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उत्सुकता से चलते हुए हीरविजयसूरिजी के सान्निध्य में पहुँच गये, गुरुदेव के पट्टालंकार शासन सम्राट श्री हीरविजयसूरिजी के दर्शन से जयविमल हर्ष सागर में डूबते हुए सविधि वंदना में तत्पर हो गये । बाद श्री हीरविजयसूरिजी भी आगन्तुक नूतन बाल मुनि के सिर पर आमोदान्वित हृदय से अपना हाथ फेरते हुए विहार की कुशल वार्ता पूछने लगे, प्रत्युत्तर मिला कि आपके अनुग्रह से मार्ग में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई, लघु मुनि की आकृति तथा उनके प्रिय मधुर वचन को देख सुन कर सर्व मुनि मण्डल और श्री संघ बड़े प्रसन्न हुए । जयविमलजी सविनय आचार्यदेव के चरणों में रहते हुए विद्याभ्यास में संलग्न हो गये।
इधर श्री विजयदानसूरिजी सूरत बंदर से विहार कर अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए श्री वट्टपली ( वडाली) नगर में पहुँच गये, कुछ दिन के बाद आपने अपना अन्त समय जानकर शिष्योपशिष्य समुदाय को गुप्त गूढ विषय का सारभाव सरलता से समझा दिया। अब संवत् १६२१ वैसाख शुक्ला दशमी के दिन परमपद की जिगमिषा से समाधिस्थ होकर इष्टदेव को प्रत्यक्ष करते हुए निज शरीरस्थ जीव ज्योति को परम ज्योति में एकीकरण कर दी यानी (देवलोक हो गये) आपकी पारलौकिकता से जैन जगत कृष्ण पक्षीय अमावस्या के जैसी अंधकारमय हो गई। बाद जनतागण ने गुरु उपदिष्ट वचन के स्मरण से शोक साम्राज्य को अति शीघ्र ही तिलान्जलि देते हुए चिर स्मारक गुरु पादुका स्थापन करने के लिये एक अतुल मनोहर स्तूप निर्माण करवा कर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करने लगे।
इधर भी हीरसूरिजी का हृदय जलमध्यस्थ चन्द्र सूर्यादि प्रतिबिम्ब के जैसा कम्पायमान होने लगा, आप मन ही मन खेदित हो कर पूज्य श्री के विरह में करुणास्थर से कहने लगे, हे गुरो! आज तुम्हारे परलोक सिधार जाने से धीरता निराश्रय हो गई, विनय का
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