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फिर भी पदवी का स्वप्न देखते हैं,अथवा दो चार व्यक्तियों को प्रसन्न कर कोई टाइटल पाकर कृतकृत्य हो जाना ही क्या यथार्थ पदवी लेना है ? नहीं कदापि नहीं । यह तो केवल आडम्बर मात्र है वास्तविक शोभा इसमें नहीं है, यदि उच्च पद पर बैठने की इच्छा है तो पदवी परमात्मा के घर की लेने के लिये पूरा परिश्रम करना चाहिये किन्तु ठीक है। निर्नाथ जैन समाज में नहीं हो सो ही कम है।
सिरोही से विहार करते हुए शासन सम्राट विजयदानसूरिजी ने हीरविजयसूरि को पाटण शहर में पृथक चातुर्मास करने की आज्ञा फरमाई और आप स्वयं कोकण देश की भूमि को पावन करते हुए सुरत बंदर पधारे।
इधर जयसिंह नामक एक बालक अपनी माता के साथ मामा के घर पर एश आराम से दिन व्यतीत करता हुआ सब लोगों को आनन्द दे रहा था, आपका जन्मस्थान मेदपाट (मेवाड़) के अन्तर्गत नारदपुरी में था, नारदपुरी की अन्वर्थ संज्ञा यों है कि नारदमुनि ने मेदपाट की धर्म महिमा को सुन कर नेत्र की तप्ति के लिये आकर पूरी तरह परीक्षा की, परीक्षा के बाद नारद विद्या फैलाने के निमित्त कुछ दिन ठहर गये जिससे वो स्थान नारदपुरी से विख्यात हो गया, मेदपाटाधीश से निज कन्यादान के उपलक्ष में उपहारभूत होने के निमित्त वो नगरी वर्तमान जोधपुर राज्यान्तर्गत गोडवाड प्रान्त में सुशोभित है।
_एक रोज की बात है कि वह बालक अपनी माता से कहने लगा। अंब ! मैं अपने पिता कम्मा ऋषि की भांति जन्म मरणादि विपत्तियों को नाश करने वाली दीक्षा को ग्रहण करने की इच्छा रखता हूँ जो मार्ग मेरे पिताजी ने अपनाया था उसी मार्ग पर मैं भी चलना चाहता हूँ इस बात को सुनकर माता अश्रुपात के साथ कहने लगी,
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