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बधाई में ग्यारह लाख बावन हजार रुपये का दान दिया। पाठक ! इससे अनुमान कीजिये कि वह गुरुदेव का कैसा भक्त होगा ! दरअसल श्रद्धा ही मानव का सच्चा भूषण है।
गुरु महाराज ने अकबर के फरमान को पढ़कर एवं श्रीसंघ का सानुरोध आग्रह देख कर मन ही मन सोचा कि अकबर बादशाह यद्यपि इस्माल धर्मावलम्बी है फिर भी सत्य प्रेमी तत्व जिज्ञासु और धर्मनिष्ठ है क्योंकि हिन्दू मुसलमान ख्रिस्ती और पारसी आदि विशेषज्ञों को अपनी सभा में बुलाकर उनके मजहब का सिद्धान्त सुनने की भावना रखता है, अतः वहां जाकर उसे धर्मोपदेश देने से बादशाह के कारण सारी प्रजा में भी जैन धर्म का प्रचार अधिक रूप से होगा, ऐसा विचार विनिमयपूर्वक श्री संघ की प्रार्थना को सूरिजी ने स्वीकार करली, तद्नुसार सं० १६३८ मार्गशीर्ष कृष्णा ७ के दिन शुभ समय में गंधार बन्दर से प्रस्थान किया।
तदनन्तर अहमदाबाद के भक्त श्रावक सहित सूरिजीमही नदी को पार करते हुए बटलद नामक नगर आदि गांवों में होकर के खंभात पहुँचे । जैन समुदाय ने भारी स्वागत किया, बाद वन्दना पूर्वक कुशल क्षेम पूछने पर सूरिजी ने धर्म-लाभ रूप शुभाशीर्वाद के पश्चात् धर्मोपदेश प्रारम्भ किया।
गुरु महाराज इसी खंभात में एक वक्त पहले पधारे थे, उस वक्त एक श्रावक के घर लड़का बीमार था तब मांगलिक सुनाने के लिये गुरुदेव घर पर पधारे। तब उस भक्त ने कहा कि गुरुदेव ! यह बच्चा होशियार हो जाय तो मैं आपके चरणों में दीक्षा के लिये भेंट कर दंगा। गुरु कृपा एवं वासक्षेप के प्रभाव से थोड़े ही दिनों में लड़को बीमारी से मुक्त हो गया। घूमते हुए गुरुदेव का इस समय खंभात वापिस पधारना हुआ। उस भक्त को कहा कि अब बच्चे को दीक्षा दे दीजिये, तब भक्त ने अपने सगे सम्बन्धियों द्वारा कलह
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