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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुदेव ने मधुर ध्वनि से कहा कि महानुभाव ! जो मनुष्य मूर्ति की पूजा करते हैं, वे मूर्ति की पूजा नहीं करते हुए मूर्ति द्वारा ईश्वर की पूजा करते हैं। क्योंकि पूजा के समय पूजक की भावना यही रहती है कि मैं साक्षात् ईश्वर की पूजा कर रहा हूँ न कि पत्थर की। जैसे उदाहरण लीजिये कि आप लोग मस्जीद में पश्चिम दिशा तरफ निवाज पढ़ते हैं, तो क्या पश्चिम दिवाल को ही खुदा मानते हैं ? नहीं ! कहना होगा कि पश्चिम दिशा के आश्रित खुदा को प्रसन्न करते हैं । मूर्ति पत्थर की बनवा कर मंत्र आदि से प्रतिष्ठा करने का तात्पर्य यही है कि अभिषेक द्वारा मूर्ति में ईश्वरत्वका आरोपण किया जाता है। __ मूर्ति पूजा करने से लाभ यह होता है कि अपनी आत्मा निर्मल बनती है। क्योंकि सामने जैसा प्रतिबिम्ब होता है वैसा ही भाव पैदा हो जाता है । जैसे कि वेश्या के मकान पर जाने से बुरे विचार पैदा हो जाते हैं। और धर्म स्थान में जाने पर सुन्दर विचार उत्पन्न हो जाते हैं । इसी प्रकार मूर्ति पूजा से आत्मा का परिणाम शुद्ध हो जाता है । और मेल दूर होना अनिवार्य है। इसलिये निर्मल होना ही लाभ का मुख्य कारण है। इस प्रकार युक्तियुक्त गुरुदेव का चातुर्य वचन सुन कर खान खाना बड़ा प्रसन्न होकर मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगा। और बोला कि महाराज ! अकबर बादशाह ने जो आपको मान सत्कार पूर्वक जगद्गुरु पद प्रदान किया वास्तविक उन गुणों से आप यथार्थ विभूषित हैं। महाराज ! मेरे पर दया करके कुछ चीजें स्वीकार कीजिये । सूरिजी चीजों का इन्कार करते हुए साधु जीवन का पूरा परिचय देकर अपने उपाश्रय में पधार गये ! और यहां से आगे चलते हुए सिरोही आ पहुँचे, इतने में गुरुदेव के पत्रानुसार विहार क्रम को जानते हुए विजयसेनसूरिजी भी उत्कंठावश कुछ समय पूर्व ही For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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