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समूलमापानुवाद |
일부
तो उत्तम शिष्य कहे जाते हैं जो गुरुकी आज्ञाके पालन करने वाले होते हैं ।
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पश्चात् श्रीविशाखाचार्य - समस्त साधुसंघ के साथ २ ईर्यासमितीकी शुद्धिपूर्वक दक्षिणदेश में बिहार करते हुये मार्ग में भव्य पुरुषोंको सुमार्ग के अभिमुख करते हुये और नवदीक्षित साधुओंको पढ़ाते हुये चौल देश में आये | और फिर वहीं रहकर धर्मोपदेश करने लगे । उधर तत्वके जानने वाले विशुद्धात्मा तथा योग साधनमें पुरुषार्थशाली श्रीभद्रबाहु योगीराजने अपने मन वचन कायके योगों की प्रवृत्तिको रोककर सल्लेखना विधि स्वीकार की । और फिर वहीं पर गिरिगुहामें रहने लगे । उनकी परिचर्या के लिये जो चन्द्रगुप्ति मुनि रहे थे परन्तु वनमें श्रावकोंका अभाव होनेसे उन्हें प्रोषध करना पड़ता था । सो एकदिन स्वामीने उनसे कहा- वत्स ! निराहार तो रहना किसी तरह उचित नहीं है। इसलिये तुम वनमें भी आहारके लिये जाओ ।
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स एव कीर्तिताः शिष्या चे गुर्वाज्ञानुवर्तिनः ॥ १० ॥ विशाखो विदन्यी निदितसोचनः । परीठो मुनिपेन दक्षिणापयन् ॥ ११ ॥ योधान्यध्यादेश समासदत् । श्रोतमठासन जनं पाटयश्रवदीक्षितान् ॥ १३ ॥ तत्र गणाधादाः कुर्वन्धर्मोपदेशनम् । अय बाहुविक्षुद्रमा भट्टपूर्वं सुतरववित् ॥ १३ ॥ निन्थ्य निमितान्योगायोगी योगपरायणः । सम्यासविधिनादाय वरपीन गुद्दान्तरे ॥ १४ ॥ चन्द्रगुप्तिस्य कुले पर्युपासनम् प्रयागगानभवन कुर्वाणः श्रीपर्व परम् ॥ १५ ॥ गुरोदा क्षिप्यो यस्त
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