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पन्द्रह
• ५०-६७ जैन धर्म की विशेषताओं के प्रतिपादन के माध्यम से अनेकान्त
आदि अनेक तथ्यों की स्पष्ट अभिव्यक्ति । ६८-७१ आचार्य भिक्षु की प्रबोध शैली से अनेक महाव्रती तथा अणुव्रती
बनने का उपक्रम । पन्द्रहवां सर्ग
१ दृष्टान्तों का निरूपण क्यों ? २ मुझे पशु बना दिया। ३ मैंने परास्त कर दिया। ४ पाली में दूकान खाली करा दी। ५ साधु का आहार करना अच्छा या बुरा ? ६ गुलोजी गादिया ने खेती की। ७ देसूरी का 'नाथो' दीक्षित हुआ। ८ भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते । ९ दान-दया का लोप कर डाला। १० प्रतिमाधारी श्रावक को दान देना क्या ? ११ पीपाड में मालजी से चर्चा । १२ थारो धणी मरे। १३ साझेदारी में पुण्य करें। १४ कथन का विपर्यास । १५ असंयती को दान । १६ मिश्री खाने से मुंह, मीठा होगा या नहीं ? १७ क्या साधुओं से श्रावक श्रेष्ठ हैं ? १८ पापी कौन ? १९ मैं अपनी एषणाविधि कैसे छोड़ सकता हूं? २० जैसा दूंगी, परभव में वैसा मिलेगा। २१ पति का नाम । २२ पात्र से घी सहित घाट ले ली। २३ भक्तों को लापसी खिलाने में क्या होता है ? धर्मसंघ में तीन
ही तीर्थ। २४ मां को लोटा भर पानी पिलाना।
२५ एकेन्द्रिय को मारकर पंचेन्द्रिय का पोषण । २६-२९ शुद्ध दया कब ?
३० अठारह पापों का त्याग करने से श्रावक भी साधु बन जाता