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नाम का एक नागोरी श्रावक था। अकबर के कहने से जगद् गुरुदेव ने दीक्षा देकर जीतविजय नाम रखा। परन्तु वह बादशाही यति के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ।
एक समय जगद् गुरुदेव अकबर की सभा में धर्मचर्चा कर रहे थे, उस वक्त मायावी एवं स्पर्धालु, मुसलमानों का बड़ा फकीर मुकनशाह ने आते ही विवाद उठाया और कहा कि मैं देखता हूँ कि मेरी इस जरजर कंथा को कौन उठा सकता है ? इस पर कई एक सज्जन सभा में से उठ खड़े हुए, कंथा को उठाने के लिये कोशिश करने लगे । परन्तु उठे भी तो कैसे ? क्योंकि मंत्र प्रयोग द्वारा बहुत वजन कर रखा था। आखिर सब थक चुके । गुरुदेव के शिष्य ने कहा कि अगर मुझे आदेश दिया जाय तो मैं घास की सली से तीन हाथ दूर फेंक दू'। फिर क्या था ? गुरुदेव की आज्ञा पाते ही दूर फेंक दी। देखने वाले दांतों तले अंगुली दबाने लगे। मुकनशाह का भी अभिमान कुछ कम हो गया, परन्तु था पूरा मन्त्रवादी। दूसरा प्रयोग किया फिर भी हार हुई । उस वक्त गुरुदेव के शिष्य ने सोचा कि यह बड़ा अभिमानी है, गर्मी से पारा बहुत ऊंचा चढ़ा हुआ है, थोड़ा नीचे उतार दू तो ठीक रहेगा, नहीं तो प्रतिदिन यह विवाद करता ही रहेगा। ऐसा सोच कर २१ पाट उपरा उपरी लगा कर के जगद् गुरुदेव को ऊपर बैठाया, फिर नीचे से एक एक पाट करके २० पाट निकाल लिये, एक पाट बिना किसी के सहारे आकाश में देख कर मुकनशाह की अहंभावना एकदम खत्म हो गई । और बिना किसी के पूछे ही मार्ग लेना सूझा, क्योंकि जैन फकीर बहुत ही तक्कड़े होते हैं इस लिये अब मेरी यहां दाल नहीं गल सकेगी। ऐसा विचार कर के जरजर कंथा को भी वहीं छोड़ कर निकल पड़ा। दर्शक लोगों की श्रद्धा जगद् गुरु देव के प्रति बहुत मजबूत हो गई और उनके प्रति श्रद्धा का पूरा भाव हो गया । क्यों न हो! प्रतापी पुरुष की सर्वत्र विजय ध्वनि गूंज उठती है।
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