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फिर एक बार मुकनजी शाह ईयावश हो करके नारियल (श्रीफल) की टोकरी की नाव बना कर ऊपर बैठ पानी में तैरने लगा। लोग खूब प्रशंसा करने लगे। गुरुदेव ने सोचा कि यह बड़ा ईाखोर है, इस को बार बार पराजित करने पर भी नूतन नूतन कला बताता जा रहा है। इस बार भी इसे चमत्कार दिखाना चाहिये। ऐसा विचार कर गुरुदेव की आज्ञा से एक सौ मण की पाषाण शिला को यमुना के पाणी में छोड़ दी । वह तैरती हुई सीधी मुकनजी शाह से टकरा गई टोकरी की नाव उधी हो गई वह स्वयं डूबने लगा। फिर दयालु गुरुदेव ने उनका हाथ खिंचवा करके बाहर निकलवा दिया। गुरुदेव के चरणों में पड़ क्षमा मांगी और कहा कि आज से आप मेरे गुरु हैं । अब कभी भी आप से ईर्ष्या नहीं करूंगा। आज दिन तक का मेरा सब अपराध क्षमा करें।
इधर सेठ थानसिंह ने महोत्सव पूर्वक अपने मन्दिर में जिन प्रतिमा की जगद् गुरुदेव के कर कमलों द्वारा प्रतिष्ठा करवाई, उस समय श्री शान्तिचंद्रजी वाचक (उपाध्याय) पद से विभूषित हुए, एवं दुजणमल ने आपके कर कमलों द्वारा दूसरा प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया उपरोक्त कार्य करते हुए जगद् गुरु श्री मद्विजयहीरसूरिजी महाराज ने अकबर के अत्याग्रह से चातुर्मास सं० १६४० में फतहपुर सीकरी पर ही ठालिया, धर्मोपदेश द्वारा जनता को सचेत करते हुए समय को सार्थक करने लगे, पर्युषण पर्व आने पर अहिंसा पलाने की उद्घोषणा अकबर ने समस्त राज्य में करवादी जिससे जैन धर्म की करुणा का प्रवाह सब दिशाओं में फैल गया।
प्रसंगवश विजयराज ने अकबर के सामने दीक्षा लेने की भावना प्रगट की। अकबर ने कहा कि विजयराज ! क्यों फकीर बनता है ? फकीरी में बहुत कष्ट है इतना कष्ट तू सहन नही कर सकेगा। अतः ये विचार छोड़ दे । तेरे किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो यहां
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