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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामक सेठ ने चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिये सं० १६३२ में श्रा० विजयसेन सूरिजी के कर कमलों द्वारा मन्दिरस्थ जिन प्रति बिम्बों की अंजनशलाका पूर्वक प्रतिष्ठा करवाई, बाद वहां से विहार करके सूरिजी सूरत बन्दर पधारे, वहां की नागरिक जनता ने स्वागत पूर्वक चातुर्मास की अाग्रह भरी विनती की जिसको स्वीकार कर आचार्यदेव चातुर्मास के लिये ठहर गये, सूरीश्वरजी की विमला कीर्ति चतुदिक्षु फैलने लगी, उस कीर्ति ज्वाला को सहन न करके एक भूषण नाम का पंडित सूरिजी से शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार हो गया, तर्कज्ञ सूरिजी के लिये शास्त्रार्थ करना परम सरलता की बात थी । सूरिजी ने भूषण पंडित को बुलाया और विद्वानों के नेतृत्व में बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ, आखिर भूषण हार गया और श्री विजय सेनसूरिजी विजयी हुए, तथा भूषण पंडित निरुत्तर होकर पंडितों की सभा में हास्य पात्र बने, सूरिजी सुरत बन्दर में अनेक प्रकार से जैन धर्म की विजय पताका फहराते हुए चातुर्मास पूर्ण होते ही विहार करके गुजरात मालवा मरुधर मेदपाट आदि देशों को पावन करते हुए अपने वचनामत द्वारा भव्य जीवों को तृप्ति करने लगे। इधर भारतवर्ष का सर्वे सर्वा मुगल सम्राट अकबर बादशाह अपने फतहपुर सीकरी के शाही महल में बैठा हुआ राजमार्ग पर दृष्टिपात कर रहा था। वह अकबर बड़ा मांसाहारी और बड़ा हिंसक था। पांच सौ चिडियों की जीह वा का भोजन प्रातःकाल कलेवे में करता था। अत्यन्त कामी एवं अन्याय का मन्दिर था। समस्त क्षत्रिय राजाओं को अपने पैरों में झुका दिया था और राजपूत बालाओं का सतीत्व नष्ट करने में अपना सर्वस्व समझता था। भारत के तमाम राजाओं ने अकबर की आज्ञा का पालन करना शुरू कर दिया था। परन्तु मेदपाटाधीश अकबर का सामना १२ वर्ष तक करता रहा। आखिर हिन्दूकुल सूर्य महाराणा प्रताप की विजय हुई। जो कि आज इतिहास For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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