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पूरते ही नारदपुरी के समस्त श्रीसंघ ने मिल करके आचार्य गुरुदेव से प्रार्थना की। हे प्रभो ! हम लोगों का यह विचार है कि पंडित पढ़ से उपाध्याय पद दिया जाय । तो बहुत ही उत्तम होगा । गुरुदेव के हृदय सरोवर में भी इस बात की लहरें चल रही थी और संघ ने आग्रह भरी विनंती की जिससे गुरुदेव के विचार पूरे दृढ़ ( मजबूत) हो गये । श्रीसंघ की साक्षी में श्री नेमीनाथ भगवान् के मन्दिर में सूरि शिरोमणि श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा शुभ समय में हीरहर्ष पंडित को सं० १६०८ में उपाध्याय पद से त्रिभूषित किये गये । आप भी अब उपाध्याय जी के कर्तव्य में पूरे संलग्न रहने लगे ।
उपाध्याय पद देने के पश्चात् वादिगज केसरी श्री दानसूरिजी अपने अंतःकरण में सोचा कि मेरे बाद भावी तपागच्छनायक श्री ही हर्षोपाध्याय ही होगा। चूंकि दूसरों की अपेक्षया इसी की योग्यता एवं विद्वता अधिक है इसलिये इसको सूरिपद पर बैठा देना चाहिये ऐसा विचार कर आचार्यदेव ने सूरि मन्त्र की आराधना प्रारम्भ कर दी । जब आराधना करते हुए तीन मास पूरे होने में आये तब सूरि मन्त्र का अधिष्टायक देव सूरिजी महाराज के सन्मुख प्रत्यक्ष होकर प्रसन्नचित्त से कहने लगा । हे धर्म नायक ? हीर हर्षोपाध्याय को आचार्यपद अविलम्ब दे दीजिये । क्योंकि आपके पट्टालंकार एवं उत्तराधिकारी होने की शक्ति इसी उत्तम पुरुष में है । इतना कह कर देव अंतर्ध्यान हो गया
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सूरिमन्त्राधिष्ठित देव का उक्त परिमित वचन सुन कर के सूरिजी ने अत्यन्त प्रमोद भरे हृदय से अपने मन में विचार किया कि यह बड़े आश्चर्य की घटना हुई कि इष्टदेव ने भी मेरे ही अभिप्राय को स्पष्ट रूप से अनुमोदन किया । तुरन्त ही सूरिजी ने शिष्य मण्डल में आकर देव की कही हुई बातें कह सुनाई । गुरु देव के प्रेम भरे शब्दों को श्रवण करके समस्त साधु मन्डल ने नम्र
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