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इधर उन्ना नगर में जगद्गुरु श्रीमद्विजय हीर सूरीश्वरजी महाराज अपना अन्त समय जान कर चौरासी लाख जीवायोनियों के साथ क्षमापन करते हुए चार शरणा (अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली भाषित धर्म) को स्वीकार करके अपने मंडल को एवं श्रद्धालु श्रावकों को एकत्रित करके अंतिम उपदेश देने लगे।
हे श्रद्धालु मुनिगण! एवं भक्त श्रावकगण! अब थोड़े ही समय में मेरी मत्यु होने वाली है इससे मुझे चिन्ता नहीं है क्योंकि मरण का भय नाश करने के लिये तीर्थङ्कर जैसे महापुरुष भी समर्थ नहीं हुए, कहा भी है कि
तित्थयरा गण हारी, सुखबईणो चक्कि केसवा रामा
संहरिया हय विहिणा, का गणणा इयर लोगाण ॥१॥
जब तीर्थङ्कर गणधर देवता चक्रवर्ती के राव राम आदि सभी इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, तब इतर लोगों का तो कहना ही क्या है ?
हे भव्यात्मन् ! आप लोगों को भी अपने अपने संयम की आराधना में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है कि पट्टधर विजयसेन सूरि मेरे स्थान पर मौजूद है। धीर वीर गम्भीर वह आचार्य तुम्हारे जैसे पंडितों द्वारा मुख्य कर सेवनीय है। सर्वदा उनकी आज्ञा पालन करते हुए परस्पर प्रेम भाव से रह कर परमात्मा वीर के शासन की उन्नति करने में कटिबद्ध रहना। इस पर साधु और श्रावक दोनों ने तथास्तु कहते हुए आपके वचनों को सादर स्वीकार किया।
इस प्रकार सबको सावधान करके पंच परमेष्ठी की साक्षी पूर्वक अनशन करके मोक्ष सुख को देने वाला नमस्कार महा मन्त्र का ध्यान धरते हुए मन वचन और काया के पवित्र योगों से आत्म निन्दा के साथ प्राणी मात्र से मैत्री भाव बढ़ाते हुए जगद् गुरु निबन्ध नायक सं० १६५२ भाद्रपद शुक्ला एकादशी गुरुवार के दिन भव सम्बन्धी
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