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कुछ समझो मेरे पास यही जड़ी बूटी है अभी इस गांव में मेरे गुरुदेव बिराजे हुए हैं ।
परम प्रिय वचन सुनकर ब्राह्मण ने सोचा कि नाम से ही सर्प विष चला गया, तो मेरी दरिद्री अवस्था मिटने में क्या देरी लगेगी ? ऐसा मन ही मन विचार पूर्वक गुरुदेव के चरणों में पड़कर बोला, महाराज ! आपके नाम के प्रभाव से ही विष चला गया, इसलिये मेरी आप से प्रार्थना है कि मेरी दरिद्री अवस्था मिटाकर अच्छी अवस्था बना दीजिये ! क्योंकि आपके नाम में इतनी शक्ति है तो, वचन में तो पूछना ही क्या ? महरबानी करके कुछ पैसा का भी प्रबन्ध करवा दीजिये, यह मेरी हार्दिक पुनः पुनः प्रार्थना है, गुरुदेव ने कहा कि भाई ! मैं तो साधू हूँ, मेरे पास न तो पैसा है और न जमीन ही ! ब्राह्मण ने पुनः निवेदन किया कि जो कुछ भी देकर के अनुग्रहित करें ! इस समय गुरुदेव ने उच्च स्वर से कहा कि धर्मलाभ ! ब्राह्मण यह चार अक्षर सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ कि सारी सिद्धि इसी मंत्र में है ! ब्राह्मण जाने लगा, समीपस्थ श्रावकों ने विचार किया कि गुरुदेव के चरणों में अपनी कहानी सुनाई और खाली हाथ जाने देना शोभा नहीं होगी ! ब्राह्मण को पारितोषिक देकर विदा किया, वह भी गुरुदेव
यशोगान में अभिवृद्धि करने लगा । पाठक ! देखिये ! उस वक्त की श्रद्धा और उदारता और आजकल की मनोमालिन्यता ! अपना उद्धार तभी हो सकेगा जबकि श्रद्धा और उदारता को हृदय में स्थान देंगे।
इधर उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी जगद् गुरुदेव के विरह से खिन्न प्राणियों को अपने उपदेशामृत द्वारा सान्त्वना देने लगे और गुरु सदृश ओजस्वी भाषण देते हुए जनता को रंजित करने लगे, तथा बादशाह से सम्मानित श्राम दरबार में भी प्रतिरोज विद्वद् गोष्ठी करने लगे ।
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