Book Title: Jagad Guru Hir Nibandh
Author(s): Bhavyanandvijay
Publisher: Hit Satka Gyan Mandir

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से ले जाना! नाहक कष्ट बरदाश्त करने की भावना रखता है उत्तर में विजयराज ने कहा कि जहांपनाह ! आपने कहा सब कुछ ठीक है, परंतु बिना कष्ट सुख मिल भी नहीं सकता, आप जिसको मुख मानते हैं वही महा दुःख का कारण बनेगा। मैं अभी दुःख देखूगा, मगर परिणाम में अत्यन्त सुख मिलेगा। इसलिये मनुष्य को भविष्य का पहले सोच कर तद्नुसार प्रवृत्ति करनी चाहिये, ताकि पश्चात्ताप करने का अवकाश न मिले । दूसरी बात यह भी है कि विपदाओं और संकटों से परिपूर्ण संसार को छोड़ कर मेरे पिताजी ने त्याग मार्ग अपनाया है तो क्या मैं संसार में पड़ा रहूँगा ? कभी नहीं ! आप जल्दी आज्ञा प्रदान कीजिये ताकि मैं अपने जीवन को सफल बनाने में लग जाऊं ! विजयराज की मानसिक दृढ़ता को देखकर अकबर को शीघ्र आज्ञा देनी पड़ी, और सानन्द गुरुदेव के चरणों में दीक्षा स्वीकार करने के लिये भेंट करना पड़ा। गुरुदेव भी महोत्सव पूर्वक एवं अकबर आदि राज कर्मचारियों की उपस्थिति में दीक्षा देकर नाम राजविजय रखा, परन्तु बादशाही यति के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ ! सज्जनो! पहले कैसी परिक्षाएं होती थी ? और आज क्या हो रहा है ? जरा एकान्त में बैठ वर्तमान की परिस्थिति पर दृष्टिपात करें! चातुर्मास के बाद अकबर के आग्रह से उपाध्याय शान्तिचंद्रजी को यहीं छोड़कर सूरिजी विहार करके आगरा होते हुए मथुरा के प्राचीन जैन स्तूपों की यात्रा करते हुए ग्वालियर पहुँचे जहां कि गोप गिरी स्तूपों पर आई हुई विशाल काय भव्याकृति जिन प्रतिमा (बावन गजा के नाम से प्रसिद्ध है) के दर्शन कर सं० १६४१ का चातुर्मास करने के लिये इलाहाबाद आ पहुँचे, भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए अहिंसा परमो धर्म पर अत्यन्त जोर देकर आततायियों की बुरी आदत को छोड़ाते हुए गांवों गांव घूमते हुए पुनः आगरा पधारने पर सं० १६४२, का चातुर्मास संघ के आग्रह से करके यहां पर श्री For Private and Personal Use Only

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