Book Title: Dankatha arthat Vajrasen Charitra
Author(s): Bharamal Sanghai
Publisher: Jain Bharti Bhavan Kashi
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दान
२८
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जब पहुंची नृपके दरवार । खैचिकरी ताने सु पुकार || ७३|| हो महराज अरज सुनि लेउ । मेरी अरजी चितमें देउ ॥ एक स्वरूप खड़े जेदोय । इनमें मेरो पति है कोय ॥७४॥ | मेरो न्याव करौ तुम भूप । न्यायवंत तुम अधिक अनूप ॥ इतनी सुनिकें भूपति जबै। मंत्रिनसों बोलै पुनि तवै ॥ ७५ ॥ जाको न्या करौ सोय । छिन इक ढील करौ मतिकोय ॥ इतनी सुनि करि मंत्रिन कही। हो महराज सुनो तुम सही ॥ ७६ ॥ एक स्वरूप खड़े जे दोय । तिल तुस इनमें फेर न कोय | दैव गती जानी नहिं जाय । हमहूंतें जह होय न न्याय ॥७७॥ चाह तहँ निमटावै जाय । हमरे ध्यान न श्रावै राय ॥ तबै नारि फिरि कैसें कही । हो महराज सुनो तुम सही ॥ ७८ ॥ जो तुमपै जह न्याव न होय । जसबल संग सु दीजै मोय ॥
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