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भद्रबाहु-चरित्र
महाराज विक्रमकी मृत्युके १५२७ वर्ष बाद धर्मकर्मका सर्वथा नाश करने वाला एक लुंकामत (ढूँढियामत) प्रगट हुआ । उसीकी विशेष व्यवस्थायों है—
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अपनी अलौकिक विद्वत्तासे देवताओं को भी पराजित करने वाले गुर्जर (गुजरात) देशमें अणहल नाम नगर है । उसमें प्राग्वाट ( कुलम्बी ) कुलमें लुंका नामका धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस पापी दुष्टात्मा ने कुपित होकर तीव्र मिध्यात्वके उदयसे खोटे परिणामोंके द्वारा लुंकामत चलाया । और जिन सूर्यसे प्रतिकूल होकर - देवताओंसे भी पूज्यनीय जिन प्रतिमा, उसकी पूजा तथा पवित्र दानादि सब कर्म उठा दिये
॥७५-६१॥
उस मतमे भी कलिकालका बल पाकर अनेक भेद होगये सो ठीक ही है कि- दुष्ट लोग क्यार नहीं करते हैं ? । अहो ! देखो ! मोहरूप अंधकारसे ये लोग स्वयं भी आच्छादित हुये और इन्हीं पापी लोगोंने
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लङ्कामतमभूदेकं लोपर्क धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिजरे ॥ १५८ अगलिपत्तने रम्ये प्राग्वाट कुनोऽभवत् । लुङ्ाऽभिषो महामानी शुक्राश्रयी ॥ १५९ ॥ दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपितः पापमण्डितः । तीब्रमिध्यात्वपाकेन छामरामकल्पयत् ॥ १६० ॥ सुरेन्द्रार्थी जिनेन्द्रार्चा तत्पूजां दानमुतमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतीपो जिनसूत्रतः ॥ १६१ ॥ तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदाः समाश्रिताः । कलिकालवलं प्राप्य दुष्टाः किं किं न कुर्वते ॥ १६२॥