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एवं विमल हर्ष उपाध्याय पद से अलंकृत किये गये । सूरिजी ने जय विमल को आचार्य पदवी देने के समय श्री विजयसेनसूरि नामकरण किया । इस उत्सव में सम्मिलित सज्जनों का एक-एक रुपये की प्रभावना दी गई और याचक वर्गों का द्रव्य वस्त्रादि द्वारा सन्तुष्ट किये गये ।
यह दोनों गुरु शिष्य आचार्य श्री तपागच्छ रूपी शकट को चलाने में धूरी रूप बन गये और भव्य जीवों के हृदय क्षेत्र में धर्मंकुर को रोपते हुए पृथ्वीतल को पावन करने लगे, उस समय कुतोथियों का प्रचार अनेक स्थानों से उठता हुआ स्त्रार्थ लीला की महिमा का अधःपतन हो गया, एक समय गुजरात प्रदेश में विचरते हुए दोनों प्रतिभाशाली आचार्य को अचानक अभूतपूर्व घटना देखने में आई । वह क्या ?
लूंकागच्छ का अधिकारी सर्वेसर्वा मेघजी नामका एक सुयोग्य विद्वान् था । उसने स्वयं शास्त्र पढ़ते हुए मूर्ति पूजा का उल्लेख देखकर आचार्य श्री हीर विजयसूरिजी के पास अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने की आकांक्षा प्रकट की, एवं मेघजी के २७ साधुओं ने भी उक्त सूरिजी के सन्मुख उपस्थित होकर अपने हृदय की भावना दरशाई । इस पर अहमदाबाद में विराजमान उक्त आचार्यदेव ने मेघजी आदि साधुओं को लंकागच्छ की दीक्षा का त्याग करवा कर अति महोत्सव पूर्वक संवेगी दीक्षा प्रदान कर उद्योतविजयजो नाम रखा अब नूतन २७ मुनियों को संवेगी शिक्षा क्षेत्र में उतारते हुए आवश्यक क्रिया कांड में कुशल बनाने लगे। मुनि उद्योतविजयजी आदि २७ शिष्यों ने भी गुरुदेव की सेवा में रह कर अध्ययन करते हुए विनय युक्त पारस्परिक भाव से विद्वद्गोष्ठीमय समय व्यतीत करना शुरू किया ।
कुछ समय के बाद अहमदाबाद से विहार करके आचार्य उपाध्याय पंडित आदि साधु महा मंडल सहित आचार्य श्री हीरविजय पूरिजी विचरते हुए श्री अणहिलपुर पाटन में आ पहुंचे । चातुर्मास
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