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भद्रबाहु-चरित्र
भीत महाराज चन्द्रगुतिने शरीर गृहादि सब वस्तुओंसे विरक्त होकर अपने पुत्र के लिये राज्य दे दिया । तथा समस्त बन्धु समूहसे क्षमा कराकर भद्रबाहु गुरुकें समीप गया और विनय पूर्वक जिनदीक्षाके लिये प्रार्थना की । फिर स्वामीकी आज्ञासे बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग कर शिव सुखका साधन शुद्ध संयम स्वीकार किया ॥५३-५५॥
एक दिन श्रीभद्रबाहु आचार्य जिनदास शेठके घर पर आहारके लिये आये । जिनदासनेभी स्वामीका अत्यन्त आनन्द पूर्वक आह्वानन किया । परन्तु उस निर्जन गृहमें केवल साठ दिनकी आयुका एक बालक पालनेमें झूलता था । जब मुनिराज गृहमें गये उससमय बालकने-जाओ !! जाओ !! ऐसा मुनिराजसे कहा । बालकके अद्भुत बचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स ! कहो तो कितने वर्षतक ? फिर बालकने
दवा देहे गेहेऽतिसत्रमात् ॥ ५४ ॥ क्षमाप्य कलान्बन्धून्समासाद्य गुरू ततः। प्रश्रयात्रार्थयामास दीक्षां भवाविरफपीः ॥ ५५ ॥ गागंनोऽनुशया भूपो हित्वा सई विधा सुधीः । अाह संयम शुद्ध साधक सिपशर्मणः ॥ ५६ ॥ अपकस्मिन्दिने भो भद्रषाहुः समाययौ । श्रेष्ठिनो जिनदासस्य कायस्थित्यै निकेतने ॥ ५॥
स्वामी परमानन्दाप्रतिपाइ योगिनम् । तत्र शून्यगई बैको विद्यते केवळ शिवः ॥ ५८ ॥ मोखिकान्तर्गतः पाठदिवसमामितस्तदा । गच्छ गच्छ ।। पोषादीमत्वा मानिना तम् ॥ ५९ ॥ शिशुकः पुनस्तन कियन्तोऽन्दा: