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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ है कि एक गांव से आपके गुरु श्री मदविजयदानसूरीश आया था उसमें सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था कि जै जल्दी मेरे पास आओ। क्योंकि जरूरी काम है। मिलन पर कहा जायगा । I इस प्रकार का पत्र हीरसूरिजी के हाथ में आया, उस दिन आप के छट्ठ की तपस्या थी । परन्तु बिना पारणा किये ही पत्र पढ़ने के साथ रवाना होने लगे । उसी समय श्री संघ ने एकत्रित होकर के प्रार्थना की । गुरुदेव ! विहार करना है, लेकिन संघ का आग्रह है। कि आप पारणा करके पधारें । एक आध घंटा देरी से गुरुदेव की सेवा में पहुँच जायेंगे | इतनी कृपा करें । संघ का अधिक आग्रह होने पर भी विना पारणा किये रवाना हो गये और जल्दी से जल्दी चलते हुए गुरुदेव की सेवा में पहुँच गये । विजयदानसूरिजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और पूछा कि इतना जल्दी कैसे आ गया ? तब हीर सूरिजी ने कहा कि गुरुदेव ! आपकी आज्ञा शीघ्र आने की थी तो मैं कैसे ठहर सकता ? इसलिये मैं जल्दी पहुँच गया। गुरुदेव भी शिष्य की तत्परता और गुरु भक्ति देख कर बड़े प्रसन्न होकर अपने को बड़े सुखी समझने लगे । फिर प्रसन्न होते हुए ध्यान से मुक्त होकर विचार किया कि जय विमल नामक शिष्य शेखर को अपने पाट पर बैठा देना चाहिये, अपने मन ही मन विचार को न रख कर कार्य रूप में लाने की पूरी कोशिश करते हुए समस्त साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध सघ के समक्ष अपने हृदय का उद्गार जाहिर कर दिया। श्री संघ गुरुदेव के अभिप्राय को सानन्द अनुमोदन करते हुए प्रार्थना करने लगा कि इसी स्थान पर कुछ दिन और बिराजिये । परन्तु कार्यवश श्राचार्य ने डांस से शिष्य सहित विहार कर दिया । जयविमल मुनि सूरिजी से अध्ययन करता हुआ प्रसिद्ध शास्त्रों में नैपुण्य प्राप्त कर लिया । व्याकरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों को पढ़ते For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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