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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब आप ही जैन जगत के लिये प्रकाशक हो आपके सिवाय कोई हम लोगों का अज्ञान तमो वृन्द को अपहरण करने वाला नहीं है। हम लोगों के हृदय क्षेत्र में स्वर्गीय दानसुरिजी के उपदेश रूप बीज का ज्ञानांकुर होने पाया कि आप अमर होकर परोक्ष हो गये। अब पूज्यपाद श्रीमान् के उपदेशामृत सिंचन से ही ज्ञानतरु का मोक्ष रूप फल होगा। अन्यथा परम असम्भव है, अतः कृपा कीजिये विशेष क्या निवेदन करें। “विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्' साधारण लोक में भी नियम है कि, विष पौधे को भी बढ़ाकर अपने आप छेदन करने में समर्थ नहीं होते तो अमृत फल पौधे की उपेक्षा करना क्या उचित होगा ? नहीं कदापि नहीं । श्री हीरसूरिजी महाराज ने जनता की भावना को देख कर अचिरकाल में ही अपने उपदेशामृत वर्षण द्वारा ज्ञानवृक्ष को बढ़ाने लगे। एक समय श्री हीरविजयसूरिजी सूरिमन्त्र की आराधना करने के इच्छुक होकर विहार करते हुये डीसा शहर में पधारे। क्यों कि यहां के भक्त श्रावकगण बड़े यास्तिक और गुरुप्रिय थे, इस नगर में आने के बाद सब साधुओं को पढ़ाने, योगोद्ववहन क्रिया कराने और व्याख्यान आदि का समस्त भार जयविमल पर छोड़ कर आपने त्रैमासिक सूरि मन्त्र का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया । ध्यानारूढ़ सूरिजी को जान कर सूरिमन्त्राधिष्ठायक देव ने सूरिजी की मानसिक वेदना को समझ कर स्वप्नावस्था में प्रत्यक्ष होते हुए कहा कि आप अपनी समाधि में अचल रहें और जयविमल को अपने सिर का भार सोंप दें। उनकी योग्यता अपरिपूर्ण नहीं है। इतना कहने के बाद सूरिजी की आंख खुल गई । इष्ट देव प्रसन्न होने का एक ही कारण था कि आप की गुरु भक्ति प्रशंसनीय थी। एक वक्त की बात For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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