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भाव से यही कहा कि गुरुदेव ! जैसा आपका इरादा होगा वैसा ही कार्य शीघ्र पूर्ण होने की आशा है, तदन्तर परस्पर सलाह करके संवत् १६१० मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी के दिन शुभ मुहुर्त में महोत्सव पूर्वक सिरोही नगर के श्री चतुर्विध संघ समक्ष विबुध शिरोमणि विजयदानसूरिजी ने तपागच्छ के साम्राज्य रूप वृक्ष के बीज भूत श्री हीरहर्ष वाचक को आचार्य पदवी से विभूषित करते हुए श्री हीर विजय सूरि नाम रखा।
श्री हीरसूरि आचार्य पद कुण्डली । के १० / र.बु., ११ श. मं. ६ - ७
१२ चं.
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४ रा. आचार्य पदवी का उत्सव सुप्रसिद्ध राणकपुर के मन्दिरजी का निर्माता संघपति धरणाशाह का वंशज और दुदा राजा का मन्त्रीश्वर चांगा संघपति ने किया जिस दिन आप आचार्य पदवी पर आरूढ हुए उस दिन दुदा राजा ने अपने राज्य में अहिंसा पलाने की घोषणा करदी।
प्रिय पाठकवृन्द ! देखिये प्राचीनकाल में प्राचार्य पदवी की कैसी मर्यादा और महत्ता थी । भाग्यवान पुरुष पदवी को नहीं चाहते थे किन्तु पदविये, पुण्यशाली मनुष्यों को ढूढा करती थी, खेद का विषय है कि आजकल के अहंभावी साधु साध्वी पदवियों के पीछे लालायित रहते हैं, गृहस्थों के हजारों रुपये का पानी करवा देते हैं,
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