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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ इधर सूरिजी का पत्र लेकर श्रावक अकबर के दरबार में पहुँचा उस समय अकबर की सवारी घूमने के लिये बाहर निकल रही थी इसलिये पत्र न देकर सवारी के पीछे वह भी चलने लगा । कुछ दूर जाने पर एक तलाब में मछलियों का शिकार करते हुए एक मनुष्य को अकबर ने देखते ही उसे बुला कर मीठे मीठे शब्दों में समझाने लगा हे वत्स ! तुझे मछली आदि शिकारों का बहुत शौक है लेकिन निष्कारण निरपराधी जीव हिंसा से अपनी आत्मा को तृप्ति करना मुनासिब नहीं है । जीव प्राणीमात्र में समान है सुख दुःख का अनुभव सब प्राणियों को अपने जैसा ही हुआ करता है । अस्तु ! यदि इस बात पर आस्था नहीं हो तो निरपराधी साधारण जीवों की हिंसा छोड़ कर मेरे देहस्थ मांस से ही अपनी लालसा पूर्ति किया कर । दूसरी बात पर्युषण के पर्व में किसी प्रकार की जीव हिंसा करना सख्त मना है । यह बात जग जाहिर है क्या तूने नहीं सुनी है ? I शिकारी मन ही मन सोचने लगा कि प्रथम तो मैं नियम भंग का दंडी हूँ और दूसरा मधुर शब्दों से समझा रहा है इस पर भी अगर मैंने शिकार नहीं छोड़ा तो मेरा जैसा अधम दूसरा कौन होगा ? ऐसा विचार कर उसने कहा कि हे जहांपना ! आपके हुक्म को उल्लंघन कर मैं कलंक का पात्र बना हूँ आपने अपना शरीर मेरे भोजन के लिये देना चाहा इससे तो मैं मृतप्रायः हो गया । विशेष आपसे न बोल कर आज से यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरे जीवन में कदापि जीव हिंसा नहीं करूंगा इस पर बादशाह धन्यवाद देकर आगे बढ़ गये । यहां के सब तृत्तान्त देख सुनकर आया हुआ श्रावक क्षुब्द होकर राजसवारी के साथ दरबार में आकर पत्र नजराने कर कहने लगा हजूर ! यह पत्र विजयसेन सूरिजी ने भेजा है । अकबर बादशाह पत्र पढ़कर जगद् गुरुदेव की हालत खराब समझ कर असीम चिंता सागर में डूबे हुए बहुत समय तक मौन रह गये और जगद् गुरुदेव के दर्शनार्थ जाने के लिये भावना करने लगे । For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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