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का आसन्न समय एवं दैवात् उपस्थित गुरुवर्य को निरीक्षण करते हुए श्रीसंघ के सविनय प्रार्थना करने पर आपने इसी नगरी में चातुर्मासिक नूतन जलधर के जसी धर्मोपदेश सुधा की वर्षा की। चातुर्मास पूर्ण होने पर संवत् १६३० पोष कृष्णा चतुर्दशी के दिन अपने पट्टधर श्री विजयसेनसूरि को गच्छ की सारणावारणा और पडिचोयणापूर्वक गच्छ रूप ऐश्वर्य के साम्राज्य रूप शासन की गद्दी पर बैठा दिये, इस शुभ अवसर पर मरुधर मालवा, मेदपाट, सौराष्ट्र, बनारस, कच्छ कोंकण आदि दूर दूर देश के अनेक लोग संगठित हुए थे । श्री विजय सेनसूरि गच्छ सम्बन्धी समस्त अधिकार प्राप्त करके इन्द्रासनासीन इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे ।
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जिस समय हीरसूरिजी ने विजयसेनसूरि को गच्छ सम्बन्धी अनुज्ञा दी थी कि इस गच्छाधिपत्य के साथ गच्छ से तेरा सम्बन्ध अविचल हो और जीवन पर्यन्त गच्छ से वियोग न हो इतनी बात संक्षेप में सारगर्भित कही थी, ऐसे गुरुदत्त शुभाशीर्वाद को शिरोधार्य करते हुए विजयसेनसूरिजी शासन की शोभा अधिक बढ़ाने लगे ।
एक वखत पाटण में विजयसेनसूरिजी के पाट महोत्सव पर राजा के प्रधानमंत्री हेमराज ने अतुल द्रव्य खर्च किया। उस वक्त वहां का सूबेदार कलाखान बड़ा अन्याय प्रिय था। इस अनीति के कारण सारी प्रजा अशान्तिमय अपना समय व्यतीत करती थी । सूरिजी के जाहेर व्याख्यान द्वारा विद्वत्ता की कीर्त्ति कलाखान के कर्णों तक पहुँची । जिससे कुतूहलता पूर्वक हीरसूरिजी को आमंत्रण भेजा । “सत्ये नास्ति भयं कवचित्" इस नीति के जारणकार सूरिजी निडरता पूर्वक कलाखान के राजमहल में पहुँचे । कलाखान ने स्वागत पूर्वक कुशल क्षेम की बातचीत करके प्रश्न किया कि महाराज ! सूर्य ऊंचा हैं या चन्द्र ? गुरुजी ने उत्तर दिया कि चन्द्र ऊंचा है । कलाखान सौर्य बोला महाराज ! हमारे सिद्धान्त में तो सूर्य को ऊंचा माना
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