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एक समय अकबर अपनी राजसभा में बैठा हुआ था, उस वक्त किसी गांव के व्यापारी ने दो मुक्ताफल भेंट किये। उसकी कीमत बारह बारह हजार की थी, अकबर ने समीपस्थ भंडारी को देते हुए कहा कि इनकी पूरी रक्षा करना । सभा विसर्जन होगई।
भंडारी अपने घर गया, अपनी भार्या को मंजुषा में रखने के लिये दे दिया । स्त्री ने भी स्नान करने की तैयारी में होने के कारण पेटी में न रख कपड़े में बांध कर कहीं गुप्त स्थान पर रख दिया । दैव वशात उनकी अचानक मृत्यु हो गई । समय पर अकबर ने भंडारी से याचना की। भंडारी मुक्ताफल लेने के लिये घर गया, सारी जगह
ढली फिर भी कहीं पता न चला कि वह कहां रखा गया है । अकबर को क्या उत्तर दूगा? चेहरे पर अगाध उदासीनता थी, हृदय में अपार चिंता थी, चलने का वेग बड़ा मंद था, इसी तारतम्य दशा में अकबर की तरफ लौट रहा था, किन्तु भाग्योदय से उपाध्याय श्री शान्तिचंद्रजी महाराज का पधारना हो गया, भंडारी को उदासीन देख बोले, क्यों आज उदासीन मालूम पड़ रहे हो ? क्या कोई खो गया है ? उसने भी प्रसंग देख सारी घटना कह सुनाई । उत्तर में उपाध्याय जी ने कहा कि तुम अपने घर जाकर जहां तुमने दी थी, उसी जगह कहो कि मेरी चीज दो, तुम को मिल जायगी।
उपाध्यायजी के वचन सुन भंडारी बड़ा प्रसन्न हुआ, घर गया देखा तो स्त्री स्नान करने की तैयारी में पाई, याचना की तुरन्त कपड़े से खोल मुक्ताफल दे दिये और अदृश्य हो गई । भंडारी बड़ा विचार में पड़ गया कि गुरुदेव ने यह क्या जादू किया। गुरुदेव के पचनों पर बड़ी श्रद्धा और आश्चर्य प्रगट करता हुआ अकबर बादशाह के पास पहुँचा और मुक्ताफल समर्पण कर दिया। अकबर ने कहा क्या बात है आज बड़े प्रसन्न दीख रहे हो ? उसने भी उपाध्याय की सारी कथनी कह सुनाई। अकबर भी बड़ा आनन्द अनुभव करने लगा।
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