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संपादकीय इस काल के अद्भुत आश्चर्य हैं ज्ञानी पुरुष दादा भगवान, जिनके प्राकट्य से एक अकल्पनीय आध्यात्मिक क्रांति सर्जित हुई है। इस कलिकाल में जहाँ यथार्थ रूप से धार्मिक शास्त्रों के स्थूल अर्थ को भी समझना मुश्किल है वहाँ पर उसमें समाए हुए गूढार्थ और तत्वार्थ को कैसे समझा जा सकता है? और यदि वह समझ में न आए तो फिर वास्तविक अर्थ में अध्यात्म को प्राप्त भी कैसे किया जा सकता है?
लेकिन कुदरत की बलिहारी तो देखो! इस कलिकाल में ऐसे प्रखर ज्ञानी पुरुष का अवतरण हुआ जिनके माध्यम से सामान्य व्यक्ति भी आसानी से अध्यात्म को समझ तो सकता ही है, लेकिन इतना ही नहीं यथार्थ रूप से स्वानुभूति भी कर सकता है। मात्र एक ही घंटे में भेदज्ञान के प्रयोग से स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति करवा देना, वह क्या कोई ऐसी-वैसी सिद्धि है ? ऐसे सिद्धिवान व्यक्ति का व्यक्तित्व कितना निराला होगा और उस सिद्धि की प्राप्ति के पीछे क्या भावना या पुरुषार्थ रहा होगा हमें उसे जानने की उत्कंठा हुए बगैर तो रहेगी ही नहीं न?
शिखर पर पहुँचने के लिए तलहटी से उस मार्ग तक प्रयाण करके हर कोई वहाँ पर पहुँच सके तो वहाँ कौतुहलता नहीं होगी, ऐसा स्वाभाविक है लेकिन शिखर पर पहुँचने के लिए जहाँ पर मार्ग ही दृष्टिगोचर नहीं है वहाँ, जब कोई शिखर पर पहुँचकर चारों तरफ का वर्णन करे तब अहोभाव से आश्चर्य हुए बगैर नहीं रहता कि ये व्यक्ति वहाँ पर किस प्रकार से, किस समझ से, कैसे पुरुषार्थ से पहुँच सके होंगे! कोई अनुभवी व्यक्ति ही उसका ऐसा हूबहू वर्णन कर सकता है जो कि बुद्धिगम्य और काल्पनिक नहीं है लेकिन वास्तविक है!
ज्ञानी पुरुष दादा भगवान को 1958 में एकाएक आत्मज्ञान तो हुआ लेकिन उससे पहले, जन्म से लेकर तब तक उनकी जर्नी (यात्रा) किस प्रकार से हुई? क्या मुसीबतें आई? किस प्रकार से सफलता प्राप्त की वगैरह, हमें ऐसे रहस्यों को जानने की जिज्ञासा होना भी स्वाभाविक है। इसी हेतु से महात्माओं ने परम पूज्य दादाश्री से उनके
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