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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और कपड़े का लेप कर खूब वजनदार बना दिया जाय तो वही तंबा तैरने के बजाय, पानी में डूब जायगा। ठीक यही दशा इस आत्मा की है। तब यह निश्चित हुआ कि आत्मा के साथ कर्मों का बंधन रहा है, इसीलिये आत्मा को परिभ्रमण करना पड़ता है। जैन धर्म कहता है कि आत्मा और कर्म का संबन्ध अनादि काल से है और आत्मा के ऊपर रही हुई राग द्वेष की चिकनाई के कारण से है, अनादि काल से आत्मा के साथ राग द्वेष रहा हुआ है। किसी समय आत्मा शुद्ध थी और बाद में राग द्वष से व्याप्त हुई। ऐसा नहीं कह सकते क्यों कि ऐसा कहा जाय तो मुक्तात्माओं को भी राग द्वेष की चिकास लगने की संभावना रहेगी। अतः आत्मा और उस पर राग द्वेष की चिकास अनादि काल से है और इसीलिये कर्म के आवरण उस पर लगते रहते हैं। आत्मा के ऊपर राग द्वष के आवरण कैसे लगे ? यह भी नहीं कह सकते । कोई नहीं कह सकता कि खान में माटी और सोना कब मिला है । है ही। मिला हुआ ही है । हमेशा से है। लेकिन प्रयोगों द्वारा सोना और माटी अलग कर सकते हैं। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर लगे हुए आवरण (कर्म-राग-द्वष) अलग कर सकते हैं। सोना और माटी अलग करने पर सोना सोना रह जाता है और माटी माटी रह जाती है। इसी प्रकार कर्म और आत्मा अलग होने से आत्मा अपने असली शुद्ध स्वरूप में आ जाती है और कर्म अलग हो जाते हैं। __इस पर से यह सिद्ध होता है कि आत्मा पहले और कर्म पीछे, यह भी ठीक नहीं है, कर्म पहले और आत्मा पीछे, ऐसा तो बोल ही नहीं सकते । ऐसा कहने से तो, आत्मा की उत्पत्ति हो जायगी। और यदि प्रात्मा उत्पन्न होने वाला है तो उसका नाश भी होना चाहिये। For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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