Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 67
________________ समूलभाषानुवाद | कहा - बारह वर्षपर्यन्त । बालकके बचनसे मुनिराजने निमित्त ज्ञानसे जाना कि मालवदेशमें चारह वर्षपर्यन्तभीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा। दयालु मुनिराज अन्तराय समझ कर उसीसमय घर से वापिस वनमें चले गये ॥ ५६-६१॥ पश्चात् श्रीभद्रबाहु आचार्यने-अपने स्थान पर आकर समस्त मुनिसंघ को बुलाया और तप तथा संयमकी वृद्धिके कारण वचन यों कहने लगे - साधुओं ! इस देशमें बारह वर्षका भीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा । धनधान्य तथा मनुष्यादिसे परिपूर्ण और सुखका स्थान यह देश चोर राजादिके द्वारा लुटाकर शीघ्र ही शून्य हो जायगा । इसलिये संयमी पुरुषों को ऐसे दारुण देश में रहना उचित नहीं है । इसप्रकार स्वामी के वचन सम्पूर्ण सङ्घने स्वीकार किये और भद्रबाहु मुनिराजने भी उसीसमय समस्त सङ्घ सहित उस देशके छोड़ने की अभिलापाकी ॥६२-६५॥ जब श्रावकोंने मुनिराजके सङ्घ सहित जाने के 1 शिक्षा | पद द्वादशाब्दा मुने 1 चे निशम्य तद्वनः पुनः ॥६- ॥ निर्मितज्ञानती झासीन्मुनिरुत्पात मद्भुतम् शरद्वादश पर्यन्तं दुर्भिक्षं मध्यमण्डले ॥ ६१ ॥ भविष्यतितरां चेति कृपाद्रमनसा मुनिः । अन्तरा विधायाऽऽनु ततो व्यापुटितो गृहात् ॥ ६१ ॥ समभ्यस्याऽऽन्मनः स्थानं समाहूय निजं गणम् । व्याजहार तत योगी तपः संयमबृंहणम् ॥ ६२ ॥ समा द्वादश दुर्भिक्ष भषिनान योगिनः । धनधान्यजनाकीर्णो जनान्तोऽयं मुखाकरः ॥ ६४ ॥ शून्यो भविष्यति क्षिप्रं तस्कर नृपतुष्टनैः । ततः सूयमिनां युकं नात्र स्थातुं गुसिंग ॥ ६५ ॥ निमन गणेनेति प्रतिपणं गुरोषंचः । पिनिईएस्तो जावो गनगनगणान्वितः ॥ ६६ ॥

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