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दान
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पुत्र कलित्र बढ़े परिवार । जो यह कथा करै बिस्तार ॥ ६८ ॥ दोहा - दानदथा पूरन भई, पढ़ौ सुनौ नित सोय ।
दुख दरिद्र नाशै सबै, तुरत महाफल होय ॥ ६६ ॥ लघु धी तथां प्रमादसों, शब्द अर्थ की भूल ।
सुधी सुधारि पढ़ौ सदां ज्यों पाबौ भवकूल ॥ ७० ॥
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जैसी पुस्तक में लिखी, तैसी छापी
सोय ।
शुद्ध अशुद्ध जुहाये कहूं, दोष न दीजौ मोय ॥ ७१ ॥ इति दानकथा समाप्त ।
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पुस्तकें मिलने का पता - बद्रीप्रसाद जैन पो० नीबकरोड़ी जि० फतेगढ़ |
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