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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इधर जगद्गुरु विजयहीरसूरिजी महाराज आगरा, फतहपुर, अभिरामबाद और आगरा इस प्रकार चार चातुर्मास करने के बाद मरुधर देश को पवित्र करते हुए फलोदी तीर्थ की यात्रा करके चातुमस के लिये नागौर पधारे । यह चातुर्मास पूर्ण हो जाने पर गुजरात की तरफ प्रयाण किया। तब मार्ग में अनेक गांवों में घूमते हुए मेड़ता पधारने पर पूर्व परिचित के हेतु खानखाना नामक सूबेदार ने भव्य स्वागतपूर्वक नगर प्रवेश करवाया। कुशल मंगल की बातचीत करते हुए खानखाना ने प्रश्न किया कि महाराज ! ईश्वर रूपी है या रूपी ! सूरिजी ने कहा कि अरूपी है। उसने कहा कि जब ईश्वर रूप है तब तो ईश्वर की मूर्ति स्थापना करने की क्या जरूरत है ? इस पर सूरिजी ने बड़ी गंभीर वाणी से कहा कि राजन् ! मूर्ति जो है वह ईश्वर का स्मरण कराती है, जिसकी मूर्ति होती है उस व्यक्ति को वह याद दिलाती है । अगर कोई मनुष्य कहता है कि मूर्ति को नहीं मानता हूँ, वह अव्वल दरजे का पागल है । क्योंकि संसार में ध्याता, ध्यान और ध्येय इन त्रिपुटी के बिना कोई भी मनुष्य सिद्धी पद नहीं पा सकता। संसार में किसी भी पदार्थ का आलम्बन लिये बिना ध्यान नहीं हो सकता । दुनियां में अरूपी पदार्थ का ज्ञान भी मूर्ति से ही होता है । जैसे कि आप मुझे साधु और हिन्दू कहते हैं और मैं आपको मुस्लिम कहता हूँ । यह सब इन वेष रूप मूर्ति के आधार पर ही निर्भर है । इसलिये मूर्ति को मानना हर एक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य एवं आवश्यक है । कोई मूर्ति को नहीं चाहता है परन्तु प्रकारान्तर से तो मानना ही पड़ता है । सूरिजी के वचन शान्त चित्त से श्रवण कर खानखाना बोला कि आपके कहने से यह सिद्ध हुआ कि मूर्ति को मानना चाहिये । अच्छा मान लेते हैं । परन्तु इसकी पूजा क्यों करनी चाहिये ? अपने को क्या लाभ ? For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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