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बाद में बादशाह अकबर ने कुशलवार्तादि पूछ कर दी हुई तकलीफ की क्षमा मांगी, सूरिजी ने जवाब में कहा कि हमारे लिये तकलीफ कोई नहीं है तो क्षमा किस चीज की ? इतने में सेठ थानसिंह बोला कि जहांपनाह के फरमान को पाकर गंधार बन्दर गुजरात से पांव चलते हुए गुरुदेव ने यहां पर पधारने का जो कष्ट किया है तदर्थ हम लोगों को माफी मांगना उचित ही है।
यह बात सुनते ही अकबर चौकन्ना हुआ बोला कि अहमदाबाद के सुबेदार शाहबुदीन अहमदखां ने अपनी कृपणता के कारण ऐसे बाबा के लिये सवारी का इन्तजाम तक नहीं किया ? जिससे ऐसी वृद्धावस्था में भी मेरे लिये आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा, खां साहेब के प्रति कोपायमान बादशाह को देखकर सूरिजी ने कहा कि खां साहब का कोई दोष नहीं है चूंकि उन्होंने तो सब कुछ प्रबन्ध कर दिया था परन्तु हमारे नियमानुसार वे चीजें काम में नहीं आने से हम पांव पैदल ही चले आये।
बादशाह ने विस्मित होकर थानसिंह की ओर देखकर कहा थानसिंह ! ऐसे फकीरों के कठिन नियमों से मैं तो वाकिफ नहीं था तं तो अच्छी तरह जानता ही था फिर मुझे पहले ही क्यों नहीं कहा ताकि फरमान न भेजकर बाबा के दर्शनार्थ अपने खुद ही चले जाते, नाहक फकीर को तकलीफ दी, साथ ही साथ समाधि में विघ्न डाल कर मैं पाप का भागी बना, थानसिंह लज्जावश उत्तर न देकर मौन रहा, इतने में बादशाह स्वयं थानसिंह को कहने लगा कि हां मैं तेरी बनीयासाई बाजी समझ गया तंने खुद अपने मतलब के लिये मुझे ऐसे कठोर नियमों से अज्ञात ही रखा । सूरिजी का आजदिन पर्यन्त इस प्रांत में न कभी पधारना हुआ और न तुमको गुरु सेवा करने का मौका मिला, यदि तेरे गुरुजी यहां आजाते तो तुमको उनके स्वागत में खर्चा करना पड़ता ! अच्छा अब भी गुरु महाराज की पूरी भक्ति
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