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एक समय सूरिजी रात्रि में संथारापोरीसी (शयन कालिक पाठ) पढाकर गच्छ सम्बन्धी विषय की चिंता करते हुए तंद्रा देवी को प्रत्यक्ष कर रहे थे, उस समय अधिष्ठायक देव ने कहा कि हे सूरीश ! आप अपने पाट पर सुयोग्य पंडित शिरोमणि श्री जयविमल को प्रतिष्ठित करके चिंता राक्षसी के मुख से बहिर्भूत हो जाइए, यह श्री महावीर परमात्मा के पाट परम्परा पर एक दिवाकर रूप होने वाला है, यह शब्द सुनते ही सूरिजी ने तंद्रा मुक्त होकर अपने शिष्यों को देव की बातें कह सुनाई, तब वाचक पंडित गीतार्थ प्रमुख समस्त साधु ने नम्रतापूर्वक आचार्यदेव से प्रार्थना की, हे प्रभो ! श्री संघ के साथ हम लोगों की इच्छा है कि जयविमल पन्यास को आचार्य पद पर आसीन कर देना चाहिये ! देव वाणी श्री संघवाणी और साधुओं के अभिप्राय, इन त्रिपुटियों से आचार्यजी ने एवमस्तु कह दिया, तत्पश्चात् अहमदाबाद श्री संघ के अत्याग्रह से आचार्य पदवी का अठाई महोत्सव धूम धाम पूर्वक होने लगा। नगर सेठ श्री मूलचन्द ने जिन पूजा गुरू भक्ति ज्ञान प्रभावना स्वामी वात्सल्य आदि धर्म कर्मों के फल को जिनागम में कहे हुए समझ कर अपनी शकत्यनुसार उत्साह पूर्वक श्री शत्रुजय तीर्थ पर ऋषभदेव भगवान के मन्दिर की दक्षिण पश्चिम दिशा में चैत्य बनाने की तरह इस महोत्सव में भी पूर्ण स्वोपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करके अमूल्य लाभ प्राप्त किया, एवं इस उत्सव के उपलक्ष में नगर सेठ ने शहर में दान शालाएँ खुलवाई, जगह जगह पर धवल मंगल गायक बैठाये, वरघोडे निकलने लगे और स्वामि वात्सल्य की धूम मचने लगी। इस प्रकार सर्वालंकार से अलंकृत चंचला लक्ष्मी महोत्सव की अपूर्व शोभा बढ़ाने लगी। ..इस प्रकार समारोहपूर्वक संवत् १६२८ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन शुभ समय में जयविमल को उपाध्याय पद के साथ आचार्य पद पर विभूषित करते हुए पद्मसागर और लब्धिसागर पंडित पद से
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