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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरे हुए. जीयों के अवयवों को पृथक पृथक करने वाला मांस खरीदने बाला, बेचने वाला, संभालने वाला, पकाने वाला, और खाने वाला ये सब हिंसक कहलाते हैं, पशुओं की हिंसा उनके शरीरस्थ रोम तुल्य हजार वर्ष पशुघातक को नरक में जाकर असह्य दुःख भोगना पड़ता है, जो अपने सुख की इच्छा से जीवों को मारता है वह जीता हुआ मृतप्रायः ही है क्योंकि उसको भी सुख नहीं मिलता। कितनी दुःख की बात है कि जब खुद के पाले हुए पशु को भी जीव्हा के लालच से हनन कर देते हैं, उनसे महा-पापी दूसरा कौन होगा ? जो पशु सेवक के दिये बिना दाना चारा नहीं खाता सेवक के बाहर जाने पर ब्यां ब्यां करता है और उसके आने से खुश हो जाता है उस बेचारे पशु को भी अपने हाथ से मार डालते हैं, खेद, उनसे निर्दयी और कठोर हृदय पुरुष कौन है ? अर्थात् कोई नहीं । सूरिजी की बातें सुनकर बादशाह ने प्रश्न किया कि फल फूल कंद और पौधे में भी जीव है फिर खाने वाले को पाप क्यों नहीं होता ? उत्तर में आपने कहा जीव अपने पुण्यानुसार जैसे अधिकाधिक पदवी को प्राप्त करते हैं वैसे अधिक पुण्यवान गिने जाते हैं, इसी कारण से जो एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय इस तरह सर्वोत्तम जीव पंचेन्द्रिय समझना चाहिये और पंचेन्द्रिय में भी न्यूनाधिक पुण्य वाले है अर्थात् तीर्यक पंचेन्द्रि बकरा गौ, भेंस, ऊंट आदि से हाथी अधिक पुण्यवान है और मनुष्य वर्ग में भी राजा मन्डलाधीश चक्रवर्ती और योगी अधिक पुण्यवान होने से अवध्य गिने जाते हैं। क्योंकि संग्राम में यदि राजा पकड़ा जाता है तो मारा नहीं जाता इससे यह सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय को मारने में अधिक पाप होता है एवं अधिक अधिक पुण्यवान को मारने से For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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