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दान
हो महराज अरज सुनि लेउ । हमरी अरजी चितमें देउ॥५॥ ही था A एक स्वरूप खड़े जे दोय । इनमैं मेरो पति है कोय ॥
में मझियाए बाक्न राय ।मोकौं पति दीजै जु मिलाय॥६॥ इतनी सुनि करि भूपति जबै । डोंडी नगर दिवाई तबै ॥ सब नगरी लीनी बुलवाय । मंत्री श्रादि जुरे सब अाय॥८॥ मंत्रिनसौं तब भूपति कही । न्याउ करौजाको अब सही॥ तब मन्त्री बोले करजोरि । हो महराज सुनोसु बहोरि॥८॥ सहज न्याव जाको है नाहिं । दैव गती जानै कोई नाहि ॥ बात न्यायकी होती राय । सोजाती किमि बावन राय ॥४॥ तिनपै भयो न्याउ जह नाहिं । अचरज वात कही नहिं जाय॥ तातें भूप सुनौं तुम सोय । हमहूंत जह न्याउ न होय ।।।६०॥ इतनी सुनिक नारी जबै । रुदन करै मनमैं बहु तबै ॥
VACAVACADAV
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