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विचारों पर अटल रहे और वैराग्य की पुष्टि करते हुए भत हरि प्रदर्शित काव्य का अर्थ अपनी बहन को समझाने लगे। जैसे किकाव्यं
भोगे रोग भयं कुले च्युति भयं वित्ते नृपालाद् भयम् । माने दैन्यभयं बले रिपुभयं काये कृतान्ताद् भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खल भयं रूपे जराया भयम् । सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्य मेवाभयम् ॥ १ ॥
अर्थ-भोग में रोग का भय है। कुल में नाश का भय है। धन में राजा का भय है। मान में दीनता का भय है । बल में शत्रु का भय है। देह में यमराज का भय है। शास्त्र में वादविवाद का भय है । गुण में दुष्ट का भय है। रूप में बुढापा का भय है। संसार की समस्त वस्तुओं में भय रहा हुआ है। किन्तु एक वैराग्य ही अभय है । इस तरह वैद्य की भांति वैराग्य रूप औषधि से बहन की की हुई हठ रूपी बीमारी को नाश करके वैराग्यमय जीवन बना कर गुरुजी के पास जाकर के सविधि वंदनापूर्वक गुरुदेव से करबद्ध प्रार्थना करने लगे।
हे गुरुदेव ! हे तरणतारण भगवन् ! मैं आपके चरणों में रोग शोक को जड़ा मूल से उखाड़ फेंक देने वाली सुख सौभाग्य को बढ़ाने वाली, श्री भागवती दीक्षा, ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। अस्थिर संसार में कोई भी सार चीज नहीं है मैंने खूब समझ लिया। अब मेरी हार्दिक यही इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में रह कर सेवा करता हुआ आत्म कल्याण की ओर अग्रेसर बनू। अतएव बहुत ही जल्दी मुझे गृहस्थ वेष से पृथक कर साधु का वेष पहना दीजिये।
इस प्रकार लघु बालक का माधुर्य वचन सुन कर गुरुदेव भी आश्चर्य मग्न हो कर मन ही मन संकल्प विकल्प करने लगे कि
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