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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ कहने के बाद खानखाना नाम के अफसर द्वारा पुस्तकों की मंजूषाएँ (पेटीयें) सामने मंगवा कर आपको भेंट कर दी । सूरिजी ने उसे अस्वीकार करते हुए कहा कि आवश्यकतानुसार पुस्तकें हमारे पास हैं, फिर लेकर उसकी आशातना क्यों करें, आत्म साधन में मुख्य सहायक होने के कारण पुस्तकों का रखना, आवश्यक होने पर भी जरूरत से अधिक रखना ममत्व के हेतु परिग्रह ही हो जाता है । इतने में अबुल फजल सूरिजी से कहने लगा है महाराज ! यदि आप इसको भी स्वीकार न करेंगे तो हम लोगों की आत्मा अत्यन्त दुःखमय हो जावेगी, तो फिर आपकी हिंसा कैसे रहेगी ? अकबर और अबुल फजल के अत्याग्रह से बाध्य होकर सूरिजी ने पुस्तक भंडार को स्वीकार करके "अकबरीय भांडागार" के नाम से आगरा में श्री संघ को सुपुर्द कर दिया । सूरिजी के पास अकबर बादशाह तथा अबुल फजल आदि विनोद की बातें करते थे । इतने में वीरबल ने पूछा कि महाराज ! शंकर सगुण है ? सूरिजी ने कहा कि हां सगुण है । उसने कहा कि मैं तो शंकर को निर्गुणी मानता हूँ । गुरुजी ने कहा नहीं । कदापि नहीं । मैं पूछता हूँ कि शंकर को आप ईश्वर मानते हैं ? वीरबल बोला जी हां। सूरिजी ने कहा ईश्वर ज्ञानी या अज्ञानी ? वीरबल ने कहा कि ईश्वर ज्ञानी है ! सूरिजी बोले ज्ञानी किसको कहते हैं ? वीरबल ने कहा कि ज्ञान वालों को । सूरिजी ने कहा कि ज्ञान गुण है कि नहीं ? उसने कहा कि ज्ञान गुण है ! सूरिजी ने कहा ज्ञान गुण है ? वीरबल ने कहा कि जी हां, ज्ञान गुण है । गुरुजी ने कहा कि जब आप ज्ञान को गुण मानते हैं तब शंकर भी ज्ञानयुक्त है । इस लिये शंकर सगुण हो गया। इस पर वीरबल बोला कि महाराज ! आपने तो बहुत ही सरल एवं सुन्दर रीति से स्पष्ट रूप से समझा दिया, और मैं भी समझ गया । आपकी अलौकिक विद्वता पर आनंद For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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