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है उनको दबाना, उनका नाम है धर्म, यह चीज ऐसी है जो कि दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को बचा लेती है। इसलिये इसका नाम है धर्म । उन कारणों को कार्य में (धर्म में) उपयोग करने से कारण भी धर्म कहा जा सकता है और इसीलिये एक प्रकार का धर्म दो प्रकार का धर्म, तीन, चार, पांच, छ, सात, आठ, नव, दश प्रकार का धर्म । ऐसे भेद सिद्धान्तों में माने गये हैं।
धर्म वही कहा जाता है, जिससे हृदय शुद्ध एवं पवित्र हो, आत्मा का विकास एवं कर्मों का सर्वथा क्षय हो इसी तरह दान देना, ब्रह्मचर्य पालन करना, दूसरे की सेवा करना, अहिंसा और संयम का पालन करना, तप तपना, इत्यादि धर्म है। क्षमा करना, शास्त्रों का पढ़ना, संसार त्याग कर साधु बनना, ईश्वर उपासना करना यह सब धर्म है । क्योंकि इन कर्मों से पुण्य-धर्म होता है। आत्म विकास होता है । जैन धर्म के तीर्थङ्करों ने इस प्रकार धर्म का प्रतिपादन किया है। अहिंसा धर्म के ऊपर फिर कभी समझाऊँगा। क्योंकि अभी आपको आत्म स्वरूप बतलाया है । इसलिये आप पहले आत्मा का स्वरूप सुन लीजिये। ___ आत्मा कहो, जीव कहो, चेतन कहो यह सब एक ही चीज का पर्यायवाची शब्द है। आत्मा का मूल स्वरूप सच्चिदानन्दमय है।
आत्मा अरूपी है। अभेदी है अच्छेदी है। जैसा कि ईश्वर है। लेकिन ईश्वर और इस आत्मा में इतना ही अन्तर है कि ईश्वर निर्लेप है, शुद्ध स्वरूपी है और यह आत्मा ढका हुआ है। आच्छादित
आवरण सहित है। यही कारण है कि संसार में परिभ्रमण करता है। सुख दुःखों का अनुभव करता है। इन आवरणों को जैन शास्त्रकार “कर्म" कहते हैं । चैतन्य शक्ति वाले आत्मा ऊपर जड़ ऐसे कर्म लगे हुए हैं इसी के कारण यह आत्मा नीचे रहता है । जैसे कोई तुंबा हो, उस तंबे का स्वभाव तो है पानी पर तैरने का, परन्तु उसको मिट्टी
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