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दान
कथा
AVAVANATANAMAVARANAVARAVAVI
जह लघु भ्राता मेरो जानि । बहुत करे मै ौगुन पानि ॥६॥ | जब मन अाय वाके यही । प्राण हने मो छोड़े नहीं ॥ मलिन चित्त सो रहै बनाय । चिंता करि कछु नाहिं सुहाय॥८॥ एक समय बज्रसेनि कुमार । कहत भयो भ्रातासों सार ॥ ऐसी चिंता ब्यापी कोय । बदन मलीन सु दीखौमोय।।६॥ सो कहिये मोसै भृम खोय । मनमें संका करौ न कोय ॥ मनकी गांठि खोलि करि सबै । सांची भ्रात कहौ सो अबै ॥४००।। १ तबै दुष्ट फिरि कैसें कही। जाकौं कहत लाज नहिं भई।
जब मै देखौं तुम्है कुमार । मोकौं चिंता बढ़े अपार ॥ १ ॥ जौ मरनौ तेरो अब होय । तो मै रहौं निकंटक सोय ॥ | जह बरतै मेरे मनमाहिं । तोसों सांच कही समझाय ॥२॥
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