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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ है और आप चन्द्र बता रहे हैं। यह भिन्नता क्यों ? इस पर सूरि जी ने कहा कि राजन् ! मैं न तो सर्वज्ञ हूँ न मैं पूरा ज्ञानी हूँ और न मैं ऊपर जाकर के देख कर आया हूँ । केवल मैं ने गुरू मुख से सुना है और सिद्धान्तों में पढ़ा है। उन शास्त्रों के आधार पर ही मैं कह रहा हूँ अब तुम्हारी इच्छा हो वह मानलो । आचार्य देव के सरल वचन सुनकर कलाखान विचार मग्न हो कर मन ही मन सोचने लगा कि महात्मा ने ठीक ही कहा है । चूंकि यह वस्तु वास्तविक अगम्य और परोक्ष है । इसलिये शास्त्रीय आज्ञानुसार सूरिजी का वचन बिलकुल सत्य ही है । I इस प्रकार मानसिक विचार कर के बोला महाराज ! आपकी सरलता और विद्वतापूर्ण वक्तव्यता पर बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ । आप हमारे ऊपर कृपा करके काम सेवा फरमाइये । सूरिजी ने उत्तर में कहा कि राजन् ! आज से पर- स्त्री त्याग का नियम लीजिये और तुम्हारे कैदखाने में पड़े हुए कैदियों को छोड़ दीजिये | कलाखान ने परस्त्री का नियम लिया और सब को बंधनमुक्त कर दिया और शानदार स्वागतपूर्वक सूरिजी को सानन्द अपने स्थान पर (धर्मशाला) पहुँचा दिया | तदनन्तर अल्प समय में ही गच्छ का उद्योतक एवं व्याख्यान पटु शिष्य विजयसेनसूरि को देखकर विजय हीरसूरिजी अपने मनोमन्दिर में परामर्श देव को स्थापन करने लगे कि विजयसेनसूरि जी मेरे से पृथक बिहार करे तो बहुत देशों के भव्यों को प्रतिबोध देने में भाग्यशाली बन सकेगा, और आचार्यपद का भी गौरव बढ़ा सकेगा । ऐसा विचार करके विजयसेनसूरि को पृथक विहरने की आज्ञा दे दी, आज्ञारूप माला को अपने हृदय में धारण करके विजयसेनसूरि बहुसंख्यक साधुओं के साथ पर्यटन करने लगे, एक समय देशाटन करते हुए चम्पानेर में पहुँचे । उस नगर में एक जयवन्त For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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