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करता है वह ससन्देह है। और श्वेताम्बरी लोग जा विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें चला बताते हैं वह बिल्कुल काल्पनिक है ।
महाभारतके तीसरे परिच्छेदको आदिमं दिगम्बरियोंकी बाबत कुछ जिकर आया है । महाभारत वराहमिहिरसे भी बहुत प्राचीन है । इसके बनाने वाले श्रीवेदव्यास महर्षि हैं। जिनके नामको बा २ जानता है। इनके विषय में यदि विशेष शोध करना चाहो तो किसी सनातन धर्मके विद्वानसे जाकर पूछो वह सव या यता सकेगा। वे लिखते हैं कि
* साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोपस्यदय पाध न क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्द्दश्यमानमदृश्यमानं च ||
आशय यह है कि — कोई उत्तक नामा विद्यार्थी अपने गुरुकी भार्याके लिये कुण्डल लाने के लिये गया । मार्ग में पौध्यके साथ उसका वार्तालाप हुआ तो किसी हेतुसे उत्तकन उसे चक्षु विद्दीन होनेका शाप दे दिया। पोप्य भी चुप न रह सका सो उसने घदलेका शाप दे ढाला कि- तूं भी संतान का सुख न देखेगा। अवसानमें यह कहता हुआ कि अच्छा शापका अभाव हो कुण्डल लेकर चल दिया । सो रात में उसने कुछ दीसते हुये कुछ न दीखते हुये नग्न (दिगम्बर) मुनिको वारंवार देखे |
कहो तो नग्न साधु दिगम्बरियोंके ही थे न ? ये वेदव्यास तो आज कलके साधु नहीं हैं। किन्तु इन्हें हुये तो आज कई हजार वर्ष चीत चुके हैं। इस विषय में तुम यह भी नहीं कह सकते कि क्या आश्चर्य है जो ये जिनकल्पी ही साधु हो ? क्योंकि उस समय जिनकल्प विद्यमान था । ब्राह्मणों के प्रन्थोंमें जहां कहीं नमशब्द से सम्बन्ध रखने वाला विषय आता है वह केवल दिगम्बर धर्मसे सम्बन्ध रखता है। खैर ! वैदव्यासतो प्राचीन हुये हैं उनके समयमें तो तुम्हारा
● मुनि आत्मारामजीने भी इस प्रमाणको सत्वनिर्णय प्रासादमे जनमतको प्राचीनता दिखलाने के लिये सद्धृत किया है।