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दान
कथा
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तुमरी जु सरवरि को जु नाही बात सुनो सुखकार जू । तुम जोग लायक हम जुनाहीं यह सुनो निरधार जू ॥४०॥ इतनी जु सुनि करि सेठि बोलो बनिक सुन निह● सही। लक्षमी जु अति चंचल सु जानौ कहुँ सदां जु रही नहीं ॥ अाखरि जु हम तुम एक सबही बात सुनो मन लायक। ज्यों त्यों संवोधो बनिक तबहीं लई कबूल करायकैं ॥४१॥
दोहा । अपनी अपनी गरजकों, इस जगमें नर सोय । कहा कहा करतो नहीं, गरज वावरी होय ॥४२॥ लक्षिमी लोभ दिखायकें, बड़ो करो सनमान । लई कबूल करायकैं , तसु पुत्री गुनवान ॥ ४३ ॥
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