Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 113
________________ समूदभाषानुवाद होन है मन अत्यन्त चञ्चल है और मिथ्या मत सारे संसारमें विस्तीर्ण होगया है तो भी वे लोग संयमके पालन करने में तत्पर रहते हैं ॥११-२०॥ , दुमरे अन्यमै भी कलियुगक पावत चा लिया है-"डो कर्म सकते हैं ये करियर एकपम भी ना किये जा सकने' यह मोबागाण मनगशा मयं । परन्तु यह गाया विएकुल अशुद्ध है। हमारे पास दो प्रतिय भी इन दोनाम ऐसा ही पाइ हानेस परवन यही पार एपमाना वास्तवम ऐसा मयं होना चाहिये "जा यमं पूर्य पालम एकवर्षमै नाश कर दिये जाने पे उतने ही कर्म स फाटयगर्म हजार वर्षमै भी नाश नहीं किये जा सकते।। इसीसे मोक्षाभिलाषी साघुलोग संयमियोंके योग्य पवित्र तथा सावध (आरंभ ) रहित पुस्तकादि ग्रहण करते है। इस प्रकार सर्व परिग्रहादि रहित स्थविर कल्प कहा जाता है। और जो यह वस्त्रादिका धारण करना है वह स्थविर कल्प नहि है किन्तु गृहस्थ कल्प है। मैं तो यह समझता हूं कि-इन श्वेतादरियाने जो इस गृहस्थ कल्पकी कल्पना की है वह मोक्षकी प्राप्ति के लिये नहीं स्थानानगरमामजिनमानियासिनः दो Rater मन मियामवातिव्यासं पारि गंगोय .॥ (१)रक्त परिवहन पुगपर्म पर। मार गिरि मह # रवि शामिन A TREET Mma are -

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