Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 110
________________ भद्रवाहु-चरित्रकठिन तथा दुःसाध्य होनेसे हमलोगोंने स्थविर कल्प, संयम धारण किया है । परन्तु जिनकल्प तथा स्थविरकल्पका लक्षण जबतक न समझ लो तबतक ऐसे मिथ्या बचनमी मत कहो । क्योंकि स्थविर कल्प भी तुम्हारे कथनानुसार परिग्रह सहित नहीं होता है। ___ अब पहले ही जिनकल्प संयमका लक्षण कहा जाता है--जिसके द्वारा मुनिराज मुत्यङ्गनाके आलिङ्गनके सुखका उपभोग कर सकते हैं। जो सम्यक्त्व रूप रत्नसे भूषित होते हैं, जिन्होंने इन्द्रियरूप अश्वोंको अपने वशमें कर लिये हैं, जो एकाक्षरके समान एकादशाङ्ग शास्त्रके जानने वाले हैं, जो पांवोंमें लगे हुये कांटेको तथा लोचनोंमें गिरी हुई रजको न तो स्वयं निकालते हैं और न दूसरोंसे कहते हैं कि तुम निकाल दो, निरन्तर मौन सहित रहते हैं, वज्रवृषम नाराच संहननके धारक होते . हैं, गिरिकी गुहाओंमें वनमें पर्वतमें तथा नदियों के स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराषितम् ॥ १०१ ॥ मावदैतद्वनोऽसत्यमहावा लक्षणं तयोः । ततः स्थविरकल्पेऽपि नैबास्ति सरसामः ॥१३॥ ____ अथाऽभिधीयते तावजिनकल्पापसंयमः। मुक्तिकान्तापरिखासौख्यं मुहरू यतो मुनिः ।।१०४॥ सम्यक्त्वरमसद्भपा विजितेन्द्रियवाजिनः। विदन्त्येकादशा ये शुतमेकाक्षरं यथा ॥ १.५॥ क्रमयो कण्टक भन चक्षुपोः सात रजः । खयं न फेटयन्त्यन्वैरपनीतममाषणम् ॥ १०६ ॥ वधानाः सन्ततं मौनमायसंहननाऽऽश्रिताः। कन्दयों कानने शैले घसन्ति तटनीतटे ॥ १०७॥ षण्मासमवतिछन्ते प्रावूटकालेशि

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