आपके नाम के प्रभाव से ही विष चला गया, इसलिये मेरी आप से प्रार्थना है कि मेरी दरिद्री अवस्था मिटाकर अच्छी अवस्था बना दीजिये ! क्योंकि आपके नाम में इतनी शक्ति है तो, वचन में तो पूछना ही क्या ? महरबानी करके कुछ पैसा का भी प्रबन्ध करवा दीजिये, यह मेरी हार्दिक पुनः पुनः प्रार्थना है, गुरुदेव ने कहा कि भाई ! मैं तो साधू हूँ, मेरे पास न तो पैसा है और न जमीन ही ! ब्राह्मण ने पुनः निवेदन किया कि जो कुछ भी देकर के अनुग्रहित करें ! इस समय गुरुदेव ने उच्च स्वर से कहा कि धर्मलाभ ! ब्राह्मण यह चार अक्षर सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ कि सारी सिद्धि इसी मंत्र में है ! ब्राह्मण जाने लगा, समीपस्थ श्रावकों ने विचार किया कि गुरुदेव के चरणों में अपनी कहानी सुनाई और खाली हाथ जाने देना शोभा नहीं होगी ! ब्राह्मण को पारितोषिक देकर विदा किया, वह भी गुरुदेव यशोगान में अभिवृद्धि करने लगा । पाठक ! देखिये ! उस वक्त की श्रद्धा और उदारता और आजकल की मनोमालिन्यता ! अपना उद्धार तभी हो सकेगा जबकि श्रद्धा और उदारता को हृदय में स्थान देंगे। इधर उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी जगद् गुरुदेव के विरह से खिन्न प्राणियों को अपने उपदेशामृत द्वारा सान्त्वना देने लगे और गुरु सदृश ओजस्वी भाषण देते हुए जनता को रंजित करने लगे, तथा बादशाह से सम्मानित श्राम दरबार में भी प्रतिरोज विद्वद् गोष्ठी करने लगे । For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक समय अकबर अपनी राजसभा में बैठा हुआ था, उस वक्त किसी गांव के व्यापारी ने दो मुक्ताफल भेंट किये। उसकी कीमत बारह बारह हजार की थी, अकबर ने समीपस्थ भंडारी को देते हुए कहा कि इनकी पूरी रक्षा करना । सभा विसर्जन होगई। भंडारी अपने घर गया, अपनी भार्या को मंजुषा में रखने के लिये दे दिया । स्त्री ने भी स्नान करने की तैयारी में होने के कारण पेटी में न रख कपड़े में बांध कर कहीं गुप्त स्थान पर रख दिया । दैव वशात उनकी अचानक मृत्यु हो गई । समय पर अकबर ने भंडारी से याचना की। भंडारी मुक्ताफल लेने के लिये घर गया, सारी जगह ढली फिर भी कहीं पता न चला कि वह कहां रखा गया है । अकबर को क्या उत्तर दूगा? चेहरे पर अगाध उदासीनता थी, हृदय में अपार चिंता थी, चलने का वेग बड़ा मंद था, इसी तारतम्य दशा में अकबर की तरफ लौट रहा था, किन्तु भाग्योदय से उपाध्याय श्री शान्तिचंद्रजी महाराज का पधारना हो गया, भंडारी को उदासीन देख बोले, क्यों आज उदासीन मालूम पड़ रहे हो ? क्या कोई खो गया है ? उसने भी प्रसंग देख सारी घटना कह सुनाई । उत्तर में उपाध्याय जी ने कहा कि तुम अपने घर जाकर जहां तुमने दी थी, उसी जगह कहो कि मेरी चीज दो, तुम को मिल जायगी। उपाध्यायजी के वचन सुन भंडारी बड़ा प्रसन्न हुआ, घर गया देखा तो स्त्री स्नान करने की तैयारी में पाई, याचना की तुरन्त कपड़े से खोल मुक्ताफल दे दिये और अदृश्य हो गई । भंडारी बड़ा विचार में पड़ गया कि गुरुदेव ने यह क्या जादू किया। गुरुदेव के पचनों पर बड़ी श्रद्धा और आश्चर्य प्रगट करता हुआ अकबर बादशाह के पास पहुँचा और मुक्ताफल समर्पण कर दिया। अकबर ने कहा क्या बात है आज बड़े प्रसन्न दीख रहे हो ? उसने भी उपाध्याय की सारी कथनी कह सुनाई। अकबर भी बड़ा आनन्द अनुभव करने लगा। For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१ एक वक्त अकबर बादशाह और उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी परस्पर विनोद की बातें कर रहे थे। उस वक्त अकबर ने कहा कि महाराज! कुछ चमत्कार तो दिखलाओ उत्तर में उपाध्यायजी ने कहा कि चमकार देखना चाहते हो ? अगर देखने की इच्छा है तो मेरे साथ आप के बगीचे में चलिये। फिर क्या था ? तुरन्त ही अकबर और उपाध्यायजी बगीचे में गये। वहां पर शान्तिचन्द्रजी ने अकबर के पिता हुमायु आदि सात दादा प्रदादा का दर्शन अकबर को करवाया। अकबर इस प्रकार उपाध्यायजी के चमत्कार को देख कर बड़ा आश्चर्य में पड़ गया। और जैन धर्म के प्रति अटल श्रद्धा अकबर के हृदय में हो गई । यह सब उपाध्यायजी की अनुकम्पा का फल है। एक समय अकबर ने कटक देश पर चढ़ाई की, उस समय उपाध्याय श्री शांतिचंद्रजी भी गुरुजी की याज्ञा से साथ गये । विहार इतना लम्बा हुआ कि एक ही दिन में ३२ कोस काटना पड़ा। पांव सूझ गये ! बड़ी तकलीफ हो गई, फिर भी गुरू की आज्ञा पालन करने में तल्लीन थे । अकबर ने तपास करवाई, पता चला कि उपाध्यायजी को लम्बे विहार की वजह से बहुत पीड़ा हो गई है। फिर अकबर ने प्रार्थना की, महाराज ! यद्यपि आप गुरु के बड़े प्रिय हैं, और उनकी आज्ञा पालन में भी बड़े सावधान हैं। लेकिन मेरा अनुरोध है कि आज पीछे इतना लम्बा प्रयाण न करें, धीरे धीरे आप पीछे से पधारें। मेरे साथ इतना कष्ट न उठावें । फिर वैसा ही किया गया। कटक देश पर आक्रमण करते करते और लड़ते झगड़ते बारा वर्ष व्यतीत हो गये, परन्तु जय पराजय का कुछ भी अनुभव नहीं होने पाया तब अकबर के समीपस्थ कर्मचारियों ने अकबर से एकान्त में निवेदन किया । हुजूर आपके साथ श्वेत वस्त्रधारी जो जैन साधु है इन्हीं के कारण आपकी विजय नहीं हो रही है। इन नीच महात्माओं For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को निकाल देने पर आपकी विजय सुनिश्चित है, इस प्रकार अकबर को भड़काने पर भी उपाध्यायजी के प्रति श्रद्धा टूटी नहीं। और उपाध्यायजी को निवेदन किया कि ये लोग आपके प्रति इस तरह शंका कर रहे हैं, इसका कुछ प्रतिकार होना चाहिये । ___उत्तर देते हुए उपाध्यायजी ने कहा कि कल सुबह ही तुम्हारी विजय होगी परन्तु एक शर्त है, वह यह है कि कोई भी मानव यहां हिंसा न करे, तमाम सैनिकों से शस्त्र बंद करवा दिया जाय। और कल ही अपने दोनों नगर के अन्दर प्रवेश कर आपकी विजय पताका फहराकर वापिस आ जायेंगे। फिर क्या था ? अकबर बड़ा प्रसन्न हुआ सुबह हुआ। दोनों चल धरे। लोग शंका करने लगे कि अकबर को शत्र के हाथ सोंपने लेजा रहा है। फिर भी अकबर का मन बड़ा मजबूत था । दोनों नगर के समीप पहुँच गये। उपाध्यायजी ने एक फूक मारी सारा गढ़ (किला) गिर पड़ा। दूसरी फूक मारी द्वार खुल गये। और तीसरी फूक मारते ही वहां का राज्य अकबर के आधीन हो गया। उपाध्यायजी का यह चमत्कार देख लोग दांतों तले अंगुली दबाने लगे। और अपने मन में की गई शंका का पश्चाताप करने लगे। विजय के बाजे बजने लगे। जय जय ध्वनि से गगन मंडल गूंज उठा। अकबर अपनी विजय पताका फहरा कर उपाध्यायजी के साथ ही वापिस डेरे में आ गया। इस प्रकार उपाध्यायजी ने अकबर के हृदय में जैन धर्म की अमिट छाप जमादी। धन्य है उपाध्यायजी को कि तकलीफ को भी सहन कर गुरुदेव की आज्ञा पालने में बड़े सर्तक एवं पूरे सावधान रहे। धन्य है अकबर को भी जो इस प्रकार भड़काने पर भी उनके प्रति श्रद्धा अटूट रखी। कुछ दिन में आपकी धवल कीर्ति चारों ओर फैलती हुई देख कर स्पर्धालु परगच्छीय भट्टारक वादी भूषण ने शास्त्रार्थ करने की उद्घोषणा कर दी, उपाध्यायजी को शास्त्रार्थ करना बायें हाथ का खेल For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir था क्योंकि आप एक ही साथ एक सौ आठ अवधान करने से असाधारण प्रतिभा को पाकर दिगविजय के समान अद्वितीय विद्वान बन गये थे, और भूतपूर्व में बागड़ घटशिल नगराधीश तथा जोधपुरीय भूपति मल्लदेव के भतीजा राजा सहस्रमल्ल की अध्यक्षता में गुण चन्द्र नामक परगच्छाचार्य को, एवं अनेक दिग्गज विद्वानों को पराजय पूर्वक जय पताका फहराते हुए राजपूताना के अनेक राज्यों के मनोरंजक बन गये थे, फिर वह समय आने पर ईडरगढ़ के महाराजा श्री नारायण की सभा में वादी भूषण के साथ उपाध्याय शान्तिचन्द्र जी वादविवाद पूर्वक अन्त में उसे पराजय कर आपने विजय माला पहन ली, इस प्रकार उपाध्यायजी की अजेय विद्वता को देख कर अकबर का मुाया हुआ दिल हरा भरा हो गया, और सोहार्द और औदार्य गुणों से प्रशंसात्मक उपाध्याय रचित कृपारस कोष को आपके मुखारबिन्द से १२८ पद्यों को सुनकर अकबर मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हुआ विशेष दयामय जीवन बनाता हुआ आप में अनुरक्त हो गया, जिससे शान्तिचन्द्रजी के कथनानुसार जजिया कर, मृत द्रव्य ग्रहण करना कतई बन्द कर दिया और अकबर गाय, भैंस, बैल,बकरा आदि पशुओं को कसाई की छरी से बचाने के लिये साल भर में छः महीने तक सभी जीवों को अभय दान देकर अहिंसा का परम पुजारी बन गया, अकबर के भारत में छः मास अहिंसा पलाने का दिन निम्न प्रकार पाया जाता है। पर्युषण के १२ दिन, सर्व रविवार के दिन, सोफियान एवं ईद के दिन, संक्रांति की सर्व तीथियें, अकबर के जन्म का पूरा मास, मिहिर और नवरोजा के दिन, सम्राट के तीनों पुत्रों का जन्म मास और रजब (मोहरम) के दिन । अंग्रेजी इतिहासकार केम्ब्रीज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया कोल्फम ४ में लिखते हैं कि अकबर छः मील की जगह पर पशुओं को इकट्ठा करवा कर एक ही साथ चारों तरफ से घेरा डाल कर १५ हजार पशुओं को पांच दिन में कर रीति से मारता था। For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाद में लिखा है कि जब जैन धर्म का अहिंसा सिद्धान्त अकबर ने स्वीकार किया तब से पूर्वकी की हुई हिंसा का अन्तःकरण में दुःख रूप पश्चात्ताप करता था, पश्चात्ताप उसको कहते हैं कि किये हुए पापों की माफी मांगना एवं उन पापों की निन्दा करना कि मैंने बहुत बुरा किया और भविष्य में इस प्रकार कठोर कर्म नहीं करूंगा। इस प्रकार मन में आलोचना करना पश्चात्ताप है। डा० स्मिथ लिखते हैं कि जैन धर्माचार्यों ने नि:संदेह वर्षों तक अकबर को उपदेश दिया। बादशाह पर उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा। जैन साधुओं ने बादशाह से इतना जैन सिद्धान्त का पालन करवाया कि लोग समझ गये कि अकबर जैनी हो गया। ___डा. स्मिथ महाशय अकबरः नामक पुस्तक पृष्ठ १६६ में लिखते हैं कि सन् १५६२ के बाद उसकी जो कृतियां हुई है, उनका मूल कारण उनका स्वीकार किया हुआ जैन धर्म ही था। अबुलफजल ने अन्त में जो विद्वानों की सूची दी है उसमें तीन महान समर्थ विद्वानों के नाम आये हैं। क्रम से हीरविजयसूरिजी, विजयसेनसूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय ये तीनों जैन गुरु या जैन धर्माचार्य थे। आईने अकबरी में एक बात और लिखते हैं कि अकबर का हुक्म था कि मेरे राज्य में कसाई, मच्छीमार, तथा मांस विक्रेताओं को अलग मोहल्ला में रहना चाहिये और किसी के साथ भेल संभेल न करें। अगर इस हुक्म को हमेशा के लिये नहीं पालेंगे तो वे सख्त सजा के पात्र बनेंगे। आईने अकबरी में अबुलफजल लिखते हैं कि “अकबर कहता था कि मेरे लिये कितनी सुख की बात होती यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर संतुष्ट होते और दूसरे जीवों का भक्षण न करते । अथवा मेरे शरीर का एक For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंश काट कर मांसाहारियों को देने के बाद यदि वह अंश वापिस प्राप्त होता तो भी मैं बहुत प्रसन्न होता । मैं अपने शरीर द्वारा मांसाहारियों को तृप्त कर सकता।" धन्य है प्रतापी जगद् गुरुदेव को कि आप के प्रभाव से एक हिंसक मुगल सम्राट अकबर ने अहिंसा परमो धर्म का पालन कर भारत में दया भागीरथी को बहा दी। बादशाह के ये सब कार्य कर देने पर जगद् गुरुदेव को खुश खबर देने एवं दर्शन करने के लिये उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी ने अकबर से अपने गुरुजी के चरणों से जाने की इजाजत मांगने पर अकबर के आग्रह से अपने सहाध्यायी पण्डित भानुचंद्रजी को दरबार में बैठा कर आप गुजरात की तरफ रवाना होकर मार्ग में उपदेशामृत की वर्षा करते हुए यथासमय पटन (पाटण) आ पहुँचे । तत्रस्थ जगद् गुरुदेव को सविधि वन्दना के पश्चात् किये हुए अकबर के कार्यों को सुनाते हुए प्राप्त फरमान पत्र को चरण कमल में भेंट कर गुरु दर्शन से प्रफुल्लित हुए, सूरिजी उपाध्यायजी के किये हुए कार्यों पर प्रसन्न होकर मन ही मन प्रशंसा करते हुए आम जनता को खुश खबरी बातें सुनाने लगे। ___ इधर श्री विजयसेन सूरिजी भंवरा की तरह विचरते हुए दो चातुर्मास के बाद सं० १६४२ का चातुर्मास करने के लिये पतन नगर में आ पहुँचे। कुछ समय के बाद परगच्छीय आचार्य से धर्म सागरजी के बनाये हुए "प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रन्थ से आपने शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया, यह वादविवाद लगातार चौदह रोज तक राज सभा में होता रहा, अन्त में सूरिशेखर विजयसेनसूरिजी की जय हुई। परगच्छीय आचार्य की अप्रतिष्ठा होने पर आपके भक्तगण रुष्ट होकर अमदाबादस्थ कल्याणराज नामक साधु को बहकाया कि For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राप राजकीय सत्ता को लेकर विजयसेनसूरिजी के शिष्य के साथ शास्त्रार्थ कर पराजय करके अपना गौरव बढ़ाइये, इस पर कल्याणराज नामक साधु ने खानखाना नामक राजेन्द्र की सभा में सामंतादिक राजकर्मचारी और नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सामने सूरि जी से विवाद उठाया, परिणाम में कल्याणराज को पराजय कर सूरि जी के शिष्य ने अपने गुरुजी की महत्ता को बढ़ाते हुए सकल जन को वश में कर लिया और औष्ट्रिक मत के अनुयायियों का भी संशय रूपी अंधकार को दूर कर दिया, आपकी जयध्वनि से नगर गूंज उठा। यह विजयध्वनि विजयसेन सूरि के कर्ण गोचर होते ही प्रेरणा करने लगी कि आप अमदाबाद पधारें। तदनन्तर सूरिजी पतन नगर से विहारी होकर अल्पकाल में अमदाबाद पधार गये, आपके सामैया (स्वागत) में राजा की तरफ से हाथी घोड़ा नगारा निशान आदि सामग्री द्वारा शहर में अच्छी अच्छी सजावटें की गई नगर की नारियां ने स्वर्ण की चौकी पर हीरा माणिक मोतियों के साथिये (स्वस्तिक) और नन्दावर्त बना करके धवल मंगल गीत गाती हुई श्रद्धा पूर्वक सूरिजी की भक्ति की। श्रावक गरण ने ज्ञान पूजा प्रभावना स्वामी वात्सल्य आदि में भाग लिया। जब सूरिजी ने धर्म देशना प्रारम्भ की तब कुतूहलता से खानखाना राजा राजकर्मचारी जैन और जैनेतर धर्मावलम्बी अनेक सज्जन उपस्थित हुए। सूरिजी का माधुर्य उपदेश सब को लोह चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित करने लगा। चातुर्मास निकट आजाने पर राजा प्रजा के अत्याग्रहवश सूरिजी चौमासा आडम्बर पूर्वक अहमदाबाद में करके आसपास के शहरों में भव्य जीवों को प्रतिबोध देने लगे। For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इधर जगद्गुरु विजयहीरसूरिजी महाराज आगरा, फतहपुर, अभिरामबाद और आगरा इस प्रकार चार चातुर्मास करने के बाद मरुधर देश को पवित्र करते हुए फलोदी तीर्थ की यात्रा करके चातुमस के लिये नागौर पधारे । यह चातुर्मास पूर्ण हो जाने पर गुजरात की तरफ प्रयाण किया। तब मार्ग में अनेक गांवों में घूमते हुए मेड़ता पधारने पर पूर्व परिचित के हेतु खानखाना नामक सूबेदार ने भव्य स्वागतपूर्वक नगर प्रवेश करवाया। कुशल मंगल की बातचीत करते हुए खानखाना ने प्रश्न किया कि महाराज ! ईश्वर रूपी है या रूपी ! सूरिजी ने कहा कि अरूपी है। उसने कहा कि जब ईश्वर रूप है तब तो ईश्वर की मूर्ति स्थापना करने की क्या जरूरत है ? इस पर सूरिजी ने बड़ी गंभीर वाणी से कहा कि राजन् ! मूर्ति जो है वह ईश्वर का स्मरण कराती है, जिसकी मूर्ति होती है उस व्यक्ति को वह याद दिलाती है । अगर कोई मनुष्य कहता है कि मूर्ति को नहीं मानता हूँ, वह अव्वल दरजे का पागल है । क्योंकि संसार में ध्याता, ध्यान और ध्येय इन त्रिपुटी के बिना कोई भी मनुष्य सिद्धी पद नहीं पा सकता। संसार में किसी भी पदार्थ का आलम्बन लिये बिना ध्यान नहीं हो सकता । दुनियां में अरूपी पदार्थ का ज्ञान भी मूर्ति से ही होता है । जैसे कि आप मुझे साधु और हिन्दू कहते हैं और मैं आपको मुस्लिम कहता हूँ । यह सब इन वेष रूप मूर्ति के आधार पर ही निर्भर है । इसलिये मूर्ति को मानना हर एक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य एवं आवश्यक है । कोई मूर्ति को नहीं चाहता है परन्तु प्रकारान्तर से तो मानना ही पड़ता है । सूरिजी के वचन शान्त चित्त से श्रवण कर खानखाना बोला कि आपके कहने से यह सिद्ध हुआ कि मूर्ति को मानना चाहिये । अच्छा मान लेते हैं । परन्तु इसकी पूजा क्यों करनी चाहिये ? अपने को क्या लाभ ? For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुदेव ने मधुर ध्वनि से कहा कि महानुभाव ! जो मनुष्य मूर्ति की पूजा करते हैं, वे मूर्ति की पूजा नहीं करते हुए मूर्ति द्वारा ईश्वर की पूजा करते हैं। क्योंकि पूजा के समय पूजक की भावना यही रहती है कि मैं साक्षात् ईश्वर की पूजा कर रहा हूँ न कि पत्थर की। जैसे उदाहरण लीजिये कि आप लोग मस्जीद में पश्चिम दिशा तरफ निवाज पढ़ते हैं, तो क्या पश्चिम दिवाल को ही खुदा मानते हैं ? नहीं ! कहना होगा कि पश्चिम दिशा के आश्रित खुदा को प्रसन्न करते हैं । मूर्ति पत्थर की बनवा कर मंत्र आदि से प्रतिष्ठा करने का तात्पर्य यही है कि अभिषेक द्वारा मूर्ति में ईश्वरत्वका आरोपण किया जाता है। __ मूर्ति पूजा करने से लाभ यह होता है कि अपनी आत्मा निर्मल बनती है। क्योंकि सामने जैसा प्रतिबिम्ब होता है वैसा ही भाव पैदा हो जाता है । जैसे कि वेश्या के मकान पर जाने से बुरे विचार पैदा हो जाते हैं। और धर्म स्थान में जाने पर सुन्दर विचार उत्पन्न हो जाते हैं । इसी प्रकार मूर्ति पूजा से आत्मा का परिणाम शुद्ध हो जाता है । और मेल दूर होना अनिवार्य है। इसलिये निर्मल होना ही लाभ का मुख्य कारण है। इस प्रकार युक्तियुक्त गुरुदेव का चातुर्य वचन सुन कर खान खाना बड़ा प्रसन्न होकर मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगा। और बोला कि महाराज ! अकबर बादशाह ने जो आपको मान सत्कार पूर्वक जगद्गुरु पद प्रदान किया वास्तविक उन गुणों से आप यथार्थ विभूषित हैं। महाराज ! मेरे पर दया करके कुछ चीजें स्वीकार कीजिये । सूरिजी चीजों का इन्कार करते हुए साधु जीवन का पूरा परिचय देकर अपने उपाश्रय में पधार गये ! और यहां से आगे चलते हुए सिरोही आ पहुँचे, इतने में गुरुदेव के पत्रानुसार विहार क्रम को जानते हुए विजयसेनसूरिजी भी उत्कंठावश कुछ समय पूर्व ही For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे गुजरात से रवाना हो कर सीरोही आ पहुँचे, दोनों गुरु शिष्यों के मिलाप से जो आनन्द श्रोत बहा वह अवर्णनीय है। कुछ दिन के बाद विजयसेनसूरिजी गुरु आज्ञा पाकर स्तम्भन तीर्थ की यात्रा करने के लिये रवाना हो गये, जगद् गुरुदेव भी सिरोही से विहार करके मगसुदाबाद पहुँचे, यहां पर हिन्दू कुल सूर्य जगत विख्यात महाराणा प्रतापसिंहजी ने जगद् गुरुदेव श्री मद्विजय हीरसूरिजी को मेवाड़ प्रदेश में पधारने के लिए प्रार्थना पत्र भेजा, उसकी नकल इस प्रकार है। पत्र मेवाड़ी भाषा मेंस्वस्ति श्री मगसुदानन महाशुभ स्थाने सरबओपमा लायक पूज्य भट्टाकरजी महाराज श्री हीरबजे सूरिजी चरण कुमला अये स्वस्थ श्री वजे कटक चांवडारा केरा सुथाने महाराजाधिराज श्री राणाप्रताप सिंहजी ली. पगे लागणो बांचसी अठार। समाचार भला है अपरा सदा भला छइजे । आप बड़ा है पूजनीक है सदा कृपा राखे वीसु ससह (श्रेष्ठ) रखावेगा । अपरंच आपरो पत्र अणा दना म्हे आयो नहिं, सो कृपा कर लखावेगा । श्री बड़ा हजूररी वगत पधारवो हुओ जिमे अठा सुपाछा पदारता पातसां अकब्रजी ने जेनाबाद म्हे ग्रांन रो प्रति बोध दीदो चमत्कार मोटो बतायो जीत्र हिंसा छरकली (चिडिया) तथा पंषेरु (पक्षी) वेती सो माफ कराई जीरो मोटो उपकार कीदो सो श्री जैन रा ध्रम में आप असाहीज अदोतकारी अबार कीसे देखता आप ज्युफेर वे नहीं भावी पुर बही दस स्थान अत्र वेद गुजरात सुदा चारु दसा म्हे धरमारो बड़ो अदोतकर देखाणो जठा पछे आपरो पदारणो हुओ नहीं सो कारण कही वेगा पधारसी आगे सु पट्टा प्रवाना कारण रा दस्तुर माफक आप्रे है जी माफक तोलमुरजाद सामो आवो साबत रेगा। श्री बड़ा हजुररी वखत आप्रा गुरुजी रे सामो आवारी कसर पड़ी सुणी सो काम कारण लेखे भुल वही वेगा । जीरो अदेसो For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं जाणेगा, आगे सु श्री हेमा आचारजी ने श्री राजन्हें मान्या है जीरो पटो कर देखानो जि माफक आपरा पगरा भट्टारक गादीप्र आवेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा। हेमाचारजी पेला श्री वडगच्छ रा भट्टारकजी ने बड़ा कारण सु श्री राज म्है मान्या जि माफक अपने आपरा पगरा गादी प्र पाटही तपागच्छराने मान्या जावेगा री सुवाये दै सम्हे आपरा गच्छ रो देवरो तथा उपासरो वेगा जीरो मुरजाद श्री राज सु. वा. दुजा गच्छरा भटारक आवेगा सो राखेगा श्री समरण ध्यान देव यात्रा जेठ आद करावसी ने वेगा पदारसी प्रवानगी पंचोली गोरो।सं. १६४५ रा वर्षे आसोज सुद ५ गुरुवार । __ इधर स्तम्भनतीर्थ विजयसेन सूरिजी के पहुंचने पर भावी प्रतिष्ठा का कार्यक्रम शुरू हो गया। इस कार्यक्रम के संचालक विजया राजिया नामक श्रावक थे सं० १६४५ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन उत्तम मुहुर्त में विजयसेनसूरिजी के कर कमलों द्वारा श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा की और सप्त फणी पार्श्वनाथ की प्रतिमा ४१ इंच की मुख्य गादी पर स्थापन की। प्रतिष्ठा के बाद "विजया राजिया" नामक दोनों भाइयों ने एक मन्दिर और बनवा कर आपही के कर कमलों द्वारा प्रतिष्ठा करवाई। इस मन्दिर में बारह स्तम्भ छः द्वार, सात देव कुलिका (देवरीया) और २५ सोपान (सीढी) है, जिसमें आदीश्वर पार्श्वनाथ महावीर भादि २५ जिनबिम्ब यथा योग्य स्थान पर स्थापित किये। ___ उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी के स्थान पर भानुचन्द्र और सिद्धिचन्द्र दोनों गुरु शिष्य अकबर के दरबार को सुशोभित करने लगे, (भानु चन्द्रजी बाण भट्ट कृत कादम्बरी के प्रसिद्ध टीकाकार हैं) आपने अकबर को सूर्य सहस्त्र नाम स्तोत्र पढ़ा कर तेजस्वी बना दिया। सिद्धि चन्द्र सदृश शतावधानी थे और फारसी के अच्छे जानकार थे। अतएव इनके ऊपर बादशाह का विशेष प्रेम होने के कारण "खुशफ-हेम" की For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदवी अकबर ने दे दी। गुरु शिष्यों द्वारा जगद् गुरु हीरविजय सूरिजी के उत्तराधिकारी प्राचार्य कुल किरीट विजयसेन सूरिजी की विद्वत्ता और अलौकिक प्रतिभा सुनकर अकबर प्रसन्न चित होकर बुलाने के लिये आमन्त्रण पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि आपके प्रिय शिष्य भानुचन्द्र जी के कथनानुसार निश्चय किया है कि आज से शत्रुजय तीर्थ का कर मेरे राज्य में कोई नहीं लेगा, अब आपका पवित्र शत्रुजय तीर्थ कर मोचन पूर्वक आपको सहर्ष दे रहा हूँ ! साथ ही साथ निवेदन है कि आपके पट्टालंकार असाधारण प्रभावशाली विजयसेनसूरिजी को लाहोर भेजने की कृपा करें। मगसुदाबाद नगर में महाराणा प्रताप का एवं अकबर बादशाह का विनती पत्र पाकर जगद् गुरुदेव यहां से रवाना होकर राधनपुर पहुँचे। इतने में स्तम्भनतीर्थ की प्रतिष्ठा करके विजयसेनसरिजी आपके चरणों में आ पहुँचे। आप गुरु सेवा में रहते हुए, गुरु मुखार बिन्द से दोनों आमन्त्रण पत्र के वृत्तान्त से वाकिफ होकर आमोदित होने लगे। कुछ दिन के बाद जगद् गुरु ने कहा कि हे सेन सूरि ! अकबर ने तुम्हारे लिये आमन्त्रण भेजा है और तुम को जाने से लाभ ही होगा इसलिये जल्दी जाना चाहिये। जगद् गुरुदेव की आज्ञा पाकर विजयसेनमूरिजी सं० १६४६ मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया के दिन शुभ मुहूर्त में राधनपुर से लाहोर की तरफ रवाना हुए, जहां कि अकबर बादशाह इन्तजारी में बैठा था। विजयसेन सूरिजी विहार करते हुए पाटण आदि नगर के वासियों को प्रतिबोध देते हुए देलवाड़ा आबू तीर्थ की यात्रा कर सिरोही पधारे। सिरोही का अधिपति सूरत्राण एवं नागरिक लोगों ने मिलकर सूरिजी का शानदार स्वागत किया। आपके उपदेश से राजा ने मद्य मांस का परित्याग किया। यहां से सूरिजी चलकर नारदपुरी आये, जहां कि आपकी जन्मभूमि थी चाहे जैसी अवस्था में क्यों न हो मगर For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन्मभूमि पर अपना स्वभाविक प्रेम उछलने लग जाता है। कहा है कि "जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" यह लोकोक्ति वास्तविक चरितार्थ है । सूरिजी भी जन्मभूमि को देखकर आनन्दमय हो गये वहां से प्रयाण कर मेड़ता नगर के राजा का सत्कार स्वीकार कर वैराटनगर आदि शहरों में होते हुए लाहोर से छः कोस की दूरी पर लुधियाना नामक शहर में आ पहुँचे । यह समाचार लाहोर के कोने कोने में छा गया कि सूरिजी पधारते हैं। तदनन्तर अकबर बादशाह के मन्त्रियों में से एक अबुलफजल का भाई फायजी (जो दश हजार सेना का अधिपति था) और प्रत्येक नागरिक जन गुरुदर्शन के लिये लुधियाना आये, आगन्तुक भक्तों के साथ सूरिजी पंचकोशी वन में पधारे जहां कि अकबर का महल था, पंचकोशी वन में आये सूरिजी को समझकर भानुचन्द्र जी सशिष्य गुरुचरणों में आये, यहां से सशिष्य विजयसेन सूरिजी लाहोर शहर के पास एक गंज नामक शाखापुर में आ पहुँचे। इधर बादशाह के हुक्म से शहर की सजावट होने लगी और व्याख्यान का पंडाल तैयार होने लगा सूरिजी के आवास स्थान की सजावट अद्भुत चित्र विचित्र मय होने लगी। __ सूरिजो को लेने के लिये अकबर चतुरंगी सेना शाही बाजे एवं राज मान्य बड़े बड़े अफसर सहित मन्त्रियों के साथ जाकर धूमधाम पूर्वक लाहोर नगर में प्रवेश कराते हुए पंडाल में विजयसेन सूरिजी के मुखारबिन्द से मांगलिक प्रवचन सुनने लगे, कुछ समय बाद अकबर के आग्रह से सूरिजी ने भानुचन्द्रजी को उपाध्याय पद से विभूषित किया । पदवी के उपलक्ष में श्री संघ ने बड़ा भारी उत्सव किया जिसमें शेख अबुलफजल ने भी ६०० रुपये दिये और गरीब गुरषों को अन्न वस्त्र देकर संतुष्ट किये। For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन सूरिजी अकबर के दरबार में कितने ही पंडितों को परास्त करते हुए अपनी धवल कीर्ति को चारों ओर फैलाने में उत्कृष्ट १०८ आठ अवधान किये, उन सभा में मारवाड़ के राजा मल्लदेव के पुत्र उदयसिंह, कच्छ के भूपति मानसिंह, खानखाना, शेख, अबुलफजल, आजमखान जालोर के गजनीखान आदि बहुत से बड़े बड़े राजा महाराजा और अफसर लोग उपस्थित थे, नंदीविजय का अद्भूत कला कौशल देखकर चकित होता हुआ बादशाह ने सभा में विजयसेन सूरिजी के समक्ष नंदीविजय को "खुशफ-हेम' की उपाधि से विभूषित किया। एक समय विजयसेन सूरिजी से अकबर ने पूछा कि जगद् गुरुदेव का स्वास्थ्य कैसा है ? किस देश और कौन नगर में बिराजमान हैं ? जनतागण गुरुदेव की भक्ति कैसे करते हैं और मेरे लिये , क्या फरमाया है ? इन प्रश्नों का उत्तर विजयसेन सूरिजी देने लगे हे राजेन्द्र ! आपके साम्राज्य में रहते हुए जगद्गुरु सब तरह से सुख शान्तिमय समय व्यतीत कर रहे हैं एवं सम्प्रति समाधि में लयलीन होकर ईश्वर की उपासना करके प्रभु को प्रसन्न कर रहे हैं, गुजरात के अन्तर्गत राधनपुर नगर में विराजमान हैं जनतागण आपकी भक्ति में रह कर अमूल्य लाभ उठा रहे हैं, आपके लिये सर्व प्रथम धर्मलालात्मक आशीर्वाद देकर फरमाया है कि सब प्राणियों को अपने आत्म तुल्य समझते रहें, एवं धर्म कार्य द्वारा अपने जीवन का विकास करते हुए अपनी प्रजा को प्रजा-संतान ही समझते रहें। सूरिजी की मधुरता,-सरलता, चतुरता और वाकपटुता को देख सुनकर हंसते हुए अकबर ने सभा को हर्षित कर दिया। विजयसेन सूरि आदि सशिष्य हीरसूरिजी के चरणों में अनुरक्त अकबर को देख जैनेतर धर्मावलम्बी सब लोग कहने लगे For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कि अकबर जैनी होगया। अकबर से सम्मानित सूरिजी को निरीक्षण कर ब्राह्मणों के हृदय में बहुत क्रोध उपजा, फिर सूरिजी के प्रति अश्रद्धा पैदा कराने के लिये अकबर को ब्राह्मणों ने कहा हे राजराजेश्वर ! जैनी लोग जगन्नियन्ता निर्विकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नहीं मानते हैं और सृष्टि के कर्ता ईश्वर को नहीं मानते हैं ऐसे अनीश्वरवादी के मतानुसार चलना आप जैसे सम्राटों को श्रेयस्कार नहीं है अतएव हम लोगों की अर्ज है कि आप उनके पंजे में न पड़ कर पहले के जैसा ही वर्ताव करते रहें। ब्राह्मणों के वचन सुनते ही कोपाग्नि से जलते हुए बादशाह ने राजसभा में क्रोधावेश को छिपा कर सूरिजी से कहा कि लोग कहते हैं कि जैनी लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं तो उनके क्रिया कान्ड आदि सब व्यर्थ ही हैं इसलिये आप तात्विक बातें बता कर हृदयस्थध्वान्त को दूर कर दीजिये, वरना अन्योन्याश्रय से मेरा कल्याण होना असम्भव है। विजयसेन सूरिजी ब्राह्मण देवता की फैलाई हुई माया को मन ही मन समझ कर उत्तर देने लगे, हे शाहंशाह ! जो अठारह दूषणों से रहित है, जिस प्रकाशक के सामने सूर्य भी फीका पड़ जाता है और जन्म मरणादि से रहित है, जिसमें विषयों का सर्वथा अभाव है इस प्रकार के जो चिदात्मा अचिन्त्य स्वरूप परमात्मा (ईश्वर) है, ऐसे परमेश्वर को हम लोग मन वचन काया से सादर मानते हैं तो अनीश्वरवादी हम लोग कैसे हुए ? आप स्वयं सोच सकते हैं। क्या उसने हनुमन् नाटक का काव्य नहीं पढ़ा है ? यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मोति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणः पटवः कर्मेति मीमांसका: अर्हन्नित्यथ जैनशासनताः कर्तेति नैयायिकाः सोयं वो विदधातु वांछित फलं त्रैलोक्य नाथः प्रभुः ॥११॥ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमेश्वर को शैव लोग शिव शब्द से, वेदान्ती ब्रह्म शब्द से, बौद्ध बुद्ध शब्द से, मीमांसक कर्म शब्द से, जैनी अर्हन् शब्द से, नैयायिक कर्त्ता शब्द से ईश्वर को पुकारते हैं सचमुच कहा जाय तो ऊपर के श्लोक से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन लोग ईश्वर को मानते ही हैं इस प्रकार सूरिजी के वचन पर दृढ़ विश्वस्त होकर अकबर ने भड़काने वाले ब्राह्मणों को फटकार दिया । एक दिन राजा को अपने महल में प्रसन्न चित्त से बैठा हुआ देख कर समयज्ञ विजयसेन सूरिजी ने कहा कि हे नरदेव ! आपने जैसे दाणी और जजिया कर छोड़ दिया है वैसे ही मृतमनुष्य के द्रव्य को भी छोड़ दीजिये जिससे आप अधिक प्रशंसा के पात्र बनेंगे, लक्ष्मी स्वाभाविक चंचल है फिर असन्मार्ग से आई हुई लक्ष्मी कितने दिन ठहर सकती है ? अतः अवश्य ही छोड़ दीजिये । शुभचिंतक विजयसेन सूरिजी के हित वचन सुन कर अकबर ने मृतमनुष्य के द्रव्य को सर्वदा के लिये तिलान्जली दे दी। बाद बादशाह के आग्रह से लाहोर चातुर्मास करते हुए ३६३ वादियों के साथ वाद-विवाद कर जयपताका को लहराने लगे। उस वक्त बादशाह ने खुश होकर के विजयरोन सूरि को "सवाई" पदवी प्रदान की । इस पदवी के समय अकबर की सभा में १४० विद्वान् थे । जब सवाई पदवी दी गई। तब अकबर ने ५ विद्वानों की मुख्य कमेटी बनाई। जिसमें प्रथम हीरविजय सूरिजी और पांचवें विजयसेन सूरिजी थे । जबकि सवाई विजयसेन सूरिजी लाहोर के भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देते हुए सत्य और अहिंसा के पुजारी बनाते थे। तब जगद् गुरुदेव ने पाटण चौमासा के बाद सकल दुरित को ध्वंस करने वाली, मनवांछित फल को देने वाली, श्री सिद्धाचल (शत्रुंजय) तीर्थ की For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यात्रा करने के लिये विहार किया, किन्तु बीच में राधनपुर, पालनपुर, अहमदाबाद होकर के खंभात पधारे । मेघजी पारेण के आग्रह से नव निर्मित मन्दिर की प्रतिष्ठा शानदार उत्सव के साथ जगद्गुरु के करकमलों द्वारा की गई। यहां पर एक मण अन्न एक ही टाईम में खाने वाला बड़ा पुष्ट शरीरवाला सुलतान हबीबुला नामक एक खोजी रहता था। वह बड़ा कामी एवं पूरा लोभी था। किसी कारण से सूरिजी का अपमान करके नगर बाहर निकाल दिया। सारी जैनी समाज में हाहाकार मच गया। सूरिजी के मन में तो कुछ भी विचार पादुर्भाव नहीं हुए। परन्तु भावी में साधुओं को तकलीफ न हो इनके लिये प्रतीकार करना जरूरी समझ कर धनविजय नामक शिष्य को अकबर के पास भेजा। वहां जाकर के उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी द्वारा अकबर को सब कुछ घटना कह सुनाई । सुनते ही अकबर की भृकुटी चढ़ गई और क्रोधावेश में आते ही हुक्म लिख दिया कि हीरविजय सूरिजी की बुराई (अपमान) करने वालों को मार दिया जाय । इस प्रकार का फरमान लिख कर धनविजय के साथ अपने कर्मचारियों को भेज दिये । धनविजय ने गुरु सेवा में पहुँचते ही सब बातें निवेदन करते हुए कर्मचारियों के सामने फरमान उपस्थित कर दिये । इस प्रकार का फरमान लेकर कर्मचारी अकबर की आज्ञा से सूरिजी के पास पहुँच गये हैं। यह बात हबीबुला को मालूम हुई। अनर्थ हुआ कि मेरे लिये अकबर ने प्राणान्त आज्ञा दे दी है अब क्या करू ? किधर जाऊ! किंकर्तव्यमूढ होकर सूरिजी के चरणों में ही जाना उचित समझा। चूकि अकबर के प्राणान्त हुक्म को वापिस लौटा देने की शक्ति सूरिजी में है। ये चाहेंगे तो मुझे बचा देंगे। ऐसा अंतःकरण में खूब सोच कर मिलने के हेतु सूरिजी के चरणों में पा पड़ा और कहने लगा कि महाराज ! मैंने आपका अपमान कर For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुत ही बुरा किया। मेरे अपराध को क्षमा कर आप हाथी घोड़ा चतुरंगी सेना आदि चीजों को स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें। क्योंकि श्राप परोपकारी एवं दयालु हैं। सब जीवों के त्राता हैं अतः मेरे एक अपराध को क्षमा कर अकबर के हुक्म को लौटा देना आपके ही ऊपर आधार है। मैं आज से खुदा की शपथ पूर्वक कहता हूँ कि आयंदा कोई भी महात्मा का कभी अपमान नहीं करूंगा और आप नगर में पधारें। सूरिजी ने कहा कि सुल्तानजी ! देखिये यह नगर आपका है और मेरा आपने अपमान किया। फिर भी आप मुझे आमन्त्रण दे रहे हैं इसलिये मैं चलने के लिये तैयार हूँ। क्यों कि मेरे हृदय में आपके प्रति बुरे विचार नहीं हैं अगर हो तो मैं आपके नगर में आऊंगा क्यों ? यह तो आप खुद ही विचार कर सकते हैं। अकबर का हुक्म तो प्राणान्त आगया। परन्तु मैं आपको कहता हूँ कि आप निश्चित अपना राज्य पालन करें। किन्तु किसी भी साधु का तिरस्कार कभी मत करना और अपनी प्रजा को शान्ति से पालन करना । हबीबुला को ऐसा कहकर सूरिजी शिष्य सहित उपाश्रय में पधार गये। हबीबुला भी अपनी राजधानी में चला गया ।। ___एक समय सूरिजी मुहपत्ति मुंह के ऊपर बांध कर व्याख्यान पढ़ रहे थे जिसमें हबीबुला भी शामिल था। प्रवचन के अंत में हबीबुला ने पूछा कि जगद् गुरो! आप मुख पर कपड़ा क्यों बांधते हैं ? सूरिजी ने कहा कि व्याख्यान पढ़ते समय मेरे मुख से थूक पुस्तक पर कदाचित् पड़ जाय तो ज्ञान की अशातना होती है। इस लिये कपड़ा रखने से दोष नहीं लगता है। पुनः हबीबुला ने पूछा कि महाराज ! क्या थूक नापाक है ? सूरिजी ने कहा कि जब तक मुंह में है तब तक पाक है और बाहर निकलने के बाद नापाक है। जगद् गुरुदेव के माधुर्य वचन सुनकर मुग्ध भाव से प्रार्थना करने लगा कि महाराज ! मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाईये। इस पर For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिजी ने कैदियों को सर्वदा के लिये मुक्त करवा दिये और दारु मांस एवं परस्त्री गमन सर्वथा बंद करवा दिया। साथ ही साथ समस्त नगर में कोई जीव हिंसा न करे इसके लिये अभारी पटह बजवा दिया। हबीबुला भी उपरोक्त कार्य करता हुआ अपनी राज्य लक्ष्मी का सव्यय करता हुआ न्याय नीति से प्रजा का पालन करता हुआ अपने को धन्य धन्य समझने लगा। एक समय का जिक्र है कि सामल सागरजी को जगद् गुरुदेव ने गच्छ से बाहर कर दिया था। सागल सागरजी एक गांव गये। इधर जगद् गुरुदेव भी परिभ्रमण करते हुए यहां पर ही आ पहुँचे। उस वक्त सामल सागरजी गुरुदेव के पास में जाकर के कहने लगे गुरुदेव! मेरी जो कुछ गल्ती हई। उसको माफ कर दीजिये और कृपा करके वापिस समुदाय में ले लीजिये । आयन्दा आज्ञा का पालन करूगा। ऐसा कहने पर भी गुरुदेव ने सामील नहीं लिया। तब इसने सोचा कि गुरुदेव मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार करते हैं, तो काशिमखान की बात जरूर मान लेंगे। ऐसा विचार कर नगराधीश काशिमखान को सब कुछ घटना कह सुनाई। इस पर काशिमखान ने सूरिजी को राजमहल में बुलाने के लिये आमंत्रण भेजा । गुरुदेव भी निडरता पूर्वक पहुँचे । राजभवन में लम्बे समय तक धर्म चर्चा के अन्त में जीवहिंसा तथा दारु मांस आदि का सर्वथा परित्याग करवाया। काशिमखान ने कहा कि महाराज! आपके आदेशानुसार मैंने प्रतिज्ञा की है तो एक बात मेरी भी मान लीजिये, गुरुदेव ने उत्तर में कहा कि खुशी से कहिये । अवश्य कहिये, इस पर उसने कहा कि आपही का शिष्य सामलसागरजी को वापिस गच्छ में लेकर के कृतार्थ करें। गुरुदेव ने कहा कि खां साहेब ! आप जानते हैं कि हम लोग शिष्य के लिये सैंकड़ों कोश तक पहुँच जाते हैं। किन्तु क्या किया जाय ? यह मेरी आज्ञा नहीं मानता और अपनी इच्छा के अनुसार परिभ्रमण करता है । इसलिये मुझे अगत्या छोड़ना पड़ा । आप ही कहिये कि For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EL भापका लड़का प्राज्ञा न माने तो क्या उसके लिये श्राप उपाय न सोचें ? काशिमखान ने सामलसागरजी को संकेत द्वारा बुला करके सूरिजी के चरणों में सुपुर्द करते हुए कहा कि गुरुदेव की आज्ञा पूरी तरह पालन करना, यह तुम्हारे लिये कल्याणकारी मार्ग है। मेरे अनुरोध से वापिस गच्छ में ले रहे हैं फिर भी ऐसा करोगे तो आपका कोई सहायक नहीं होगा। इस प्रकार बातचीत करके गुरुदेव को धामधूम पूर्वक पुनः धर्मशाला में पहुँचा दिये। पाठक ! आपने समझ लिया होगा कि उस समय समुदाय की कैसी मर्यादा थी ? अगर वैसी वर्तमान में हो जाय तो क्या साधु समाज उन्नति पथ पर नहीं पहुंच सकता । शासनदेव सबको सद्बुद्धि दे। सूरिश्वर ने अहमदाबाद का सुवेदार आजमखान, पाटण का सूबेदार कासिमखान आदि बड़े बड़े राजा महाराजाओं को अपनी प्रोजस्वी भाषा में उपदेश देकर सच्चे अहिंसा के पुजारी बनाये । एवं मांस मदिरा, परस्त्री का जीवन पर्यन्त परित्याग करवाया। अपूर्व प्रभावशाली सूरिजी के सामने जब भारतवर्ष का सर्वेसर्वा अकबर बादशाह झुक चुका था। तो छोटे बड़े राजाओं का तो कहना ही क्या था ? इस प्रकार उपदेश द्वारा संसार में अहिंसा की भागीरथी बहाने वाले यही सूरिजी हुए हैं। खंभात में कुछ दिन ठहर करके विहार कर अनेक गांवों में घूमते हुए सं० १६४६ में फाल्गुन मास में तीर्थ स्थान पर पहुँच गये। आपके पहुँचने के पूर्व ही समाचार पाकर मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, दक्षिण, बंगाल, कच्छ आदि प्रदेशों के करीब तीन लाख मनुष्य इकट्ठे हो गये । पहले इतने मनुष्यों का जत्था एक साथ होना असम्भव था क्योंकि यात्रियों से कर लिया जाता था। अब शासन सम्राट जगद् गुरुदेव की देशना से मुगल सम्राट अकबर ने यात्रियों का कर माफ कर दिया। जिससे यात्री अधिक संख्या में उपस्थित हुए। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ఓం Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगत गुरुदेव की तीर्थ यात्रा व ७२ संघपति फतहपुर, पाटण, अहमदाबाद, मालवकेश, मेवाड़, मेवाति, मेड़ता, आगरा, जैसलमेर, विसलपुर, सिद्धपुर, महेसाणा, इडर, श्रहिमतनगर, साबली, कपडवंज, मातर, सोजीतरा, सुन्दर, नडियाद, वडनगर, डालूनि, कडी, भरुच, भगवा, रानेरा, घोघा, नवानगर, मांगरोल, वेलाउल, देवगिरी, विजापुरी, वइराट, नंदबार, सिरोही, महिमदाबाद, वडोदरा, बाजु, आमोद, सिनोर, जन्न, जम्बुसर, केरवाडु, मथुरा, गंधार, सूरत, कडा, धोलका, वीरमगाम, जूनागढ़, कालावाड, नवानगर, राधनपुर, नाडलाई, वागडिया, वडली, कुरणागिरि, प्रांतीज, महीअज, पेथापुरी, बोरसद, वाघट, मगशुदाबाद, कुंभलमेर, फलोधी, आबू, लाहोर, उनादीव, मालपुर । जब जगद्गुरु शत्रुंजय तीर्थ पर पधारे तब उपरोक्त नगरों के संघपति संघ लेकर के आये कुल तीन लाख मानव मेदिनी जमा हुई ७२ संघपति को संघमाल एक ही साथ पहनाई गई गांव की नामावली हीरसूरि रास के अनुसार लिखी गई है । तीर्थ पर शाह तेजपाल, शाह रामाजी, शाह कुबेरजी जसु ठकुर जी और शेठ मूला शाह इन पांचों धनिकों के द्वारा बनाये हुए पांच विशाल जैन मंदिरां की प्रतिष्ठा दो सहस्र मुनियों से समन्वित विबुध शिरोमणि जगद् गुरुदेव श्री मद्विजय हीर सूरिश्वरजी महाराज के कर कमलों द्वारा की गई। इस समय आई हुई जनता आनंद सागर में मीनवत् कल्लोलें करने लगी । इस समय एक डामुर नामक शेठ ने गुरुवंदन करके ७ हजार रुपये गुरुचरणों में भेंट कर वासक्षेप करवाया । रामजी २२ वर्ष की अवस्था में पति पत्नी ने, संघत्री ककुशेठ आदि ५३ व्यक्तियों के साथ ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया इस वक्त आये हुए भक्तों ने अपने अपने For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गांव में पधारने के लिये एवं चौमासा के लिए जोरदार विनती की। परंतु उना संघ की विनती को स्वीकार की गई। ___ कुछ दिन के बाद विहार करते हुए जगद् गुरुदेव श्री संघ के साथ उन्नतपुरी (उना) में पधारकर श्री श्रीमाल ज्ञातीय शाहबकोर को दीक्षा देकर के चातुर्मास का समय धर्मोपदेश द्वारा यापन करने लगे जनता का पवित्र अंतःकरण तप जप ध्यान गुरु सेवा आदि धर्म कार्यों में दिनानुदिन अधिकतर बढ़ने लगा, जगद् गुरुदेव के प्रताप से जैन जगत् में ही नहीं इस पूत भारत में अहिंसा देवी की निरंतर पूजा होने लगी। प्रिय पाठक ! पूज्य गुरुदेव का अमूल्य समय अहर्निश तपोमय ही व्यतीत हुअा। क्योंकि आप से की हुई तपस्या का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है। तेले २२५ । बेले १८० उपपास ३६०० । पाम्बिल २०००। नीवी २००० । वीश स्थानक की तपस्या बीस वार। ग्यारह महीने का प्रतिमा तप । सूरिमंत्र श्राराधन तप। तथा विजय दान सूरिजी के देव लोक हो जाने पर भक्ति के निमित्त उपवास, आम्बिल, एकासणा, १३ मास तक कमसर, तथा चार करोड़ सज्जाय, एवं दशवकालिक नित्य जपना, और इनके अलावा ध्यान में कितना समय जाता था वह ज्ञानी गम्य है। जगद्गुरुदेव ने अपने जीवन में अपने हाथ से ५० से ऊपर प्रतिष्ठा करवाई । ५०० जिन मन्दिर नूतन बनवाये, और १५०० सौ छोटे बड़े संघ निकलवाये। आपके आज्ञाकारी साधु २५० थे। जिस में एक प्राचार्य । ८ उपाध्याय । १६० पन्डित (पन्यास) शेष मुनि (बिना पदवी के) थे। साध्वी लगभग पांच हजार सुनी जाती है। इतना साम्राज्य होने पर भी गर्व का नाम मात्र भी नहीं था और प्राणियों के हित के लिये कितना कठोर-उग्र विहार किया है वह सब आप के सामने ही है। For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर एक समय की बात है कि गुरुदेव असाध्य रोग रूपी काल के गाल में पड़ गये । उस समय विहार की शक्ति न होने पर दूसरा चौमासा भी यहीं करना पड़ा । गुरुदेव का स्वास्थ्य प्रतिकूल सुनकर जामनगर के जाम साहब का मुख्य वजीर अबजी भरणशाली सुख साता पूछने एवं वंदन के लिये आये थे उन्होंने गुरुदेव की सौनेया से नव अंग पूजा करके एक लाख का अंग लुछा किया। और अनेक याचक वर्गों दान देकर संतुष्ट किये । I पूज्यपाद जगद् गुरुदेव श्री मद्विजय हीर सूरिश्वरजी महाराज के उपदेश से तथा दिये गये मुहुर्त में जामनगर के शेठ (आदीश्वर भगवान के मन्दिर का शिलान्यास शेठ श्री अबजी भरणशाली के हाथ से आचार्य देव श्री मदविजय सेन सूरिजी महाराज की अध्यक्षता में किया गया और प्रतिष्ठा आप के पट्टधर आचार्य देव श्री मद्विजय देव सूरिजी महाराज के कर कमलों द्वारा की गई । अबजी भणशाली के वंशज नगर शेठ डाह्या कमलशी के परिवार में आज भी शेठ प्रजाराम भाई आदि विशाल कुटुम्ब विद्यमान है । जब उना में जगद् गुरु बीमारी में ग्रस्त हो गये थे तब भी औषध का सेवन नहीं किया । इन पर श्री संघ ने सत्याग्रह करके कहा कि अगर आप औषधि नहीं लेंगे तो हम लोग आज से अन्न पानी त्याग कर देंगे । और स्तनपान भी माता बच्चे को नहीं देगी । इस प्रकार अटल भक्ति संघ की देख कर गुरुदेव ने औषध सेवन करना स्वीकार किया । एक दिन का जिक्र है कि गोचरी में खीचड़ी लाये थे गुरुदेव ने नको उपयोग में ली । थोड़ी देर के बाद जब उस भक्त को मालूम पड़ती है कि खीचड़ी में खारा अधिक पड़ गया है दौड़ता हुआ उपाश्रय में आकर के कहता है कि गुरुदेव ! आज गलती हुई कि खोचड़ी For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में लूण अधिक पड़ गया। इसलिये जगद् गुरुदेव को नहीं वपराना। परंतु जगद् गुरुदेव तो पहले वापर बैठ गये थे । इतनी खारी खीचड़ी होने पर भी गुरुदेव ने एक भी शब्द शिष्य को नहीं कहा। जिव्हा पर कितना गुरुदेव ने काबू कर रखा ? कहने का तात्पर्य यह है कि रस नीरस जैसा तैसा मिलता, उससे ही अपना निर्वाह कर लेते थे। परंतु किसी को कहते नहीं ! इस पर शिष्य वर्ग बहुत घबराये कि गुरुदेव की तबियत अधिक बिगड़ जायगी। चिन्ता करने लगे। तब जगद् गुरुदेव ने आश्वासन भरे शब्दों में कहा कि चिन्ता न करो। मेरा स्वास्थ्य इस से नहीं बिगड़ेगा और सुधरेगा। उत्तरोत्तर गुरुदेव का शरीर जीर्ण शीर्ण होता हुआ देख कर श्री संघ ने श्री विजयसेन सूरिजी को सूचना भेज दी कि आप जल्दी पधारिये। क्योंकि जगद् गुरुदेव का स्वास्थ्य दिनानुदिन अधिक बिगड़ता जा रहा है। उस समय विजयसेन सूरिजी लाहोर से विहार कर महिम नगर में चौमासा के उद्देश से आ रहे थे इतने में उन्ना का पत्र मिला पत्र द्वारा समाचार जानकर महिमनगर में चातुर्मास न कर अतिशीघ्र चलते हुए पाटण आ पहुँचे कि चातुर्मास लागू हो गया जिससे आप विवश होकर वहीं बैठ गये, किन्तु आपका मन गुरुभक्ति में चला गया था केवल यहां पर शरीर मात्र ही था, अतएव आपके लिये चार मास निकालना चार युग सा हो गया। ___अब क्रमशः पर्युषण पर्व आ गया सूरिजी कल्पसूत्र सुनाने लगे गुरुदेव की कृपा से पर्व निर्विघ्नपूर्वक निकल गया, संवत्सरी को परस्पर खमत खामणा करके विजयसेन सूरिजी अपने प्रिय भक्तों को पत्र देने लगे, जिसमें एक पत्र अकबर के नाम से लिख कर श्रावक द्वारा भेजा। अपने गुरुदेव को सुख साता एवं वन्दना के लिये एक श्रावक मन्डली भेज दी। For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ इधर सूरिजी का पत्र लेकर श्रावक अकबर के दरबार में पहुँचा उस समय अकबर की सवारी घूमने के लिये बाहर निकल रही थी इसलिये पत्र न देकर सवारी के पीछे वह भी चलने लगा । कुछ दूर जाने पर एक तलाब में मछलियों का शिकार करते हुए एक मनुष्य को अकबर ने देखते ही उसे बुला कर मीठे मीठे शब्दों में समझाने लगा हे वत्स ! तुझे मछली आदि शिकारों का बहुत शौक है लेकिन निष्कारण निरपराधी जीव हिंसा से अपनी आत्मा को तृप्ति करना मुनासिब नहीं है । जीव प्राणीमात्र में समान है सुख दुःख का अनुभव सब प्राणियों को अपने जैसा ही हुआ करता है । अस्तु ! यदि इस बात पर आस्था नहीं हो तो निरपराधी साधारण जीवों की हिंसा छोड़ कर मेरे देहस्थ मांस से ही अपनी लालसा पूर्ति किया कर । दूसरी बात पर्युषण के पर्व में किसी प्रकार की जीव हिंसा करना सख्त मना है । यह बात जग जाहिर है क्या तूने नहीं सुनी है ? I शिकारी मन ही मन सोचने लगा कि प्रथम तो मैं नियम भंग का दंडी हूँ और दूसरा मधुर शब्दों से समझा रहा है इस पर भी अगर मैंने शिकार नहीं छोड़ा तो मेरा जैसा अधम दूसरा कौन होगा ? ऐसा विचार कर उसने कहा कि हे जहांपना ! आपके हुक्म को उल्लंघन कर मैं कलंक का पात्र बना हूँ आपने अपना शरीर मेरे भोजन के लिये देना चाहा इससे तो मैं मृतप्रायः हो गया । विशेष आपसे न बोल कर आज से यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरे जीवन में कदापि जीव हिंसा नहीं करूंगा इस पर बादशाह धन्यवाद देकर आगे बढ़ गये । यहां के सब तृत्तान्त देख सुनकर आया हुआ श्रावक क्षुब्द होकर राजसवारी के साथ दरबार में आकर पत्र नजराने कर कहने लगा हजूर ! यह पत्र विजयसेन सूरिजी ने भेजा है । अकबर बादशाह पत्र पढ़कर जगद् गुरुदेव की हालत खराब समझ कर असीम चिंता सागर में डूबे हुए बहुत समय तक मौन रह गये और जगद् गुरुदेव के दर्शनार्थ जाने के लिये भावना करने लगे । For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ इधर उन्ना नगर में जगद्गुरु श्रीमद्विजय हीर सूरीश्वरजी महाराज अपना अन्त समय जान कर चौरासी लाख जीवायोनियों के साथ क्षमापन करते हुए चार शरणा (अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली भाषित धर्म) को स्वीकार करके अपने मंडल को एवं श्रद्धालु श्रावकों को एकत्रित करके अंतिम उपदेश देने लगे। हे श्रद्धालु मुनिगण! एवं भक्त श्रावकगण! अब थोड़े ही समय में मेरी मत्यु होने वाली है इससे मुझे चिन्ता नहीं है क्योंकि मरण का भय नाश करने के लिये तीर्थङ्कर जैसे महापुरुष भी समर्थ नहीं हुए, कहा भी है कि तित्थयरा गण हारी, सुखबईणो चक्कि केसवा रामा संहरिया हय विहिणा, का गणणा इयर लोगाण ॥१॥ जब तीर्थङ्कर गणधर देवता चक्रवर्ती के राव राम आदि सभी इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, तब इतर लोगों का तो कहना ही क्या है ? हे भव्यात्मन् ! आप लोगों को भी अपने अपने संयम की आराधना में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है कि पट्टधर विजयसेन सूरि मेरे स्थान पर मौजूद है। धीर वीर गम्भीर वह आचार्य तुम्हारे जैसे पंडितों द्वारा मुख्य कर सेवनीय है। सर्वदा उनकी आज्ञा पालन करते हुए परस्पर प्रेम भाव से रह कर परमात्मा वीर के शासन की उन्नति करने में कटिबद्ध रहना। इस पर साधु और श्रावक दोनों ने तथास्तु कहते हुए आपके वचनों को सादर स्वीकार किया। इस प्रकार सबको सावधान करके पंच परमेष्ठी की साक्षी पूर्वक अनशन करके मोक्ष सुख को देने वाला नमस्कार महा मन्त्र का ध्यान धरते हुए मन वचन और काया के पवित्र योगों से आत्म निन्दा के साथ प्राणी मात्र से मैत्री भाव बढ़ाते हुए जगद् गुरु निबन्ध नायक सं० १६५२ भाद्रपद शुक्ला एकादशी गुरुवार के दिन भव सम्बन्धी For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औदारिक शरीर को छोड़ कर देव लोक सिधार गये। केवल जैन संसार में ही नहीं बल्कि सारे जगत में शोक छा गया। "गुरुदेव का चोमासा" पाटण ८ : खम्भात ७ : अहमदाबाद ६ : सिरोही २ : सांचोर २ : अभिरामबाद १ : आगरा २ : फतहपुर सीकरी १ : कुणगिरि १: महसाणा १ : सोजीतरा १ : आमोद १ : कावी १ : गंधार २: राधनपुर १: दिल्ली १ : लाहोर १ : मेड़ता १ : जालोर १: स्तम्भनतीथे १: मगशुदाबाद १ : इलाहाबाद १ : मथुरा १ : मालपुरा १ : नागोर १ : सूरत १ : आबू १: फलोधी १: राणकपुर १: नाडलाई १ : बोरसद १ : पालीताणा १ : उनादीव १ : दूसरे चौमासे में भादरवा शुद ११ को स्वर्गवासी हुए। जगद् गुरुदेव के जीवन में उपरोक्त गांवों में चौमासा हुए ऐसा हीर सूरि रास द्वारा यहां उद्धृत किया है परन्तु इस में अनुक्रम से नहीं है । जैसे था वैसे ही मैंने लिखा है अतः पाठक ! दूसरा विचार न करें। आपके समीपस्थ शिष्य मन्डल और श्रावक आदि मूर्छामय होकर फूट फूटकर रोने लगे। कुछ देर के बाद गुरु वचनामृत का स्मरण कर धीरता धारण करते हुए श्रावक गण संगठित होकर मृत शरीर को चंदनादि अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से विलेपन कर एक सुन्दर विशाला नामक शिबिका में बैठा कर अग्नि संस्कार भूमि पर ले जाकर के चन्दन श्रीफल और गौ घृत से दाह क्रिया करने लगे । श्मशान भूमि से लौट करके स्नानोत्तर उपाश्रय आकर शान्ति का पाठ श्रवण पूर्वक अपने अपने घर चले गये। सदनन्तर सब वापिस इकट्ठे होकर शासन नायक के स्वर्ग गमन का समाचार पत्र तथा संदेश द्वारा गामोगाम भेजे एवं विजयसेन For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ सूरिजी के पास पाटण नगर में दुःखप्रद समाचार पहुंचा, वे पत्र पढ़ने लगे तो उनका एवं अनुयायियों का हृदय कम्पायमान होकर शोक सागर में डूब गया, शोकातुर पट्टधर सेनसूरिजी सखेद गद्गद् वाणी से बोलने लगे हे गुरुदेव ! मुझे बिना दर्शन दिये ही आप कहां पधार गये ? श्राप मेरे मुकुटालंकार थे, दया सागर की सेवा निमित्त ही लाहौर से चला था किन्तु अभाग्यवश दर्शन न पा सका, आपने मेरे लिये थोड़ा सा भी विलम्ब नहीं किया मेरे मन की बात मन में ही रह गई, हे मेरे भगवान! आप जैसे सूत्रधार के बिना हम लोग किस आधार पर खड़े रहेंगे ? अपनी आत्म कथा किसे सुनाऊंगा ? किसको गुरुदेव शब्द से पुकारूंगा ? किसकी आज्ञा माला पहनूंगा, हे प्रभो ! अब आप जैसे दिवाकर के बिना मेरे हृदय गगन में कौन चमकेगा ? और अकबर जैसे कठोर हृदय को कौन पिघलावेगा ? गुरुदेव के बिना कौन उपदेशामृत की वर्षा करेगा ? इस भारत के प्राणियों को दुराचार से कौन बचावेगा । अहिंसा देवी की पूजा कौन करेगा। हे गुरो ! आज आपके परलोक सिधार जाने से धीरता का कौन आधार होगा ? विनय का कौन शरण होगा ? सत्य आज सचमुच मारा गया, करुणा बेचारी अब किसकी शरण में जायगी ? शान्ति को कौन धारण कर सकेगा ? क्षमा बेचारी फूट फूट कर रो रही है, संयम का साथी कौन बनेगा ? हे शासन शिरोमणे! आप अमर अजर हो गये, क्यों कि असंख्य जीवों की रक्षा के साथ पुण्य तीर्थ और जजिया आदि के कर मोचन करवाया है आपकी अमर कीर्तिलता जब तक सूर्य चन्द्र है तब तक बनी रहेगी। अतएव सविनय प्रार्थना है कि जो भव्य जीव आपको सच्चे हृदय से पुकारे उनके लिये मनोवांछित फल की पूर्ति करते रहें। इधर अकबर के पास में भी जगद्गुरु के देहावसान का पत्र श्रा पहुँचा, पत्र पढ़ते ही अत्यन्त दुःखमय होकर सारे राज्य में हड़ For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताल की उद्घोषणा करवा दी और अपने दरबार में नाच गान आदि सब बन्द करवा दिया, और अग्नि संस्कार के लिये चौरासी बीघा जमीन भेंट कर सच्ची श्रद्धान्जलि अकबर ने दी । जिस रात्रि में हीरसूरिजी स्वर्गवासी हुए उसी रात्रि की चौथी पहर में अकबर को स्वप्न में साधु वेष में ही दर्शन देते हैं, क्योंकि पहले अकबर से मुलाकात के समय वचन दिया था कि मैं देवलोक में जाऊंगा तो अवश्य तुम से मिलूंगा । स्वप्न में अकबर को कहते हैं कि मैं सुधर्मा नामक देवलोक में पार्श्वनामक विमान में गया हूँ । अकबर इस स्वप्न की सूचना राजसभा में करता है और खुशीयाली मनाता है । हीरसूरिजी का अन्तिम अग्नि संस्कार जहां किया वहां पर उसी रात्रि में देवता अपूर्व देव सम्बन्धी नाटक करते हैं उन की ध्वनि नगर में पहुँचती है । नगर के हजारों लोग ध्वनि के अनुसार कौतुक देखने जाते हैं तो वास्तविक रूप में नाटक देख अपने घर लौटते हैं इस नाटक की बात चारों दिशाओं में पवनवेगवत् फैल गई और उस दिन से उस स्थान की महत्ता और अधिक बढ़ गई । जिस रात्रि में नाटक हुआ उसी रात्रि के प्रथम प्रहर में ४ ब्राह्मण नगर के बाहर तलाब की तट पर जाप कर रहे थे, उस समय आकाश में देवताओं को परस्पर बातचीत करते हुए, जाते देख कान लगा कर सुनने लगे | जल्दी चलो जल्दी चलो श्री होरसूरि का मुख देखने के लिये जल्दी चलो। इस तरह की बातें करते हुए जा रहे थे 1 ब्राह्मणों ने इस घटना को सारे गांव में कह सुनाई और इधर से भी लोग नाटक देख आये थे। लोगों में हर्ष का पारावार न रहा । न संस्कार की जगह पर रहा हुआ बांझ आम भी उस रात्रि में फलीभूत हो गया, सब लोगों ने श्रम का फल खाया, और अकबर For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के पास भी आम भेजे । बिना ऋतु के आम फल पाकर बादशाह असीम हर्ष में डूब गया और उस आम की केरिये अकबर के अलावा भी उन उन देशों में भेजी गई जहां कि गुरुदेव ने पवित्र चरण कमल रखे थे । गुरुदेव तो स्वर्ग में जा बैठे परन्तु कीर्तिलता पृथ्वीतल पर विशेष रूप से फैल गई। अग्नि संस्कार की जमीन पर मेघ नाम पारिख ने लाडकी नामक अपनी भार्या के नाम से "लाडकी स्तूप" सुन्दर मनोहर एवं विशाल बनाकर गुरुदेव की चरण पादुकाएं स्थापित की । उन पादुका की पूजा भक्ति एवं दर्शन वंदन करने के लिये हजारों नरनारी आने लगे। उस दिन से लगा कर आज दिन पर्यन्त दर्शनार्थ आते जाते हैं। यह सब गुरुदेव के निर्मल चारित्र का प्रभाव है। अगर आज भी परिणाम शुद्धि से निरतिचार पूर्वक चारित्र पालन किया जाय तो देवलोक सुनिश्चित ही है। विशेष बाबु पाटण स्तम्भनतीर्थ राजनगर अहमदाबाद सूरत हैदराबाद आगरा 'महुआ मालपुर पतन सांगानेर जयपुर आदि शहरों में हीर विहार (हीर मन्दिर) देखा जाता है। इस मन्दिर में प्रतिष्ठित शासन सम्राट की चमत्कारिक प्रतिमा की श्रद्धा पूर्वक पूजा भक्ति करने वालों का दुःख दारिद्र दूर हो जाता है और वह पुरुष लक्ष्मीपात्र एवं विजयी बन जाता है। विजयसेन सूरिजी साधु मन्डल और श्रावक समुदाय की उदासीनता को देखकर अमिट शोक को अगत्या मिटाते हुए भव्य जीवों को आश्वासन देने लगे, चातुर्मास पूर्ण होते ही शासन का सारा भार अपने स्कंधों पर वहन करते हुए भाग्यशालियों को धर्मोपदेश देते हुए भूमन्डल को पावन करने लगे प्रिय पाठक ! विश्वोपकारी शासन चूड़ामणि सूरि पूङ गव जगद् गुरु देव जैसे महापुरुष आज दिन तक संसार में होते तो न For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मालूम कितना उपकार करते ? यह अनिर्वचनीय है, अंत में सविनय यही प्रार्थना है कि छिद्रान्वेषण को परित्याग करते हुए गुण के पक्षपाती होकर महावीर स्वामी के परम्परागत विजय हीरसूरि जी आदि महापुरुषों से उपदिष्ट प्राप्त वचन पर अटल विश्वास रख कर अपनी आत्मा को ज्ञान ज्योति में लवलीन करते हुए अवश्य आत्म कल्याण करें । हमें सोचना चाहिये कि जब यवन जाति अकबर भी हीर वचनामृत पान करके सदैव के लिये अमर सा बन गया तो हमसे क्या आलस्य है ? हम स्वयं पूर्व उपार्जित कर्मों से पूत हैं एवं उच्च शिखर की सीढ़ी पर प्रारूढ़ हैं। __ मैं आशा रखता हूँ कि वर्तमान स्वतन्त्र भारत के अनुसार आधुनिक उपदेशक श्राचार्य एवं शिक्षक श्रादि भी ममत्वपनाको मिटा कर अहिंसोपासक जगद् गुरुदेव का अनुकरण करते हुए भेदभाव को भी अक्षरशः मिटाते हुए वास्तविक उन्नति के शिखर पर चढ़ेंगे। अन्यथा भारत की उन्नति के बजाय अपनी आत्मा की भी उन्नति आकाश कुसुम के जैसी परम असम्भव होगी। इष्टदेव हमें सद्बुद्धि प्रदान करें। ताकि हम अनुपम सुख प्राप्त कर सकें। ॐ शान्तिः !!! जय हीर ! ! ! श्री हिमाचलान्तेवासिमुमुक्षु भव्यानंद विजय-(व्याकरण साहित्य रत्न) For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ वन्दे श्री हीरजगद् गुरुम् ॥ मुनिराज श्री दर्शन विजयजी (त्रिपुटी) कृत जगद् गुरु शासन सम्राट अकबर प्रतिबोधक श्री मद्विजय हीरसूरीश्वरजी की बडी पूजा प्रथम जल पूजा -:दोहा :जय जय सुमति जिणदजी, जय सुपार्श्व जिणंद । जय जय श्रादीश्वर प्रभो, जय जय पार्श्वजिणंद ।। जय सूरि वाचक मुनि, जिन शासन शणगार । जय गुरु हीर सूरीश्वरा, युग प्रधान अवतार ।२। जय चारित्र विजय गुरु, चरण में शीष नमाय।। जग गुरु की पूजा रचू, सब ही को सुखदाय (३। ( ढाल १) ( तर्ज-पासो २ आदीश्वर बाबा, ग्रहो इक्षु रसदान) श्रावो आवो ओ प्यारे सज्जन, करो गुरू गुण गान ॥टेर।। महावीर के पाट परम्पर, हुए श्री युग प्रधान । वचन सिद्ध और उग्र तपस्वी, जगच्चन्द्र सूरि जाण आवो ॥१॥ जिनके चरण में शीष झुकावे, मेद पाट का राण । तपा तपा कहके बुलावे, जैत्रसिंह बलवान ॥२॥ श्री देवेन्द्र सूरीश्वर त्यागी, देव पूज्य श्रुतवान । कर्म ग्रन्थ आदि शास्त्रों का, किया जिनने निरमाण ॥३॥ दादा साहेब धर्म घोष सूरि, त्यागी युग प्रधान । महामंत्र वादी व प्रभाविक, हुए धर्म के प्राण ॥४॥ देवपत्तन में मंत्र पदों से, सागर रत्न प्रधान । गुरु के चरणों में उच्छाले, रत्न ढेर को श्रान ॥शा For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ निर्धन पेथड जिनकी कृपा से, बने बड़ा दिवान । शासन का झंडा फहरावे, गुरु कृपा बलवान ॥६॥ जिनके वचन से यक्ष कपर्दी, छोड़े मांस बलिदान । सेवक होकर शत्रुजय पर, पावे अपना स्थान ॥७॥ जोगणियों ने कारमण कीना, चहा मुनियों का प्राण । उनको पाटे पर चिपटा कर, दिया गुरु ने ज्ञान ||८|| गुरु के कंठ को मंत्र से बांधा, यु ली उनसे वाण । तपगच्छ को उपद्रव नहीं करना, स्थंभित कर अज्ञान ॥६॥ एक योगी चूहे के द्वारा, करे गच्छ को परेशान । उसके उपद्रव को हटाया, पाया बहु सन्मान ।।१०।। रात में गुरु का पाट उठावे, गोधरा शाकिनी जाण । उनसे भी तब मुनि रक्षा का, लीना वचन प्रमाण ।।११।। सांप काटते कहा संघ से, अपना भविष्य ज्ञान । संघ ने भी वह जड़ी लगाई, हुए गुरु सावधान ॥१२॥ भस्म ग्रह की अवधि होते, शासन के सुल्तान । आनंद विमल गुरु जिन्हों को, नमे राज सुर त्राण ||१४|| क्रियोद्धार से मुनि पंथ को, उद्धरे युग प्रधान । ज्ञान कृपा से दूर हटावे, कुमति का उफाण ।। आ ॥१४॥ जेसलमेर मेवात मोरवी, वीरमगाम मैदान । सत्य धर्म का झंडा गाड़ा, दिन दिन बढ़ते शान ।। आ ।।१५।। मणिभद्र सेवा करे जिनकी, विजय दान गुरु मान । उनके पट प्रभाविक सूरि, हीर हीराकी खाण ॥ आ ॥१६।। इन गुरुओं की करे आशातना, वह जग में हैवान । भक्ति नीर से चरणों पूजे, चारित्र दर्शन ज्ञान || आ ॥१७॥ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ काव्यम् (वसंत तिलका) हिंसादि दूषण विनाश युग प्रधान, श्रीमद् जगद् गुरु सुहीर मुनीश्वराणाम्, उत्पत्ति मृत्यु भव दु:ख निवारणाय, भक्त्या प्रणम्य विमलं चरणं यजेऽहं ।। १ ।। मंत्र ॐ श्री सकल सूरि पूरंदर जगद् गुरु भट्टारक श्री हीर विजय रमूरि चरणेभ्यो जलं समर्पयामि स्वाहा ॥१॥ द्वितीय चंदन पूजा दोहा विजयदान सूरि विचरते आये पाटणपूर । उपदेश से भवि जीव को, मार्ग बताते धूर ॥ १॥ गुरुवर की सेवा करे, माणिभद्र महावीर । करे समृद्धि गच्छ में, काटे संघ की पोर ।। २ ॥ इस समय गुरु देव को, हुआ शिष्य का लाभ । तपगच्छ में प्रतिदिन बढे, धर्मलाभ धनलाभ ॥ ३ ॥ ( ढाल २) (तर्ज-धन धन वो जग में नरनार ) धन धन वो जग में नरनार, जो गुरुदेव के गुण को गावे । टेर!! पालनपुर भूमिसार, ओसवाल वंश उदार । महाजन के घर श्रीकार, प्रल्हादन पास की पूजा रचावे ।। १ ।। धन सेठजी कुंराशाह, नाथी देवी शुभ चाह। चले जैन धर्म की राह, धर्म के मर्म को दिल में ठावे ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ संवत पन्द्रहसो मान, तिर्यासी मिगसर जाण । हीरजी का जन्म प्रमाण शान शौकत जो कुलकी बढावे ।।३।। शिशु वय में हीर सपूत, परतिख ज्यू शारद पूत । बल बुद्धि से अद्भूत, ज्ञान क्षय उपशम के ही प्रभावे ।। ४ ।। पडिक्कमणा प्रकरण ढाल, योग शास्त्र व उपदेश माल । पयन्ना चार रसाल, पढे गुरु के भी दिलको लुभावे ॥ ५॥ हीरजी पाटण में आय, नमें दान सूरि के पाय। सुने वाणि हर्ष बढ़ाय, पाक दिल संयम रंग जमावे ॥ ६ ॥ पन्द्रह से छयाणं की साल ले दीक्षा हीर सुकुमाल | बने हीर हर्ष मुनि बाल, न्याय आगम का ज्ञान बढ़ावे ॥ ७ ॥ संवत सोलसो सात, पन्यास हुए विख्यात । हुए वाचक संवत आठ, पाट सूरिकी दशमें पावे ॥ ८ ॥ हुए पूज्य सूरीश्वर हीर, नमे सुबा राज वजीर।। चन्दन चर्चित गंभीर, धीर चारित्र सुदर्शन गावे ।। ९ ॥ काव्यम् हिसादि मंत्र ॐ श्री० चन्दनं समर्पयामि स्वाहा ।। २ ॥ तृतीय पुष्प पूजा : दोहा : हीर हर्ष हुए सूरि, हुआ घर घर आनन्द । शासन की शोभा बढ़ी, यश फैला गुण कंद ।। १ ।। (ढाल ३) (तर्ज-कदमों की छाया में, प्रभु के पैर पूजना) हीर सूरीश्वरजी, गुरु के गुण गाईए ॥ टेर ॥ हीर मुनिश्वर; हीर सूरीश्वर, अक्ल महिमा रे भक्ति से फल पाईए ॥ १ ॥ फतेहपुर में उपकेश घर में, है तप भक्ति रे For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५ तप से ही सुख पाईए ।। हीर ॥२॥ सती शिरोमणि सद्गुणि रमणी । श्राविका चम्पा रे छै मासी तप ठाइये । हीर ॥ ३॥ देव कृपा से गुरु कृपा से । तप गुण बढ़ते रे __ कृपा को वारी जाइए। हीर ॥४॥ हुई तपस्या मोक्ष समस्या । आनंद हेतु रे उच्छव रंग चाहिये । हीर ॥ ५॥ तप की सवारी जूलूस भारी। बाजिंत्र बाजे रे जय नारे भी मिलाइए । हीर ।। ६ ।। अकबर बोले लोक है भोले। झूठी तपस्या रे चम्पा को कहे आइए । हीर ।। ७ ।। पूछे चम्पा से किन की कृपा से। रौजा मनाये रे सच्चा ही बतलाइये । हीर ।।८।। पार्श्व प्रभु की हीर गुरु की। चम्पा सुनावे रे कृपा का फल पाइये । हीर ॥ ॥ कृपालु नामी हीरजी स्वामी । ठाना शाहीने रे इनसे ही मिलना चाहिये । हीर ।। १० ।। गुरु चरन में भक्ति सुमन है। चारित्र दर्शन रे कर्मों का गढ ढाइये । हीर ।। ११ ।। काव्यम्-हिंसादि मंत्र ॐ श्री० पुष्पाणि समर्पयामि स्वाहा ॥ ३ ॥ चतुर्थ धूप पूजा : दोहा: अकबर दिल में चिंतवे, भारत का सुलतान । बुलाऊं गुरु हीरजी, जैनों का सुलतान ।। १॥ For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ थानसिंह श्रोसवाल को, बोले अकबर शाह । बुलावो गुरु हीर को, सुधरे जीवन राह ॥२॥ थानसिंह कहे जहाँपनाह, दूर ही है गुरुराज। अकबर कहे पर भी उन्हें बुलावो मय साज ।। ३ ।। ( ढाल ४) (तर्ज-शहीदों के खू का असर देख लेना) हीरसूरि को बुलाना पड़ेगा, हम को भी दर्शन दिलाना पड़ेगा। धन गुर्जर है ऐसे गुरु से, वहां से गुरु को बुलाना पड़ेगा। हीर ।। १ ।। राजा राणी दर्शन पावे, उनका ही दर्शन दिलाना पड़ेगा। हीर ॥२॥ नाम जापसे दुःख विडारे, ऐले फकीर को यहां लाना पड़ेगा ॥ हीर ॥ ३ ॥ वहीं से सहारा देवे चम्पा को, उस ओलिया से मिलाना पड़ेगा। हीर ॥ ४ ॥ घर दुनिया को दिल से छोड़े, ___ खुदा का बन्दा बताना पड़ेगा ।। हीर ॥ ५ ॥ सब जीवों की रक्षा चाहे, यही कृपारस पिलाना पड़ेगा ।। हीर ।। ६ ॥ त्यागी ध्यानी पण्डित ज्ञानी, उन्हों का उपदेश सुनाना पड़ेगा। हीर ॥ ७ ॥ सब मजहब से वाकिफ साहिब, उनका भी मजहब सुनाना पड़ेगा ।। हीर ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०७ तेरा गुरु है, मेरा गुरु है, ठेका भी हो तो तुडाना पड़ेगा | हीर ॥ ९ ॥ शाह अकबर यों भाव बतावे, हीरे का पाक खिलाना पड़ेगा ।। हीर ॥ १० ॥ चारित्र दर्शन गुरु चरणों में, ध्यान का धूप जमाना पड़ेगा ।। हीर ॥। ११ ॥ काव्यम् - हिंसादि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंत्र - ॐ श्री० धुपं समर्पयामि स्वाहा ॥ ४ ॥ -SME पंचम दीपक पूजा -: दोहा : अब अकबर गुजरात में, भेजे मोदी कमाल | बोलावे गुरु हीर को, फतेहपुर खुशहाल ॥ १ ॥ संवत सोलसो चालिसा, आये श्री गुरु हीर | बने गुरु उपदेश से, धर्मी अकबर मीर ॥ २ ॥ ( ढाल ५ ) ( तर्ज - घडी धन्य आज की सब को, सब को मुबारक हो ) इसी दुनिया में है रोशन, “जगद्गुरु" नाम तुम्हारा | ढेर | कई को दीनी जिन दीक्षा, कई को ज्ञान की भिक्षा । कई को नीति की शिक्षा, कई का कीना उद्धारा || इसी ॥१॥ लंकापति मेघजी स्वामी, अट्ठाइस शिष्य सहगामी । सूरि चेला बने नामी, करे जीवन का सुधारा || इसी ||२|| कीड़ी का ख्याल दिलवाया, अजा का इल्म बतलाया । मुनि का मार्ग समझाया, संशय सुल्तान का दारा || इसी ||३|| For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ शाही सम्मान तो पाया, पुस्तक भंडार भी पाया । बड़ा श्रा में बुलवाया, अकबर नाम से सारा || इसी ||४|| तपगच्छ द्वेष दिलधारा, कल्याण खटचारा । उसी का गर्व उतारा, सभी के दुःख को टारा | इसी ||५|| फतेपुर, आगरा, मथुरा, शोरिपुर, लाभ, मालपुरा । भुवन प्रभु ब सनूरा, मोगल के राज्य में सारा || इसी || ६ || करे कोई गुरु पूजन, दीये हाथी हरे उलझन । करे वस्त्रादि से लुछन, यतिम याचक का दिल ठारा। इसी ॥७॥ तीरथ का टेक्स हटवाया, जजिया कर भी हटवाया । शत्रु जय तीर्थ फिर पाया, गुरु आधिन बने सारा || इसी ||८|| अकबर ने समझ लीना, बड़ा फरमान लिख हुक्म सालना छ महिना, यही उपकार तुम्हारा ॥ जगत पर कीना उपकारा, जगद् गुरु आप है प्यारा । अकबर ने यूं उच्चारा, दिया विरुद जयकारा || इसी ||१०|| गुरु उपदेश को पीकर, अकबर का हुक्म लेकर । जिता शाह जी बने मुनिवर, बना शाही यति प्यारा || इसी ॥ ११ ॥ नमे सुल्तान आजमखान, सिरोही देवड़ा सुल्तान | नमे प्रताप टेक प्रधान, गुणों का है नहीं पारा || इसी ॥१२॥ दीना । इसी ||६|| मुगल सम्राट दरबारा, खुला शुरु में गुरु द्वारा । पीछे जिनचन्द्रसिंह प्यारा, गये सेनादि गुरु सारा || इसी || १३|| For Private and Personal Use Only गुरु चारित्र सीतारा, विमल दर्शन का आधारा । गुरु कोई नहीं चारा, गुरु दीपक से उजियारा ॥ इसी ॥१४॥ काव्यम्-हिंसादि बिना मंत्र - ॐ श्री० दिपकं समर्पयामि स्वाहा ॥ ५ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१ षष्ठी अक्षत पूजा -:दोहा :जगद् गुरु करे जगत में, भ्रातृ प्रेम प्रचार | अहिंसा के उपदेश से, अहिंसक बने नरनार ।।१।। (ढाल ६) अहिंसा का डंका आलम में, श्री जगद् गुरु ने बजवाया। महावीर का झंडा भारत में, श्री हीरसूरि ने फहराया ।टेर।। मयरानी रोह नगर स्वामी, शिकार को छोडे सुखकामी । सुल्तान सिरोही का नामी, उनका हिंसादि छुटवाया ॥१॥ अकबर सुबह में खाता था, सवा सेर कलेवा पाता था। चिड़ियों की जीभ मंगाता था, उस से उनका दिल हटवाया।।२।। कई पशु पक्षी को मारा था, और कई पर जुल्म गुजरा था । अकबर का यह नित्य चारा था, उसके लिये माफी मंगवाया ||३|| पिंजर से पक्षी छुड़वाये, कई कैदी को भी छुड़वाये । कई गैर इन्साफ का हटवाये, कइयों का जीवन सुलझाया ॥४॥ काला कानून था जजिया कर, जनता को सतावे दुःख देकर। अकबर को मजहब समझाकर जजियाकर पाप को धुलवाया ॥५॥ पर्यषण बारह दिन प्यारे, किसी जीव को कोई भी नहीं मारे । अकबर युअाज्ञा पुकारे, फरमान पत्र गुरु ने पाया ॥६॥ संक्रान्ति के रवि के दिन में, नवरोज मास ईदके दिन में । सुफियानमिहिर के सबदिन में, जीवघात शाहीने रुकवाया ॥७॥ फिर जन्म मास अपना सारा, जीवघात युं छै महिना टारा । चारित्र सुदर्शन भय हारा, गुरु चरण में अक्षत पद पाया | ___ काव्यम्-हिंसादि० मंत्र ॐ श्री अक्षतान समर्पयामि स्वाहा ।।६।। - For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तमी नैवेद्य पूजा .-: दोहा :-- जगद् गुरु ने जीवन में, कीना तप श्री कार । तेले बेले सैंकड़ों, व्रत भी चार हजार ॥१॥ आम्बिल नीवी एकासणा, और विविध तप जान । प्रतिदिन बारह द्रव्य का, करे गुरुजी परिमाण ।।२।। काउसग्ग ध्यान अभिग्रह करे, प्रतिमा बार मनाय । दशवैकालिक नित्य जपे, चार क्रोड़ सज्झाय ॥३।। पण्डित एकसौ साठ थे, साधु कई हजार। एक सूरि उत्रज्झाय आठ, यह गुरु का परिवार ॥४॥ ( ढाल ७) (तर्ज-केशरिया ने कैसे जहाज तिराया ?) जगद्गुरु आज अमोलख पाया, नर भव सकल मनाया। जगद् गुरुने जगत के हित में, जीवन सारा बिताया। आपके शिष्य प्रशिष्यों ने भी, कीना काम सवाया ||ज०१॥ वाचक शान्तिचन्द्र गणि ने, कृपाग्रन्थ बनाया। सुनकर शाहने अपने जीवन में, मुरदा नहीं दफनाया ज०२॥ कल्याणमल के कष्ट पिंजर से, खंभात संघ को छुड़ाया। हमाय का इल्म बताया, जम्बूवृत्ति बनाया ।।ज० ३|| भानुचन्द्र ने शाही द्वारा, वाचक का पद पाया । शाही के पुत्र को ज्ञान बढ़ाया, तीरथ पट्टा पाया |ज० ४।। पटधर सेन सूरि आलम में, गौत्तम कल्प गवाया । पाटण राजनगर खंभात में, पर गच्छी को हराया ॥ज०५॥ सूरत में श्री भूषणदेव को बाद में दूर भगाया। शाही सभा में पांच से भट से, बाद में जय अपनाया ॥ज०६॥ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकबर से षट् जल्प को पाया, मृत धन आदि हटाया। सवाई हीर का विरुद पाया, परतिख पुण्य गवाया ॥ज०७॥ अकबर के पण्डित सभ्यों में, जिनका नाम लिखाया। विजय सेन भाणचन्द्र अमर है, शासन राग सवाया ॥ज०८॥ अष्टावधानी नंदनविजयजी, सिद्धिचन्द्र गणिराया। विवेक हर्षगणी इन्होंने, शाही से धर्म कराया ज०६॥ पड पट्ट धर श्री देवसूरि ने, वादी से जय पाया। सूरदेव चन्द्र श्रादि देवों ने, गुरु का मान बढ़ाया ॥ज०१०।। विरुद जहांगीर महातपा यूसलीम शाह से पाया। राणा जगतसिंह ने भी दया का, चार हुक्म लिखवाया ।।ज०११।। वाचक विनय ने लोक प्रकाश से, सच्चा पंथ बताया। यशोविजयजी वाचक गुरु के, ज्ञान का पार न पाया ।ज०१२।। खरतर पति जिनचन्द्र सूरिने, जगगुरु का यश गाया। फरमान सप्ताह की अहिंसा का, अकवरशाह से पाया ।।ज०१३।। गुरु के नाम से पावे धन सुत, यश सौभाग्य सवाया। चारित्र दर्शन गुरु चरणों में, भाव नैवेद्य धराया |ज०१४।। काव्यम्-हिंसादि मंत्र-ॐ श्री० नैवेद्य समर्पयामि स्वाहा ।।७।। अष्टमी फल पूजा दोहा: सोलसो बावन भादों में, सुदी ग्यारस की रात । गुरुजी स्वर्ग में जा बसे, उना में प्रख्यात ॥१॥ अग्निदाह के स्थान में, फले बांझ भी आम । दिखावे गमी मुकुट छोड़, अकबर अपने धाम ।। २ ।। For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ अकबर से पाकर जमीन, लाडकी करे वहां स्तूप । जो परतिख परचा पूरे, नमे देव नर भूप ॥ ३ ॥ आबू पाटण स्थंभना, राजनगर जयकार । सूरत हैद्राबाद में, बने श्री हीर विहार ॥४॥ आगरा महुवा मालपुर, पटणा सांगानेर । नमुं प्रतिमा स्तूप पादुका, जयपुर आदि शहेर ।। ५ ।। ( ढाल ८) (तर्ज-सरोदा कहां भूल पाये ) आवो भाई आवो, गुरु के गुण गारो ॥ टेर ।। देवी कहे देवेन्द्र सूरि के, चरण कमल में जाओ। बढ़ती उनके गच्छ की होगी, कुपथ में मत जाओ । गु० १ ॥ पद्मावती कहे तिलक सूरि के, शिष्य को स्तोत्र पढाओ। प्रतिदिन तपगछ बढ़ता रहेगा, प्रभसूरि ! मत घबराओ ॥गु०२।। मणिभद्र कहे दान सूरि को, विजय दान वरसावो। कुशल करूंगा विजय तपा का, विजय ध्वज फरकावो ।। गु० ३ ॥ ऐसे गच्छ में जगद् गुरु, श्री हीर सूरि को गावो। वर्ष इक्कीस हजार चलेगा, वीर शासन मन लावो । गु० ४ ॥ देश प्रदेशों में क्यों छोडो, गुरु चरणों में जावो । संग्राम सोनी पेथड सम ही, लक्ष्मी इज्जत पावो ।। गु०५ ।। जगद् गुरु के चरण कमल में, फल पूजा फल पावो। चारित्र दर्शन ज्ञान न्याय से, जय जय नाद गजावो ।। गु०६॥ काव्यम्-हिंसादि० मंत्र-ॐ श्री० फलं समर्पयामि स्वाहा ।। ८ ।। For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३ : कलश: (राग-बढस-अब तो पार भये हम साधो) आज तो जगद् गुरु गुण गाया, आनद मंगल हर्ष सवाया वीर जगत गुरु पाट परम्पर, हुए सूरि गणी मुनिराया हुए बुद्धि विजय गणि जिनने, संवेगरंगका कलश चढ़ाया आपके आदिम पट्ट प्रभावक, मुक्ति विजय गणि शासन राया आपके पट्ट में विजय कमल सुरि, स्थविर विनय विजयजी गवाया आपके शिष्य शासन दीपक, श्री चारित्र विजय गुरु राया आदिम जैन गुरु फूल स्थापक, जिनके यश का पार न पाया आपके सेवक दर्शन ज्ञानी, न्याय ने जयपुर में गुण गाया संवत् उन्नीसौ सत्ताणं, जगत् गुरु का दिन मनाया तपगच्छ मन्दिर में जग गुरु के, चरण कमल सबको सुख दाया सेवे भंडारी कोचरजी, चोरडिया पालरेचा सुहाया म्हेता छाजड वेद सचेती, ढडढा गोलेच्छा सुखपाया ढौर गोहेलडा बम छजलानी, नौलखी सिंघी व खीसरा भाया कोठारी लोढा करणावट, बाफणा पटनी शाह उमाया जोहरी हरखावत पोरवाली, श्री श्रीमाल है भक्ति रंगाया संघ ने मिल कर भाव सवाया, गुरु पूजन का पाठ पढाया शिर नमाया जय जय पाया, चारित्र दशेन नाद गजाया दादा साहब की आरती आरती श्री गुरुदेव चरण की कुमति निवारण सुमति पुरण की ।। आ० ॥ टेर ।। पहेली आरती श्री गुरुदेव की दुरित निवारण पुण्य करण की ।। अ० ॥ १ ॥ दूसरी आरती धरम धरन की अशुभ करमदल दूरी हरण की ॥ प्रा० ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ तीसरी आरती दश यति धरम की तप निरमल उद्धार करण की ।। आ० ॥ ३॥ चौथी संयम श्रत धरम की शुद्ध दया रूप धरम बरधण की ।। आ०॥४॥ पांचमी सभी सद्गुण ग्रहण की दिन दिन जस परताप करण की ।। श्रा० ॥ ५॥ एह विध आरती कीजे गुरुदेव की स्मरण करत भवि पाप हरण की ॥ श्रा० ॥६॥ श्री जगद्गुरु स्थापना मंत्र १ आह्वाहन मंत्र- (आह्वाहन मुद्रा करके बोले) ॐ ह्रो श्री अह युग प्रधान भट्टारक श्री हीरविजय सूरिश्वर जगद् गुरो ! अत्र अवतर अवतर स्वाहा । २ स्थापना मंत्र- (स्थापना मुद्रा करके बोले) ___ ॐ ह्री श्री श्री अहं युगप्रधान भट्टारक श्री हीरविजय सूरि जगद् गुरो ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ ठःस्वाहा। सन्निधि करणमंत्र ॐ ह्री श्री अहं युगप्रधान भट्टारक श्री हीरविजय सूरि जगद् गुरो ! मम सन्निहितो भवभव वषट् स्वाहा । जगद्गुरु को अष्ट प्रकारी पूजा की सामग्री १पंचामृत कलश ५ दीपक २ केशर चंदन ६ अक्षत ३ फूल फूलमाला ७ नैवेद्य ४ धूप ८फल For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११५ जगद् गुरु हीर गायन नं० १ ( तर्ज - अंखिया मिलाके ) भारत जगाने जैन बनाने, सूरि फिर आना हो । टेर || अहिंसा का तत्व समझाने, जैन धर्म का मर्म बताने, हीर गुरु के पैयां पड़ जायेंगे, फिर यूं कहेंगे ।। १ ।। हिन्दु मुस्लिम झगड़े बुझाने, फैले हुए अत्याचार मिटाने, हीर गुरु के पैयां पड़ जायेंगे, फिर यूं कहेंगे ॥ २ ॥ राजाओं को बोध दिलाने, स्वराज्य का झंडा फहराने. हीर गुरु के पैयां पड़ जायेंगे फिर यूं कहेंगे ॥ ३ ॥ इन्हीं गुरु के पाट परम्पर, सोहे गुरु श्री हित सुहंकर, हीर गुरु के पैयां पड़ जायेंगे, फिर यूं कहेंगे ॥ ४ ॥ तस पद पंकज "हिम्मत" कहता, शिष्य " भव्यानंद" दिल में धरता, हीर गुरु के पैयां पड़ जायेंगे, फिर यूं कहेंगे ॥ ५ ॥ गायन नं० २ (तर्ज - सिद्धाचलना वासी - ) सूरि हीर ने सेवो भविया सुख जगद् गुरु को दिल में धारा, शासन वीर का चांद सितारा, For Private and Personal Use Only अपार ॥ देर ॥ ये गुणों के भंडार भत्रिया ॥ १ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ अकबर के सिरताज कहलाये, चिड़ियों का संहार मिटाये, जग में ये अवतार भविया ।। २ ।। सूरीश्वर भारत के नेता, पिस्तालीश आगम के वेत्ता, अहिंसा धर्म प्रचार भविया ॥ ३ ॥ तीर्थो के पट्टे करवाये, शिक्षा द्वारा कर हटवाये, किया बहुत उपकार भविया ॥ ४॥ गुरु “हिमाचल' यू फरमावे, शिष्य "भव्यानन्द" दिल में ठावे, होवे जय जय कार भविया ।। ५ ।। गायन नं० ३ (तर्ज-काली कम्बली वाले-) जगद् गुरु श्री हीर प्यारे धर्म दातार । टेर । स्वामी सुधर्मा वीर गणधारो, तस्स अट्ठावन पट पै भारी, शासन के श्रृंगार प्यारे ॥१॥ सर्व सिद्धांत को मंथन करके, भव्य जीवों का संशय हरके, __ किया सुतत्व प्रचार प्यारे ।। २ ।। अकबर को हित शिक्षा देकर, समता का शुद्ध पाठ पढ़ाकर, किया जगत उपकार प्यारे ।। ३ ।। For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकबर द्वारा दया पलाई, भारत में सब फूट मिटाई, किया तीर्थ उद्धार प्यारे ॥४॥ अकबर को सन्मार्गी बनाया, राजा और राणा को झुकाया, अतुल शक्ति के धार प्यारे ।। ५ ।। ऋषि मेघ को शिष्य बनाया, जैन धर्म का मूल बताया, ____भवो भव तारण हार प्यारे ॥६॥ शास्त्रार्थ करने पण्डित आवे, तेज प्रताप से हार वो पावे, त्यागी सदा जयकार प्यारे ।। ७॥ सूरि “हिमाचल' जग समझावे, जगद्गुरु के गुण को गावे, पावे सुख अपार प्यारे ॥ ८॥ दो हजार अरु आठ के वरषे, चौमासा बढ़वान में हरणे, "भव्यानन्द'' गुण गाय प्यारे !! ६ ॥ जगद गुरु हीर सज्जाय ( तर्ज-एक दिन पुण्डरीक गणधर रे लाल ) एक दिन जग गुरु परिवर्या रे लाल, ___ फतेपुर नगर मज्झार उपकारी रे, साथे सुशिष्य बहु भला रे लाल, शम दम गुणना भंडार जयकारी रे ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ तप जप संयम साधता रे लाल, करने सिद्धि हजुर सुखकारी रे। श्राविका चम्पा आदरे रे लाल, तप छमासी रसाल गुरुधारी रे ॥२॥ नामे श्री हीर सोहामणा रे लाल, युग प्रधान कहेवाय मनोहारी रे। चरणे भूमि पावन करे रे लाल, देशना अमृत धार हितकारी रे ॥ ३ ॥ सुणी सजी स्वागत करे रे लाल, अकबर खुशियां मनाय रंगदारी रे। नगर में जय ध्वनि गुजवे रे लाल, घर घर मंगल माल नरनारी रे ॥ ४ ॥ राजा राणा सहु नमे रे लाल, प्रण में मंत्रीश्वर चित्तधारी रे। बीरबल सुबा सहु नमे रे लाल, नमे अबुलफजल मदटारी रे ॥५॥ देशना गुरुजीनी सुणी करी लाल, हुआ तत्त्वना जाण दुःखहारी रे। पशु पक्षी ने छोड़ीया रे लाल, छोड़े केदी कुटेव गुणधारी रे ।। ६ ।। शाही दया पाले सदा रे लाल, लिखे फरमान छमास खुशीयाली रे। जग गुरु पद आपे भलो रे लाल, अअबर सभा मझार बुद्धिशाली रे ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ त्यागी वैरागी गुणे भर्या रे लाल, शान्त सुधारस वेल अतिसारी रे। गुण सम्राटना गवातां रे लाल, पावे ऋद्धि विशाल अतिभारी रे ॥ ८ ॥ सूरि "हिमाचल" "भव्य' ने रे लाल, दरशन दो एक बार मनधारी रे । 'गुमानविजय" ध्यावे सदा रे लाल, आनंद मंगल माल बलिहारी रे ॥६॥ Gor STRO For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री हित विजय जैन ग्रंथमाला की प्रकाशित-पुस्तकों का सूची-पत्र 1. श्री प्रतिक्रमण विधि प्रकाश ... ... पं० श्री हितविजय 2. श्री हित स्तवनावली ... प्र० श्री गुमानविजयजी 3. स्तवन तथा शारदा पूजन विधि / ... प्र० श्री गुमानविजयजी मुमुक्षु भव्यानन्द विजय द्वारा विरचित 4. भव्य गीत 22. दृष्टिराग 5. भव्य बोल समुच्चय 23. अहमदाबाद शहर यात्रा ६.हित पुष्प 24. चार बातें 7. श्री नाकोड़ा तीर्थ स्तोत्रं 25. भाग्य का खेल 8. श्री नित्य स्मरणादि स्त्रोत्र सं० 26. लाव मेरा ढोकला 6. अनानुपूर्वी 27. छेली सीख 10. घर बैठे मुहूर्त देखें 28. जैन और बौद्ध दर्शन पर निबंध 11. पञ्चक्खाण पट 26. डाकू का जीवन पल्टा 12. पंचकल्याणक पट 30. रूपसेन 13. इरियावहियपट 31. आयतत्वाधिकार 14. जगद् गुरु हीर निबंध 33. प्रभाविक पुरुषो १६.वीश विहरमान जिन पट 34. दीपावली पूजन 17. हीर चरित्रं 35. मुच्छाला महावीर नाम क्यों १८.हित वचन पड़ा? 20. हंसराज वत्सराज चरित्रं 36. नियमावली 15. प्राचीन जिनेन्द्र गुणमाला सा० जितेन्द्रश्रीजी 16. तत्त्ववेत्ता मा० पुखराज शर्मा 21. गौत्तम वीर संवाद मु० लक्ष्मीविजयजी 32. प्राचीन विविध विषय संग्रह सा०जितेन्द्र श्रीजी प्राप्ति स्थान: श्री हित सत्क ज्ञान मंदिर मु० पो० घाणेराव (मारवाड़) वाया-फालना For Private and Personal Use Only