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[ १६ ] विषयानल तापित तनु समेव । तसु शान्ति करण जलघर समान-मिथ्या विष चूरण गरुड़वान ॥५॥ ते देव सकल तारण समत्थ----प्रगट्यो तसु प्रणमी हुओ सनत्य । इम जम्पी शकस्तव करेवि-तर देव-देवी हरपे सुणेवि ॥६॥ गावे तब रंभा गीत गान-सुरलोक हुओ मंगल निधान । नर क्षेत्रे आरजवंश ठाम-जिनराज वधे सुर हर्ष धाम||७|| पिता-माता घरे उच्छा अशेष-जिन शासन मंगल अति विशेष । सुरपति देवादिक हरप संग-संयम अर्थी जनने उमंग ॥८॥ शुभ वेला लगने तीर्थनाथ-~-जनम्या इन्द्रादिक हर्प साथ। सुख पाम्या त्रिभुवन सर्व जीवबधाई-बधाई थई अतीव ॥६॥
उपरोक्त ढाल-गाथा गाने-बोलने के बाद, हाथों में ली हुई कुसुमांजलि या अक्षतादि से प्रभु को बधावे। बाद में प्रभु प्रतिमा को तीन प्रदक्षिणा व तीन खमासगा देकर, बायाँ घुटना खड़ा रखकर, और दायाँ घुटना जमीन पर टेककर, चैत्यवन्दन करे। यहाँ कहीं-कहीं केवल "शक्रस्तव” “णमुत्थुणं” पाठ "ठाणं संपाविउ कामस्स” तक बोलने का उल्लेख है। और कहीं कहीं "जगचिन्तामणि" बोलकर, "जय वीयराय” पढ़कर ही चैत्यवन्दन करने का उल्लेख मिलता है। जो कुछ भी हो, जहाँ जैसी प्रथा