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समूटभाषानुवाद
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राज्य किस लिये छोड़ा ? उत्तम कुलमें समुन्द्रत्र, महाविहान तथा वज्रवृषभ-नाराच संहननका धारक पुरुष भी यदि परीग्रही हो तो वह भी मोक्षमं नहीं जा सकता तो ओरों की क्या कहें ? इसलिये शिव सुखाभिलाषी साधुओंको वस्त्र, कम्बल, दंड तथा पात्रादि उपकरण कभी नहि ग्रहण करने चाहियें। क्योंकि वस्त्रों के ग्रहण करनेसे उनमें लीखें तथा जूं आदि जीवांकी उत्पत्ति होती रहती है और उनके घरने उठाने तथा धोने में जीवोंकी हिंसा होती है । दूसरे वस्त्रके लिये प्रार्थना करनेसे दीनता आती है और वस्त्र प्राप्त होने पर उसमें मोह होजाता है मोहसे संयमका नाश होता है तो उससे निर्मलता होना तो दुर्लभ हीं नहीं किन्तु नितान्त असम्भव है । इसलिये अन्तरग तथा बाह्य परिग्रहके त्यागयुक्त साक्षाज्जिनलिङ्ग हो श्लाघनीय हैं। और सम्यक्त युक्त जीवोंके शिव सुखका हेतु है । ९५-१०१ ।। कदाचित यह कहो कि - जिनकल्प लिङ्गके बहुत
मादिदेवेन हि मे ॥ ९६ ॥
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सौरम्यस्य साधनम् ॥ १०१
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