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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिजी का मामिक उपदेश दत्तचित्त से श्रवण कर अकबर सविनय कहने लगा हे गुरुदेव ! मैंने ऐसा नहीं जाना था कि आप ऐसे दयाशील एवं भक्तवत्सल हैं । आपने जैसे परोपकार भाव स्पष्ट रूप से प्रगट किया है तथा अमूल्य सदुपदेश दिया है इसके लिये मैं इसी जीवन में ही नहीं बल्कि जन्मांतर में भी आभारी रहूँगा, इतने दिन मैं वास्तविक अहिंसा से वाफिक नहीं था अब आपकी कृपा से कुछ हृदयंगम हुआ है, और होने की आशा है, जिससे मेरा भविष्य सुधर जायगा, अतएव आपसे पुनः अर्ज है कि यहां कुछ दिन ठहर कर मेरी भवितव्यता में ज्ञान का सहयोग देकर कृतार्थ करें, और एक विनती है कि आप जो मेरे लिये तकलीफ उठाकर दूर देश से पधारे हैं इसके बदले में मैं जो कुछ देना चाहता हूँ उसे स्वीकार करें। _ आपके कथनानुसार मेरी लक्ष्मी आपके उपयोग में नहीं आती क्योंकि आप अपने शरीर पर भी मूच्र्छा नहीं रखते तो लक्ष्मी का तो कहना ही क्या ? फिर भी निवेदन है कि मेरे आग्रह से आपके उपयोगी पुस्तक भंडार ले लेवें। यह पुस्तक भंडार फतहपुर सीकरी पर पद्मसुन्दर नामक नागपुरीय तपगाच्छीय एक जैन यति का था। उसका अंतकाल हो जाने पर प्रेम के नाते दरबार में मंगवा लिया, और उसी समय विचार कर लिया था कि जब कोई सुयोग्य विद्वान् महात्मा मिलेंगे तब उन्हें भेंट कर दूगा, इस भंडार में पुस्तक के सिवाय कुछ नहीं है सिर्फ भागवत पुराण रामायण श्रादि शैव शास्त्र न्याय व्याकरण साहित्य वेदान्त साँख्य मीमांसा छंद अलंकार जैनागम और नाना देशीय इतिहास आदि अनेक ग्रन्थ हैं, इस भंडार के योग्य पात्र न देखने के कारण मैंने किसी को देना उचित न समझा किन्तु आज मेरे भाग्यवश आप जैसे सुविहित महात्माओं का आगमन हो गया इस लिये आपको सुपुर्द कर मेरे सिर का भार हल्का कर रहा हूँ। इतना For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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