Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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है । जैन परम्परा में धर्म के चार अंग स्वीकार किये है - दान, शील, तप एवं भाव ।
दान = परपीड़ा का परिहार करने वाला है । शील = इन्द्रियों का निरोध करने वाला है। तप = इच्छाओं का निरोध करता है। भाव = सभी जीवों के प्रति स्नेहरूप है।
इनमें दान ही मुख्य एवं प्रथम है । क्योंकि गृहस्थों के लिए तप करना सरल नहीं होता । विषयासक्तों के द्वारा शील पालन भी नहीं होता और आरम्भयुक्त लोगों के हृदय में शुभभाव पैदा होना भी कठिन है, क्योंकि भाव सदा मन-मस्तिष्क के स्वाधीन होने पर ही उत्पन्न होता है। व्यापार आदि की चिन्ता में उलझे हुए मन मस्तिष्क में उत्तम भाव कहाँ से उत्पन्न हो सकते हैं ? उपर्युक्त चतुर्विध मार्ग में से दान ही एक ऐसा मार्ग है जो आसान और सर्वजन सुलभ है।
मानव की यह दानवृत्ति बढ़ते बढ़ते जब अखण्ड जीवनवृत्ति बन जाती है तब उसमें मनुष्यत्व से ऊपर का देवत्व पैदा हो जाता है। देव का अर्थ है निरन्तर देने वाला ।
दान को मनुष्य जीवन का एक श्रेष्ठ गुण कहा गया है। मनुष्य के आचरण से सम्बन्ध रखने वाले गुणों में दान सबसे ऊँचा गुण माना गया है।
___ मनुष्य ने आज तक अपने पूर्वजों से, ऋषि-मुनियों से, सृष्टि से तथा समाज से जो ज्ञान-विज्ञान पाया है, जो सुसंस्कार, सभ्यता और संस्कृति का धन पाया है तथा सेवा और धन सम्पत्ति तथा विद्या-बुद्धि पाई है, उसे चुकाने का उपाय दान के सिवाय और कौन-सा है ? . अनेक जीवों का ऋण यानी कर्ज ले करके यह जीव जगत में आया
उनका ऋण चुकाने के लिए दान ही एक अमोघ साधन है । अर्थात् यों कह सकते हैं कि दान द्वारा कुछ अंशो में ऋण चुकाने का विनम्र प्रयत्न