Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 118
________________ भवान्धरित्र नवीन मत कौन है। इनके पास मेरा जाना योग्य नहीं: है। ऐसा कहकर उसी समय वहाँसे अपने महलकी ओर लौट गया और जाकर अपनी कान्तासे कहाखोटे मार्गके चलानेवाले, जिनः भगवानके शासन: विरह मतके धारण करने वाले तथा परिग्रह रूप पिशाचके वशवति ये ही तुम्हारे गुरु हैं ? मैं उन्हें कमी नहीं मानूंगा ! वह राजाका आशय समझ कर उसी समय गुरुके पास गई और विनय विनीत मस्तकसे नमस्कार कर प्रार्थना करने लगी 180-94 , . भगवन ! मेरे भाग्रहसे आप सब परिग्रह छोड़कर पहले ग्रहण की हुई देवताओंसे पूजनीय: तथा पवित्र निम्रन्थ अवस्था ग्रहण कीजिये । उन. सब श्वेताम्बर साधुओंने रानीके बचन सुनकर उसी समय वस्त्रादि सब परिग्रह छोड़ दिया । और हाथमें: कमण्डल तथा पीछी लेकर जिन भगवानकी दिग'म्बरी दीक्षा अङ्गीकार की। फिर राजा भी उनके सन्मुख ||१४५॥ न्याय भूपतितसादागल निजमन्दिरम् । भाषते स महादेवी गुरवस्खे. कमार्गगाः ॥ १४६ ॥ बिनोवितबहिर्भूतदर्शनाभितवृत्तयः । परिमहप्रहमास्वत्रता-: मन्यामहे वयम् ॥ १४ ॥ बा-तु मनोगतं राशो शात्वाऽगादारुसनिधिम् ॥ नत्वा । विज्ञापयामास, विनयानतमस्तका ||. १४८ ॥ भगवन्मदामहादान्या गृहीतामरमिसम् निन्धपदवीं पता हिला सामुदायिकम् ॥१४९ ॥ उररीकृय के, रामा वचनं बिदुवार्धितम् । तत्यजुः सकलं सई वसनादिकमनसा ॥ १५॥ करे. कमळ छत्वा पिच्छिक च जिनोदिताम् । चमहुर्जिनमव से पलाशधारिणः,

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