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चतुर्थ परिच्छेद ॥ ४ ॥
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जब स्थूलाचार्यने-सुना कि श्री विशाखा -
चार्य समस्त सङ्घ सहित दक्षिण देशसे मालव देशको ओर आये हुये हैं तो उनके देखनके लिये अपने शिष्यांको भेजे । शिष्य भी स्वामीके पाम जाकर भक्ति पूर्वक उनकी वन्दना की । परन्तु श्रीविशाखाचार्यने उनलोगों के साथ प्रति बन्दना न की और पूछा कि मेरे न होते हुये यह कौन दर्शन तुम लोगों ने ग्रहण किया है ?
शिष्य लोग श्रीविशाखाचार्यके वचनों को सुनकर लज्जित हुये और उसी समय जाकर सब वृत्तान्त अपने गुरूसे कह सुनाया। उस समय रामल्य स्थूलभद्र तथा स्थलाचार्य अपने २ सङ्घके सब साधुआं को बुलाकर उनसे कहने लगे कि हम लोगों को अब क्या करना
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
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स्थूलाचार्याभिधानोऽप ममानयं यन्निनम् । विद्यायाचार्यमा
मयाची विजयादि ॥ १ ॥
नाः शिष्या मनात सु
सौ यन्दितः
मुनिः ॥ ६ ॥ विनगर मे
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वन्दना । किमिदं दर्शनं नूनमानं नेति भारितन ॥ ३ ॥ व्यायुव्य तद्गुरं जगुः । रामस्थूलभद्राचा एकीनेोनिः