Book Title: Dankatha arthat Vajrasen Charitra
Author(s): Bharamal Sanghai
Publisher: Jain Bharti Bhavan Kashi
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दान
४६
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सत्ताइस
सागर जानो । ताकी तहँ आयु बखानो || ४५|| तहँके दुखकी अब सोई । कहिबे समरथ नहिं कोई || गनधर हू गम्य जु नाहीं । जानै सो केवल माहीं ॥४६॥ तातें नर नारि सुनीजै । बैर भाव कदापि न कीजै ॥ राखौ समता व सोई । तातैं बहुतै सुख होई ॥४७॥ दोहा - इस विधिसों व दुष्ट वह, परो जु नर्क मझार । और कथन आगे भविक सुनो सबै नरनारि ||४८ ||
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चौपाई छंद |
अब तो बर्सेनि मुनिराय । दुद्धर तप कींनो अधिकाय ॥ अंत समाधि मरन सो ठान । शुद्ध भावतें त्यागो प्रान ॥ ४६ ॥ पहुंचे षोडस स्वर्ग मकार । भयो इंद्रपद ताकों सार ॥ बाइस सागर वायु प्रमान । सुंदर रूप सु गुनहिं निधान ||५०||
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कथा
૪૬

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